तारकेश कुमार ओझा
अपनों से मिलने की ऐसी तड़प , विकट प्यास तो न थी
शहर की सड़कें पहले कभी यूं उदास तो न थी
पीपल की छांव तो हैं अब भी मगर
बरगद की जटाएंं यूं निराश तो न थी
गलियों में होती थी समस्याओं की शिकायत
मनहूसियत की महफिल यूं बिंदास तो न थी
मुलाकातों में सुनते थे ताने – उलाहने
मगर जानलेवा खामोशियों की यह बिसात तो न थी