शिरडी के सांई बाबा एक योगी और फ़कीर थे। उनके भक्त हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे। वो ख़ुद हिन्दू थे या मुसलमान ये जानकारी भी नहीं है, उनके लियें इसका कोई महत्व भी नहीं था। उनके अनुसार सद्गुरु को समर्पित होना आध्यात्म का पहला क़दम है। सांई बाबा को मानने वाले भक्त भारत में ही नहीं विदेशों में भी हैं। बाबा आत्मबोध, दया, स्नेह, क्षमा, संतोष व ईश्वर में विश्वास का संदेश देते थे। वह जाति या किसी धर्म से नहीं जुड़े थे। उनकी शिक्षा में हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों के तत्व शामिल हैं। दोनों धर्मों की परम्पराओ को लेकर वहाँ रस्में (rituals) होती थीं। बाबा को शिरडी में ही दफ़नाया गया था। वो ‘अल्लाह मालिक’ का उच्चारण करते थे। उनके जन्म स्थान, तारीख या माता पिता के बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं है। जब भी किसी ने उनसे कुछ जानना चाहा तो उन्होंने सीधा उत्तर न देकर मायावी सा उत्तर दिया। सांई नाम उन्हें शिरडी में आकर ही मिला वहाँ एक मंदिर के पुजारी ने उन्हें सूफ़ी संत समझा और कहा स्वागत सांई, सांई सूफ़ी संत को कहा जाता है ।
इतिहासकारों और उनके भक्तों को उनके आरंभिक वर्षो की कोई जानकारी नहीं है। ऐसा माना जाता है कि उनका काफी समय सूफ़ी फ़कीरों के साथ बीता था। उनका पहनावा भी सूफ़ी संतों जैसा ही था। सांई बाबा के एक भक्त दास गनु ने पाथरी गाँव में जाकर उनके बचपन की जानकारी ली और उसको लिखा भी। दास गनु के अनुसार उनका बचपन पाथरी गांव में एक सूफ़ी फकीर व उनकी पत्नी के साथ गुज़रा। दास गनु के अनुसार उस फ़कीर की पत्नी ने पांच साल की आयु में एक संत देशमुख वैंकुशा की देखरेख में उन्हे छोड़ दिया। दास गनु मानते थे संत कबीर ने सांई बाबा के रूप में जन्म लिया है। नरसिम्हा स्वामी ने भी बाबा की जीवनी लिखी है, उनके अनुसार वो ब्राह्मण माता-पिता की संतान थे।
सांई सद्चरित्र के अनुसार वे सोलह साल की आयु में महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले में स्थित शिरडी नामक स्थान पर आये थे। यहाँ वो ध्यान की अवस्था में आसन लगा कर बैठे रहते थे और एक तपस्वी जैसा जीवन जी रहे थे। वहाँ उन्हें बिना डरे, बिना सर्दी गर्मी की परवाह किये तपस्या करते देख कर गाँव के लोग हैरान थे। उनकी तपस्या देखकर उत्सुकतावश कुछ लोग उनके पास आने लगे जिनमें महालास्पति, अप्पा जोगले, कशिन्था मुख्य थे। कुछ लोग उन्हे पागल समझकर पत्थर भी फेंकते थे। माना जाता है कि वो तीन साल शिरडी में रहकर कहीं चले ये। दोबारा 1858 में वो शिरडी में आकर बस गये। अनुमान लगाया जाता है कि उनके जन्म का वर्ष 1838 होगा।
1858 में शिरडी वापिस आने के बाद बाबा ने लम्बी घुटने तक की रोब के जैसा वस्त्र पहनने शुरू किये जिसे कफ़नी कहा जाता है, साथ में सिर पर एक कपड़ा बाँधने लगे। इस वेषभूषा के कारण उन्हें लोग मुसलमान सूफ़ी फ़कीर समझ लेते थे। माना जाता है कि वो बाल नहीं कटवाते थे। लगभग पांच साल तक बाबा नीम के पेड़ के नीचे ही रहे और शिरडी के आसपास के जंगलों में भटकते रहे। उनका अधिकतर समय ध्यान में बीतता था वो किसी से बातचीत भी ज़्यादा नहीं करते थे। धीर धीरे गांव के वासियों के कहने पर वो एक जीर्ण-शीर्ण पड़ी मस्जित में जाकर रहने लगे जिसे उन्होंने द्वारकामाई नाम दिया। यहाँ पर एक स्थान पर पवित्र अग्नि जलती रहती थी जिसे धूनी कहते थे। यहाँ पर हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग उनसे मिलने आते थे। बाबा जाते समय धूनी की राख जिसे विभूति या ऊदी कहा जाता है, मेहमानों को देते थे। ऐसी मान्यता है कि प्रभावित अंग पर विभूति लगाने से रोग ठीक हो जाते थे। बाबा का निर्वाह भिक्षा में मिले अन्न से हो जाता था। वो ख़ुद खाना बनाते थे और आने जाने वालों को भी खिलाते थे। भक्त इसे प्रसाद की तरह ग्रहण करते थे।
वो हिन्दुओ को हिन्दू धर्म की पावन पुस्तकें और मुसलमानों को क़ुरान पढ़ने को कहते थे। अपने व्याख्यानों में वो दृष्टा्त और रूपक द्वारा अपनी बात स्पष्ट करते थे। त्योहारों पर भजन गाये जाते थे, भोजन खिलाया जाता था। 1910 तक उनकी चर्चा मुंबई तक पंहुच गई। उनको लोग संत और अवतार कहने लगे। दूर से लोग उनके दर्शन के लियें आने लगे। उनका पहला मंदिर भिवपुरी करजत में बनाया गया। सांई बाबा ने तपस्वी की तरह जीवन बिताया वो सबसे साधारण सी ज़िन्दगी जीने को कहते थे। वो सभी धर्मों के कट्टरवाद का विरोध करते थे। वो सबसे प्रभु का नाम लेने को कहते थे, सभी धर्मों का सम्मान करते थे, नैतिकता में विश्वास रखते थे और भागवद गीता के दर्शन से प्रभावित थे। वो नास्तिकता में विश्वास नहीं करते थे।
बाबा ने हमेशा मोह में बंधे बिना कर्तव्य का पालन करने को कहा, बिना जाति और धर्म देखे दूसरों की मदद करने का संदेश दिया। बाबा बहुत ज़्यादा धार्मिक रीति रिवाजों का पालन नहीं करते थे पर उनके रीति रिवाजों में दोनो धर्मो की रस्में शामिल थी। वहाँ मुस्लिम त्योहारों पर अल-फतीहा और क़ुरान पढ़ी जाती थी। वो मानलिड और कव्वाली तबले और सारंगी के साथ सुनते थे। वो श्रद्धा और सबूरी (सब्र) में यक़ीन करते थे।
साँई बाबा भक्तियोग, जनयोग और कर्मयोग के साथ क़ुरान की भी व्याख्या करते थे। वो दया भाव और हर मदद मांगने वाले की सहायता करने का उपदेश देते थे। शिरडी के साँई बाबा 19 वीं सदी में एक आंदोलन के रूप मे उभरे। एक स्थानीय पुजारी म्हालस्पति नागरे संभवतः उनका पहला शिष्य बना। धीरे धीरे आसपास के लोग भी उनके शिष्य बनते गये। बीसवीं सदी तक उनके संदेश पूरे विश्व में पंहुचने लगे।
उनके जीवन काल में ही हिन्दू उन्हें अपने तरीके से पूजने लगे थे और मुसलमान उन्हें संत मानते थे। हेमदपन्त जिन्होने सांई सद्चरित्र लिखा वो उन्हे श्री कृष्ण का अवतार मानते थे। कुछ अन्य लोग उन्हें दत्तात्रेय का अवतार समझते थे। बाबा के अंतिम सालों में ईसाई और ज़ोरोस्ट्रियन भी उनके दर्शन के लियें आने लगे थे।उन्होने 15 अक्तूबर 1918 को शरीर त्याग दिया था।
महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, ओडिषा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी उनको लोग पूजने लगे थे। एक हिन्दू धर्म के रूप में सांई आंदोलन अब तक ब्रिटेन, अमरीका करेबियन, सिंगापुर मलेशिया आदि देशों में पंहुच चुका है।
साँई बाबा ने औपचारिक रूप से किसी को गुरुदीक्षा नहीं दी, परन्तु उनके एक भक्त सकोरी के उपासनी महाराज की ख्याति एक आध्यात्मिक पुरुष के रूप में हुई। उनके कुछ प्रमुख भक्त नाना साहिब चंदोरकर, दास गनु, तात्या पाटिल, हाजी अब्दुल बाबा, माधवराव देशपांडे, हेमदपन्त, महालस्पति चिमनजी नागरे व राधाकृष्ण माई थे। ऐसी मान्यता है कि साँई बाबा के बहुत से चमत्कार लोगों ने देखे थे। बहुत से लोग बीमारी से उठ कर ठीक हो गये परन्तु ये आस्था की बात है, इसकी वैधता को सिद्ध करने के लियें कोई प्रमाण नहीं हैं।
हिन्दू येवला के संत आनन्द नाथ ने सांई बाबा को आध्यात्मिक ‘हीरा’ कहा। संत गंगागरि ने ‘रत्न’ बताया। इस प्रकार बहुत से सामयिक और बाद में आये संतो ने उनको बहुत सराहा और श्रद्धा अर्पित की। मुसलमानों ने उन्हें सूफ़ी फ़कीर या पीर माना। नानाभाई पलखावाला और होमी भाबा जो ज़ोरोस्ट्रेनियन धर्म के थे वो भी सांई भक्त थे।
आज देश के छोटे बड़े शहरों में शिरडी के सांई बाबा के मंदिर है। पूरे देश में उनके असंख्य भक्त हैं। देश में ही क्यों विदेशों में भी उनके मंदिर हैं जहाँ उनके भक्त पूजा अर्चना करने जाते हैं। जैसाकि अब तक के विवरण से स्पष्ठ हो चुका है कि बाबा सर्वधर्म में विश्वास करते थे परन्तु कालांतर में ये धर्मनिर्पेक्ष रूप समाप्त हो चुका है। साँई बाबा के शिरडी स्थित समाधि मंदिर सहित अन्य मंदिरों में केवल हिन्दू धर्म की गतविधियाँ पूरे आडंम्बर के साथ होती है। वही दिन में कई बार आरती और अन्य धार्मिक क्रियाकलाप होता है। मुसलमानों को अब शिरडी का रुख़ करते नहीं देखा जाता।
दूसरी बात यह कि भक्त बाबा के आदर्शों से पूरी तरह भटक चुके हैं। किसी अज्ञात भक्त ने अगस्त 2012 में दो बड़े हीरे शिरडी में बाबा के मंदिर को अनुदान में दिये जिनका मूल्य 1 करोड़ 18 लाख रुपये आँका गया है। सांई बाबा जो एक कफ़नी में टूटी फूटी मस्जिद में रहते थे उनके लिये भव्य मंदिरों का निर्माण करके बाबा की मूर्ति को सोने चाँदी के सिंहासन पर, सोने चाँदी की छतरी के नीचे स्थापित कर दिया गया है। यह किस तरह की भक्ति है! सच तो ये है कि मंदिरों में आने वाला धन अधिकतर काला धन होता है, जिसे चढाकर लोग अपने अपराध बोध को कम करते हैं, इसलिये मेरे विचार में एक निश्चित राशि से ज़्यादा धन नक़द में न लेकर चैक या ड्राफ्ट द्वारा लिया जाना चाहिये। साल में प्रबंधन में होने वाले ख़र्चे से 20-25 प्रतिशत अधिक धन आने के बाद अनुदान लेना बन्द कर देना चाहिये। व्यर्थ में मंदिर में सोना चाँदी जड़ने का कोई औचित्य नहीं है। यह सही है कि भारत के पुराने मंदिरों में सोने के भंडार होते थे। शिरडी के सांई बाबा इतने पुराने नहीं है कि उनके बारे में जानकारी न हो, उनके आदर्श मालुम न हों, उनके बारे में मालुम है कि वो पत्थर पर नीम की छाँव में बैठते थे, अतः उनकी मूर्ति को सोने के सिंहासन पर न बिठाकर एक पत्थर पर स्थापित किया जाता तो बहतर होता। वो एक संत थे उन्हें सोने चाँदी से कोई मोह नहीं था, इसलिये हीरे, सोने चाँदी के रूप में वहाँ अनुदान नहीं लिया जाना चाहिये।
भारत के सभी प्रमुख मंदिरो की तरह शिरडी में भी श्रद्धालु बहुत बड़ी संख्या में दूर दूर से आते हैं। धार्मिक पर्यटन के लियें शिरडी बड़ा स्थान बन चुका है, इसलिये यात्रियों की सुविधा के लियें हर स्तर के होटल धर्मशालायें, गैस्टहाउस ,बाज़ार, रैस्टोरैंट और ढाबे खुल गये हैं। एक छोटा सा गांव अब शहर बन गया है, जिसकी वजह से वहाँ का सात्विक वातावरण बदलने लगा है। दर्शन के लियें बहुत लम्बी लम्बी कतारें लगती हैं। VIP अलग द्वार से प्रवेश करते हैं, सुनने में आया है कि पैसे देकर भी VIP द्वार से जाकर कुछ अन्य लोग दर्शन करते है। साँई के दरबार में यह भेद भाव भी उचित नहीं लगता।
एक और बात, कि जहाँ अनियंत्रित संख्या में भीड पंहुचती है वहाँ भगदड, आतंकवाद आग लगने या किसी प्राकृतिक विपदा के समय बहुत जाने जाती हैं और बचाव कार्य कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति से बचने और धार्मिक स्थल को शाँत व सात्विक बनाये रखने के लिये प्रशासन को एक निश्चित संख्या से ज़्यादा श्रद्धालुओं को जाने की अनुमति नहीं देनी चाहिये, इच्छुक लोग आवेदन भेजकर अपना पंजीकरण करवाये, फिर प्राथमिकता के आधार पर उन्हे वहाँ जाने की अनुमति मिले।
शिरडी सांई संस्थान को ये बदलाव करने के लियें विचार करना चाहिये नहीं तो बाबा के सब सिद्धान्त खोखले साबित होंगे। अन्य धार्मिक स्थानो की तरह शिरडी को एक धार्मिक पर्यटन स्थल बनेने से रोका जाना चाहिये और श्रद्धा का केन्द्र बने रहने देना चाहिये।
vichaarneey lekh ke liye binu ji ko badhaaee .