केंद्रीय सूचना आयोग ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए राजनैतिक दलों को भी सूचना के अधिकार के अंतर्गत शामिल करते हुए अपने चंदे व खर्च की जानकारी सार्वजनिक किए जाने का निर्देश जारी किया। आयोग के अनुसार चूंकि राजनैतिक दलों द्वारा सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त की जाती है इसलिए अपनी आय तथा व्यय की जानकारी देने के लिए वे जनता के प्रति जवाबदेह हैं। लिहाज़ा अब देश की राजनैतिक पार्टियां आरटीआई की धारा 2(॥)तहत होंगी। सभी राजनैतिक दलों को अब आयकर विभाग के समक्ष अपना आयकर रिटर्न दाखिल करना होगा। हालांकि आयोग द्वारा जारी इस निर्देश के पश्चात लगभग सभी राजनैतिक दलों में हलचल पैदा हो गई है। स्वयं को पारदर्शी तथा पार्टी के लेखे-जोखे को लेकर साफ-सुथरा बताने वाले राजनैतिक दल आयोग के इस निर्णय को पूरी तरह पचा नहीं पा रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि देश में विकराल रूप धारण कर चुके भ्रष्टाचार की सबसे गहरी जड़ राजनैतिक दलों द्वारा चुनाव संबंधी चंदों की वसूली व चुनाव में होने वाले बेतहाशा ख़र्चों में ही छुपी हुई है। हालांकि टी.एन.शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त होने के समय से ही राजनैतिक दलों तथा चुनाव के संबंध में सुधार संबंधी तमाम महत्वपूर्ण फैसले लिए जाने शुरु हो चुके हैं। और इसमें भी कोई शक नहीं कि चुनाव सुधार लागू करने संबंधी तमाम फैसले लागू करने के प्रभाव अब धीर-धीरे साफतौर पर नज़र भी आ रहे हैं। बेइंतहा शोर-शराबा, व अनगिनत वाहनों की चुनाव में सरपट भागदौड़, असीमित जनसभाएं तथा इनमें दिन-रात होने वाले लाऊडस्पीकर के शोर-शराबे, झंडे, बैनर व पोस्टर का बेहिसाब प्रदर्शन, राजनैतिक दलों के झंडे लगाकर बेहिसाब वाहनों का आवागमन आदि जैसी तमाम चीज़ों पर काफी नियंत्रण पाया जा चुका है। ज़ाहिर है इन पर नियंत्रण पाने से राजनैतिक दलों का इन मदों पर होने वाला बड़ा खर्च काफी हद तक नियंत्रित भी हुआ है। परंतु सवाल यह है कि जो कुछ दिखाई दे रहा है वास्तव में हकीकत भी वही है या फिर यह महज़ एक कागज़ी हिसाब-किताब अथवा दिखावा मात्र है? क्या वास्तव में राजनैतिक दल चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित खर्च के अंतर्गत ही चुनाव लड़ते हैं? और आरटीआई एक्ट के अंतर्गत आने के बाद क्या राजनैतिक दलों द्वारा अपने चंदे व खर्च संबंधी जो हिसाब-किताब दिया जाएगा वह वास्तव में पारदर्शी होगा? या फिर यह सब कुछ महज़ एक फजऱ् अदायगी मात्र होगी जो कि किसी चार्टड एकांऊटेंट द्वारा अपनी कार्यकुशलता से पूरी कर दी जाया करेगी। इसका जायज़ा लेने के लिए हमें पिछले किसी लोकसभा अथवा विधानसभा चुनावों की ओर झांकने की ज़रूरत ही नहीं। भविष्य में होने वाले किसी चुनाव को लेकर कयास लगाने की बजाए यदि हम पिछले दिनों हरियाणा नगर निगम के चुनावों के दौरान खेले गए पैसों के खुले खेल पर नज़र डालें तो हम इस निष्कर्ष पर बड़ी आसानी से पहुंच जाएंगे कि कानून अथवा उसकी बंदिशें तभी कारगर साबित हो सकती हैं अथवा लागू की जा सकती हैं जबकि चुनावों में उम्मीदवार स्वयं पूरी ईमानदारी के साथ इसे अपने-अपने चुनाव संचालन में लागू करना चाहें। परंतु ऐसा करने के बजाए यह देखा जा रहा है कि इन्हीं उम्मीदवारों द्वारा चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित चुनावी मापदंडों, नीतियों व कानूनों की सरेआम धज्जियां उड़ाई जाती हैं। अपने-अपने चुनाव जीतने के लिए प्रत्याशियों द्वारा क्या कुछ $गलत $कदम नहीं उठाए जाते। पिछले दिनों हरियाणा के नगर निगम चुनावों के दौरान तो पैसे लुटाए जाने का जो खुला प्रदर्शन देखने को मिला उससे तो यह एहसास हो रहा था कि गोया चुनाव नगर निगम के चुनाव न होकर विधानसभा अथवा लोकसभा के चुनाव हो रहे हों।।
हरियाणा में गत् 2 जून को सात नगर निगमों के चुनाव संपन्न हुए। इनमें अंबाला,पंचकुला,करनाल, पानीपत,हिसार, रोहतक तथा यमुनानगर के नगर निगम शामिल थे। इनमें कई ऐसे नवगठित नगर निगम थे जहां पहली बार निगम के प्रावधानों व नियमों के अंतर्गत् चुनाव हो रहे थे। यहां वार्डों का पुनर्गठन किया गया था। वार्डों के क्षेत्र नगरपालिका की तुलना में का$फी बड़े आकार वाले हो गए थे। इन कुल सात नगर निगमों में 144 वार्डांे का गठन किया गया था। जिनमें 78 वार्ड आरक्षित थे। 14 वार्ड पिछड़े वर्ग हेतु आरक्षित किए गए थे जबकि 42 वार्डों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया था। इन चुनावों में कांग्रेस पार्टी द्वारा अपने किसी भी प्रत्याशी को चुनाव चिन्ह का प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी गई थी। इसका मु य कारण यही था कि राज्य में कांग्रेस पार्टी के सत्तारुढ़ होने के चलते यहां कांग्रेस के प्रत्याशियों तथा उ मीदवारों की सं या भी का$फी अधिक थी। प्रत्येक वार्ड से कई-कई उ मीदवार कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रत्याशी बनना चाह रहे थे। लिहाज़ा कांग्रेस ने यह रणनीति अपनाई कि उसने अपने किसी भी प्रत्याशी को पार्टी का चुनाव चिन्ह इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं दी। जिस वार्ड से जिस पार्टी नेता को यह $गलत$फहमी अथवा $खुश$फहमी थी कि केवल वही इस वार्ड से चुनाव जीत सकता है ऐसे सभी प्रत्याशी सोनिया गांधी,राहुल गांधी, मु यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा तथा अपने स्थानीय नेताओं के चित्रों के साथ पोस्टर व बैनर आदि छपवा कर चुनाव मैदान में कूद पड़े थे। जबकि भारतीय जनता पार्टी तथा इंडियन नेशनल लोकदल ने लगभग सभी वार्डों में अपनी पार्टी के अधिकृत उ मीदवार ही खड़े किए थे।
बहरहाल, चुनाव प्रचार की समय सीमा अर्थात् 31 मई की सांयकाल तक तो चुनाव आयोग के अधिकारियों की निगरानी अथवा भय के तहत सभी नगर निगमों के लगभग सभी वार्डों में लगभग ईमानदारी व संयम के साथ चुनाव प्रचार होने की $खबरें आईं। परंतु प्रचार समाप्त होने की बेला से लेकर चुनाव प्रारंभ होने अर्थात् 2 जून को प्रात:काल तक यानी 48 घंटों के भीतर चुनाव के कायदे-कानूनों,नियमों तथा चुनावी आचार संहिता की गुपचुप तरीके से ऐसी धज्जियां उड़ाई गईं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अपनी जीत को प्रतिष्ठा का प्रश्र बनाए बैठे लगभग सभी पार्टियों के तमाम प्रत्याशियों ने जोकि आर्थिक रूप से संपन्न भी थे उनके द्वारा पानी की तरह पैसा बहाया गया। कई वार्ड से तो यहां तक सूचना मिली कि अमुक प्रत्याशियों ने अपनी जीत सुनिश्चित करने हेतु साठ-सत्तर लाख रुपये से लेकर एक करोड़ रुपये तक खर्च कर डाला। समाचार यह भी है कि ऐसे तमाम धनवान प्रत्याशियों ने लिफाफ़ों में रखकर नकद धनराशि जिसमें प्रति वोट के हिसाब से किसी को पांच सौ रुपये दिए तो किसी प्रत्याशी ने एक हज़ार रुपये की नोट एक मतदाता के लिए भेंट की। शराब का वितरण तो सरेआम किया गया। करनाल में तो गैर कानूनी ढंग से ले जाई जा रही शराब से भरी ट्रकें भी पकड़ी गईं। परंतु जहां ऐसी ट्रकें नहीं पकड़ी जा सकीं वहां यह शराब गली व मोहल्लों में घर-घर जाकर धड़ल्ले से बांटी गई।
इतना ही नहीं बल्कि अपने पक्ष में मतदान कराने वाले ठेकेदारों को भी बड़े ही आकर्षक प्रलोभन दिए गए। प्रत्याशियों को भलीभांति मालूम था कि नगर निगम चुनावों में दस-बीस मतों से लेकर 100-200 मतों तक से भी जीत-हार का फैसला हो सकता है। लिहाज़ा उनके लिए एक-एक वोट कीमती था। इसलिए इस बार मतदान कराने हेतु ठेकेदारी प्रथा का चलन भी देखा गया। यदि कोई व्यक्ति पूरी गारंटी के साथ पांच से लेकर दस वोट तक डलवाएगा तो उसे एक मोटर साईकिल दी जाएगी। इसी प्रकार कई उम्मीदवारों द्वारा पच्चीस से लेकर पचास वोट दिलवाने वाले एजेंट के लिए कार दिए जाने के पुरस्कार गुप्त रूप से घोषित किए गए थे। खबर यह भी है कि कई प्रत्याशियों ने मतदाताओं को अपनी भेंट अथवा रिश्वत देने के बाद उनसे उनके बच्चों के सिरों पर हाथ रखवाकर कसमें भी खिलवाईं कि वे उनके अतिरिक्त किसी और प्रत्याशी को वोट हरगिज़ नहीं देंगे। इस प्रकार की और भी तमाम गंभीर अनियमितताएं इस बार के नगर निगम चुनावों के दौरान सुनने को म
ऐसे में यह सोचना ज़रूरी है कि राजनैतिक दलों को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने के बावजूद क्या राजनैतिक दलों से जुड़े ऐसे लोग जोकि साम-दाम, दंड-भेद किसी भी युक्ति को अपना कर हर हाल में चुनाव जीतना चाहते हैं क्या वे अपने पिछले दरवाज़े से किए जाने वाले बेतहाशा व गैर कानूनी खर्च को सार्वजनिक कर सकेंगे? क्या मतों को खरीदने की बन चुकी इनकी प्रवृति पर आरटीआई नियंत्रण पा सकेगी? क्या चुनाव आयोग से संबंधित कर्मचारियों के लिए यह संभव है कि वे पूरे चुनाव क्षेत्र में हो रही गैर कानूनी गतिविधियों पर नज़र रख सकें अथवा उसे नियंत्रित कर सकें?