“भूख और भय से भागे हैं – भुखमरी और मजबूरी से बापसी होगी “

ओद्योगिक नगरो और   महानगरों से मजदूर अपने मूल घरों और स्थानों को क्यों भाग रहे हैं ? प्रथम लॉक डाउन के आरंभ में एक हिंदी डेली में मैंने लिखा था कि ” भारत कोरोना से भी जीत सकता है  बशर्ते…। देश सामान्य खाद्यान सप्लाई सेना के हाथ में दे दे। मध्य्यम वर्ग 15 दिन और श्रमिक वर्ग 4 से 7 दिन तक ही अपना काम चला सकता है। किसान वर्ग कितना भी शोषित पीड़ित अवस्था में हो वह रोटी के करीब होता है। उसका सामाजिक परिवेश आज भी उसे सीधे भूखा नही मरने देता। किसी सीमा तक ग्रामीण मजदूर भी, अभी भी कृषक की लाइफ लाइन से जुड़ा है न्युनाधिक  रूप से , वह भी सोसल एक्सचेंज की सहायता से भूख का सामना उधार, पी डी एस आदि से कर सकता है। किंतु ये सभी छोटे किंतु महत्वपूर्ण साधन व संबंध नगरीय व महानागरीय मजदूरों के पास नही होते ना हैं और ना होने की संभावना है। इसी कारण उनके साधन 40 दिन नही चल सकते थे। वो बीत गए । दूसरा बीमारी कोरोना की प्रकृति, दवाई कोई है नही और सोसल डिस्टेंस  ? महानगरीय मजदूर डिस्टेंस क्या करेगा? अरे स्पेस ही नही है उस मजबूर मजदूर पर। वो दड़बों में रहते हैं। 8×8 की खोली मे 6 आदमी ! तो सोसल डिस्टेंस का अर्थ क्या है? एक के निकाले स्वांस से दूसरा स्वांस लेता है। कोरोना के प्रचलित इलाज की विवशीय विधि कारेंटिन तथा मरने पर अंतिम संस्कार में भी परिजनों तक का  शामिल ना होना / हो पाना / और उपलब्ध ना होने ने मजदूरों के भय ने उन्हे राजमार्गो पर धकेल दिया।              यकायक हुए लॉक डाउन और मजदूरों की समस्या के आने वाले रूप को समझने में शासन पूर्णत विफल रहे। पहले जो जहाँ है वहीं रहे की थ्योरी, जो रोग की दृष्टि से सही थी, किंतु उसमे मजदूरों की भौतिक व मानसिक अवस्था दोनो को समझने में  सफल नही रहा देश। परिणाम वही हुआ जिसका मैंने अपने प्रथम लेख मे ही किया था। लॉक डाउन को लाँघ कर मजदूरों के सड़को पर आने का यह तीसरा चक्र है। यह भी याद रखिये की इस सब में 40 से अधिक दिन बीत गए। तब सरकार ने निर्णय लिया की श्रमिक अपने घर लौट सकते हैं।              मजदूरों के घर बापसी के निर्णयो में इतने इफ एंड बट लगाएं गए हैं कि उनका घर बापसी भी एक दीवानी के मुकदमे जैसा बन गया है। 3 मई के श्रम मंत्रालय के आदेश में यह कहा गया की जो लोग लॉक डाउन के काल में जाकर फंस गए थे उन्ही को बापस भेजा जायगा ।           दूसरा तमाशा केंद्र सरकार के रेल मंत्रालय ने बापसी के रेल किराये को लेकर कर दिया। रेल के टिकट में सरकार सब्सिडी देती रही है, वही किराया सभी यात्रियों से चार्ज किया जाता है। रेल मंत्रालय ने ट्रेन की ऑपरेटिंग कोस्ट जोड़ कर टिकिट किराया तय किया जो आम प्रचलित दर से 6 से साडे 6 गुना हुआ। उसका 85% सब्सिडी बताई और मजदूर को वह पूर्ण किराया जो चलन मे होता है उससे भी 10,20,30रु ज्यादा चार्ज किया। केंद्र ने कहा इसे राज्य दे। इस पर सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष ने घोषणा कर दी, कि मजदूरों से कोई किराया नही लिया जायेगा। उसका भुगतान कांग्रेस करेगी। राजनीतिक कोलाहल हो गया सत्ता पक्ष  में। मजदूरों को पंजी करण में उलझा दिया। आनंन फानन में बीजेपी डेमेज कंट्रोल में जुट गयी। इसमे भी बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने बहुत वेवर्ड नीति अपनाई। मजदूरों की परेशानियों का चित्र ऐसा है कि  भारत का कोई भी राज मार्ग ऐसा नही जिस पर मजदूर अपने छोटे – छोटे बच्चो और कहीं कहीं गर्भवती स्त्री श्रमिक हजारों मील दूर की पैदल यात्रा पर चलते जा रहे हैं। क्यों? क्यों की सरकार ने घर बापसी का अधिकार सब मजदूरों को नही दिया है।           उत्तर प्रदेश और बिहार  ने अपने मजदूरों को एक साथ लेने से हाथ खड़े कर दिये तेलंगाना से आने वाले मजदूरों के लिए। कल 6 मई की शाम होते होते करनाटका सरकार ने प्रवासी मजदूरों को उनके घर ले जाने वाली ट्रेन रद्द कर दीं हैं। अर्थात मजदूर वहीं रहें और कार्य करें। क्यों की लॉक डाउन में एकानोंमी खोलने के लिए  मजदूरों की जरूरत है।            करनाटक सरकार ने अपना प्रवासी मजदूरों को उनके घर ना भेजने का फरमान बापस ले लिया है। यह उन्हे तब करना पड़ा जब मजदूरों ने खुद को बंधुआ ना होने की बात कह कर पैदल ही घर जाने की मुहीम शुरू कर दी।          जैसे भूखे को रोटी की चाह है वैसे ही पूंजी पति और व्यापारी को लाभ की चाह होती है। इन प्रवासी मजदूरो की घर बापसी की बहु विधि प्रक्रियाओं में आज की औरंगाबाद में 16 मजदूरों की रेल गाड़ी से कट कर मर जाने की “घटना” बहुत ही हृदय विदारक है।  प्रवासी मजदूरों को यु पी सरकार ने पैदल चल कर बापस घर आने वालों से कहा है की पैदल ना चलें सरकार सब को बापस लायेगी। मजे की बात ये है की रेल मंत्री ने औरंगाबाद में मालगाड़ी से 16 मजदूरों के कटने की जाँच के आदेश दे दिए हैं। अरे ! गृह  मंत्री को बर्खास्त कर देना चाहिए। यदि सरकार प्रवासी मजदूरों की घर बापसी मे बहु विधि अडंगे लगा रही थी / है तो उन्हे सड़क पर पुलिस नही चलने देती। तभी तो श्रमिक रेल पटरी पर सो गए – और सदा के लिए सो गए।           प्रधानमंत्री ने दुख का ट्वीट किया है। पीयूष गोयल, रेल मंत्री  को देखने को भी कहा है। गृह मंत्री कह देते पैदल यात्रियों को पुलिस तंग ना करे। अरे कुछ पहुंचेंगे कुछ मर जायेंगे – तो क्या?          प्रवासी श्रमिको  की समस्या का दूसरा पक्ष इनके अपने मूल स्थानो पर पहुँचने के 2 से 3 महीने बाद भूख और बेरोजगारी की भीषण अवस्था सामने आयेगी। आज के भारत में कृषि छेत्र में अब उतने मजदूरों को काम देने की अवस्था नही है। एक तो जोत छोटी हो गयी हैं दूसरे कृषि के यंत्रीकरण ने कामगारों के लिए अब पहले जितना काम उपलब्ध नही है। परिणाम होगा की कोरोना के भय के चलते भूख और बेरोजगारी से परेशान प्रवासी मजदूरों की बापसी होगी। तेरा जाना भी दुखद – तेरा आना भी दुखद, पर ये ही जीवन है की तुझे आना तो पड़ेगा।डॉ देशबंधु त्यागी 

1 COMMENT

  1. bhook aur bhay se bhookhmari aur mazboori ke beech desh ke arthvyavastha ke naash ki tasveer isase bhi bhayankar hogi

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