निमाड़ की माटी के संत शिरोमणि सिंगाजी महाराज

आत्माराम यादव पीव

    आज से 501 साल पूर्व विन्ध्याचल ओर सतपुड़ा के बीच कल-कल प्रवाहित नर्मदा की गोद में बसे निमाड़ क्षेत्र के बड़वानी जिले के गॉव खजूरी में भीमाजी गवली (यादव) के घर संवत 1576 ( सन्1519) में वैशाख की नवमी दिन बुधवार को प्रातःकाल उनकी पत्नी गौरा बाई ने एक बालक को जन्म दिया जिसका नाम सिंगाजी था। जन्म के सम्बन्ध में श्रीसेवाश्रम नर्मदामंदिर हाउसिंग बोर्ड होशंगाबाद के कवि पण्डित गिरिमोहन गुरू ने अपनी पुस्तक आस्था के अठारह दीपक में संत सिंगाजी चालीसा में उनके जन्म का दिन बुधवार के स्थान पर गुरूवार बतलाया है-
जय जय मॉ गऊर के लाला। भीमा सुत भक्तन प्रतिपाला।
जयति नगर हरसूद निवासी। जय-जय ग्रहस्थ आश्रमवासी।।
वैशाखी ग्यारस गुरूवारा। पन्द्रह सौ उन्नीस मॅझारा।। 
भीमाजी गौली घर आकर। ग्राम खजूरी किया उजागर। 
   गिरिमोहन गुरू के अलावा सिंगाजी साहित्य शोधक मंडल (सन 1934) के शोध के आधार पर पण्डित रामनाराण उपाध्याय ने सिंगाजी का जन्म संवत 1576 में मिति वैशाख सुदी ग्यारस दिन-गुरूवार को पुष्यनक्षत्र में सुबह 8 बजे होना लिखा है बाकि सभी जगह उस तिथि में दिन गुरूवार न मानकर ’बुधवार’ मानते है जिसका निर्णय संवत 1576 के पंचाग द्वारा ही किया जा सकता है। किन्तु सिंगाजी वाणी से स्पष्ट हो जाता है कि उनका जन्म ’बुधवार’ को हुआ, इसलिये गिरिमोहन गुरू के सिंगाजी चालीसा ओर पण्डित रामनाराण उपाध्याय द्वारा गुरूवार का संशय अर्थहीन हो जाता है-
जन्म खजूरी में भयो, गौली घर अवतार
माता गोरा को पय पियो, हरयो भूमि को भार
संवत पन्द्रह सौ छिहत्तर जानी, जन्म भयो खजूरी बड़वानी।
वैशाखसुदी नौमी सारा, प्रगट भये दिन बुधवारा।
वहॉ चलकर आये हरसूद, करी नौकरी प्रगटे हुजूर।। 
    सिंगा जी के विषय में कहा गया है कि वे अवतारी पुरूष थे ओर उन्हें श्रृंगी ऋषि का अवतार कहा गया है इसलिये उनका नाम सिंगा जी ’श्रृंगी’ का सिंगा माना हैै और वे चौथे अवतार के रूप में यहॉ जन्मे है जिसका पहला लोमष ऋषि, दूसरा-भमाण्डक, तीसरा-श्रृंगी ऋषि और चौथा सिंगा जी है। खजूरी के महन्त हीरालाल साद के अनुसार चारों अवतारों का समय 81 हजार 86 वर्ष और तीन महिने है। एक पद में कहा भी गया है कि -
श्रृंगी ऋषि अवतार है भाई, सिंगाजी नाम धर भक्ति दृढ़ाई।
जन्म खजूरी में भयो गवली घर अवतार।।
      भीमाजी ग्वाला के पास उस समय 300 भैसे और 700 गायें थी जो उनकी सम्पन्नता का द्योतक है। भीमाजी के पास अन्न,धन लक्ष्मी की कमी नहीं थी और घर मूं दूध-दही की नदिया बहती थी। सिंगाजी के अलावा भीमा के एक पुत्र लिम्बाजी एवं पुत्री कृष्णाबाई भी थे जो शिक्षा-दीक्षा में अग्रणी रहकर पदगायकी में अपनी पहचान बना चुके थे। निमाड़ में उस समय फारूखी राजाओं का शासन था और यह शासन 1370 से 1600 तक रहा। जिस समय सिंगा जी का जन्म हुआ उस समय वहॉ के शासन की डोर आदिल शाह फरूखी के पास थी। उस समय पूरे निमाड क्षेत्र में अराजकता थी और मुस्लिम राजाओं के खौफ में हिन्दुओं का जीना मुश्किल था तथा कभी भी चोर, लूटेरे और डाकू हमला कर किसी भी परिवार को तहस नहस कर देते तब उसका लाभ छोटे-छोटे राज्यों,राजाओं-नबावों, जमीदार-जमीदारों के संरक्षण को माना जाकर लोग न्याय से वंचित रहते थे। तब के लोगों में अंधविश्वास चरम पर था और जनमानस का जीवन तंत्र-मंत्र,झाड-फूंक, जादू-टोना में  विंधा हुआ था और सभी का विश्वास भगवान पर था। 
    सिंगाजी के पिता भीमाजी गवली का नाम प्रतिष्ठित किसानों में था जिनके यहॉ अनेक नौकर कामकरते थे और उनकी सम्पन्नता देख कुछ लोग जलते थे। गाय-भैसों को चराने का काम स्वयं भीमाजी करते थे और अपनी खेती पर भी ध्यान देते किन्तु लोग उनकी समृद्धि को देख उन पर तंत्र-मंत्र के द्वारा नुकसान पहुंचाने का प्रयास करते थे जिसमें गॉव का एक भीमा धोबी सिंगा जी के जन्म से पूर्व से ही भीमा गवली से बहुत ईष्या करता था और हमेंशा तारण-मारण, तंत्र-मंत्र व जादू-टोने का जानकार था और इनका प्रयोग कर भीमा एवं उसके परिवार को मारने के लिये मूठ मारता था। उस धोबी की सारी तंत्र,मंत्र विद्यायें भीमा गवली एवं उसके परिवार पर प्रयोग के बाद असफल होता देख जल-भुन जाता। उसकी पत्नी जो उस समय दाई का काम करती थी को भीमा गवली के घर गोराबाई गऊरबाई के गर्भवती होने की खबर मिलने पर वह बच्चे को जन्म के समय मारने का षड़यंत्र रचकर बैठी थी। 
      कहा जाता है कि इस बात को मॉ के गर्भ में सिंगाजी ने जान लिया था और जब नौ माह पूरे हुये वे अपनी गुबार में गोबर थापने अर्थात कण्डे/उपले बनाने गयी और वही सिंगाजी का जन्म हो गया। आसपास गोबर थाप रही महिलाओं ने उन्हें संभाला तथा पत्थर पर पत्थर रखकर नाला काट दिया, कहते है जन्म के बाद तुरन्त ही सिंगा जी अपने पैरों पर खड़े हो गये थे, जिस पत्थर से उनका नाला काटा गया वह पत्थर आज भी खजूरी में है। सिंगा जी के बचपन में किसी तरह का कोई अभाव नहीं था वे पॉच बरस की आयु में दस बरस के गबरू दिखते थे और गीतों को गाने एवं बॉस की बॉसुरी बजाकर मोहित करने का हुनुर जानते थे तथा गाय-भैस चराने के लिये पिता के साथ जंगल जाया करते थे।
एक दिन की बात है भीमा जी की सभी भैंसे कोई चुरा ले गया जिससे घर के सभी नौकर भैसे ढूढने निकल पड़े लेकिन उनकी कोई खबर नहीं थी। माता गोराबाई ने बालक सिंगा से कहा जा बेटा अपनी भैसों को ढूढ ला। भेसों के न रहने से सारे पाडा-पाडी दूध के लिये तरस रहे है। माता के कहने पर सिंगा जी ने उसी समय मॉ को कहा मॉ व्यर्थ चिंता न करों तुम दूध दुहने के सभी बर्तन भांडे ले आओ और पाड़ा-पाड़ी छोड़ो भैसें आ रही है। बालक सिंगा ने अपने ओठों से बांसुरी लगाकर मधुर धुन निकालकर भैंसों का आव्हान किया सभी देखकर अचम्भित हो गये, कि सभी गुम हुई भैसें आ गयी। ऐसे अनेक उदाहरण सिंगाजी के बालपन के मिल जायेंगे जिसमें उनके चमत्कारों से सभी दंग रहा करते थे और सबसे बड़ा चमत्कार धोबी के जादू-टोना को बेअसर करने वाला भी है। 
इन्हीं में एक घटना का जिक्र आता है जब बालक सिंगा डेढ़ दो साल के थे तब उसे भूख लगी तब मॉ गोरा अपने बाड़े में गोबर के कन्डे थोप रही थी वही दूर एक गोदडी में बालक सिंगा जी को लिटा दिया था। मॉ के हाथ गोबर में सने थे, सिंगाजी का भूख के मारे रोना जारी था कि अचानक मॉ गोरा को लगा कि उसके स्तनों पर कोई बालक का दबाव लग रहा है। माता के स्तनों से अपने आप दूध की धारायें चलने लगी और वे दुग्ध धारायें सीधे सिंगा के मुंह में गिरी जो एक चमत्कार था। मॉ के स्तन से जो दूध की धारायें निकली और सिंगाजी के आसपास जिन पत्थरों पर गिरी वहॉ सफेद धारियॉ बन गयी जो आज भी खजूरी में सिंगाजी की गढ़ी के नाम से देखे जा सकते है। 
भीमा गवली उसके बच्चे एवं कुटुम्ब परिवार की सम्पन्नता भीमा धोबी के लिये ऑखों की किरकिरी बनी हुई थी और वह भीमा गवली के परिवार को नष्ट करने की धुन में लगा रहता था। कहते है जब सिंगाजी अपने पिता की मदद के दरम्यान गाय-भैसों को चराने जंगल जाते और मवेशियों को पानी पिलाने के लिये जिस नदी में लाते तब भैसे पानी में बैठ जाती और उससे पानी गंदा हो जाता जिससे वहॉ पर भीमाधोबी कपड़े धोने में परेशानी महसूस कर चिढ़ जाता और उसके सिंगाजी पर मारण विद्या का प्रयोग कर मूठ मारी लेकिन सिंगाजी का कुछ नहीं हुआ तब उसके द्वारा उनके परिवार सहित सभी पर हर पन्द्रह दिन के अंतराल में आठ साल के भीतर 360 मूठे मारकर मारन विद्याका प्रयोग किया और अभिमंत्रित नीबू जिसमें सुईयॉ चुभो देने पर व्यक्ति की मौत हो जाती है का प्रयोग कर भीमा गवली और उनके पूरे परिवार का नाम लेकर फैका। ताकि ज्यों-ज्यौं नींबू सूखता जाता है सुईया मरने वाले के हृदय को चुभती जाती है और एक दिन वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह एक दुष्ट प्रक्रिया है जिसमें मंत्र जानने वाला इसे लौटाने की विधि भी जानता है ताकि उसका कोई स्वार्थ सिद्ध होने या आर्थिक लाभ मिलने पर उसकी जान बच जाये। सात्विक वृत्ति वाले व्यक्ति पर यह विद्या कारगार नहीं होती और वह सुरक्षित रहता है। मारण विद्या के सुई चिभोय हुये नींवू भीमा गवली के ऑगन में फैकने पर सिंगाजी ने उन्हें ऑगन के एक पत्थर के नीचे दबाकर निष्प्रभावी कर अपना तथा अपने परिवार का बचाव भी कर लिया जिसे उनके भाई लिम्बाजी ने देखा तो पूछा कि आखिर यह विषाक्त वातावरण को हम कब तक सहेंगे। तब सिंगा जी अपनी मॉ से खजूरी छोड़ने का आग्रह किया-
माता मानो हमारी तुम बात, खजूरी छोड़ी देंवा। 
खजूरी जलम भूमि आपणी, वहॉ पराचित होय अपार। 
खजूरी में छत्तीस कोम बसती, ऊ करी रहा जीव न पे घात। 
कुण हमारो यहॉ सारथी, दूसरों बसॉवा गॉव
सिंगा जी की विनती सुण लीजे,सारथी श्री करतार। 
मॉ हम खजूरी गॉव छोड़कर दूसरा गॉव बसा ले। खजूरी जन्मभूमि है पर यहॉ अत्याचार बंद नहीं हो रहा है। इस गॉव में 36 जाति के लोग है औरवे स्वार्थवश जीवोंपरघात-प्रतिघात कर रहे है जिसमें हमारा कोई साथी नहीं है तब गौराबाई बेटे से कहती हैकि मेरी विनती सुन लो अपना सबसे बड़ा साथी भगवान है वही हमारे जीवन रथ के साथी और सारथी है, एक अन्य पद में भी यह बात देखने को मिली-

माता मानो हमारी तम एक बात, खजूरी अपण छोडी देवा।
माता घट को धोबी हमको मूठ मार,माता यह दुख सयो नी जाय।
बेटा अनधन लक्ष्मी का काई लई जावां, बेटा कां जाई न देवां रयवास।।
माता हरसूद जिला गॉव भैसावा, माता पिपल्या म देवां रहवास।
कहे जन सिंगा सुणो भाई साधो, असो राखों ते शरण लगाय।।
बालक सिंगा जी और परिवार के अन्य सदस्यों के खजूरी छोड़ने के निर्णय पर उनके पिता भीमाजी सहमत हो गये और संवत 1582 में अपने अपना पूरा सामान 300 भैसों एवं 700 सौ गायों को लेकर हरसूद के पिपलया नामक गॉव की ओर चल पड़े। तब उस समय आवागमन का कोई साधन नहीं थे और न ही नदी पर कोई पुल था तब उन्होंने उनका परिवार, नौकर-चाकर, पूरा सामान,बैलगाड़ी, घोड़ागाडी जिनपर सामान लदा था बच्चों और महिलाओं के लिये तम्बू लिये गाड़ियॉ कुल साठ-सत्तर लोगों का काफिला खजूरी से रवाना हुआ। खजूरी से निकलने के बाद भीमाजी के परिवार को लाव-लश्कर के साथ 36 स्थानों पर पड़ाव डालने पड़े जिसमें 10पड़ावों का जिक्र महन्त हीरालाल ने किया है और पड़ावों में पहला पड़ाव खेतिया पान सेमल, आवागढ, बड़वानी, धरमपुरी जोधपुर , निमरानी, बलखडबार गॉव भणगॉवा, ओंकारेश्वर, हरसूद एंव पिपलया बोरखेड़ा। यह 36 पड़ाव में प्रतिदिन एक पड़ाव के हिसाब से 36 दिन में भीमाजी अपने परिवार को लेकर पिपल्या पहुॅचे, कुछ लोगों का मानना है कि एक पड़ाव में दो से आठ दिन का समय लगा इस प्रकार वे चार माह बाद पिपल्या पहुॅचे जहॉ एक सम्पन्न ग्वाला परिवार का पिपल्या गॉव के लोगों ने बहुत ही स्वागत-सत्कार किया।
सिंगाजी का विवाह के सम्बन्ध में उनके नाती दलुदास द्वारा रचित एक पद मिला है जिसके अनुसार सिंगा जी का विवाह किशोरावस्था में ही सेल्दा पश्चिम निमाड के प्रतिष्ठित गवली किसान पेमाजी की पुत्री जसोदाबाई के साथ हुआ। जिसमें सिंगाजी का विवाह उनके जन्म स्थान खजूरी से होना बताया है। पद में खजूरी के बाराती कहा गया है। भीमाजी के समधी सेल्दा के पेमाजी बने। पण्डित ने लगुन लिखी। खजूरी की सुहासिने आई, उन्होंने लग्न टीप को बॉधा, खजूरी के बराती बने। बैलगाड़ियों को खूब सजाया तथा बेलों को खूबसूरत ध्वनियॉ करने वाली घन्टियॉ की माला पहनाई गयी । बारात सेल्दा पहुॅची और पेमाजी ने खूब सत्कार किया और जनवासा दिया।
सेल्दा म करी सगा साई रे भीमा न सेलदा करी सगा साई
पेमाजी बण्या जिनका ब्याई, भीमा न करी सगाई ।
जोशी पण्डित लियो बुलाई,सिंगा की टीप लिखाई
नगर खजूरी की सॅखिया बुलाई,अन सिंगा की टीप बधाई
जब सिंगा जी करवान बठाडियो, गौराबाई बणी वरमाय।
बईण कृष्णा न आरती उठाई, अन सख्ीनन हलद लगाई
कुटुम्ब कबीलो लियो बुलाई, खजूरी का सजा रे बराती
कई रे भीमाजी गाड़ी घुराव, अन धवलया क बॉधी घुघरमाल।
गाड़ी धुराईन हुया रवाना, पहुॅच्या छे सेल्दाका माई
जबर पेमाजी खुशी मनाव, अन जनवासा दिया बठाई
बामण बुलाया न लगीण लगाया, चवरी का फेरा फिराया।
कहे जन दलु सुणो भाई साधु, अन जसोदा दिवी परणाई।।
पिपल्या आने के बाद सिंगाजी ने जब 24 वर्ष के हुये तब उन्हांंने भामगढके राजा लखमेसिंह के यहॉ नौकरी कर ली और राजा की डाक लाने ले जाने का काम करने लगे। इनके चमत्कार और आर्श्चय करने वाले अनेक कारनामोंं की जानकारी सभी ओर थी और राजा लखमेसिंह भी इनसे प्रभावित था। सिंगाजी को राजा की नौकरी करते 15 वर्ष बीत गये और वे 39 वर्ष के हो गये और उनके चार पुत्र जन्म ले चुके तब कहते है कि एक दिन सिंगाजी महाराज घोड़ी पर सवार होकर भामगढ से हरसूद डाक लेकर जा रहे थे तब राह में स्वामी मनरंग के मुख से स्वामी ब्रम्हगीर का एक भजन सुनाई दिया- ’’समुझि लेवो रे मना भाई, अंत न होय कोई आपणा।’’ सिंगाजी ने पूरा भजन सुनने के बाद वे वैराग्य से भर गये और मनरंगस्वामी से गुरूदीक्षा लेने की इच्छा की।
सिंगाजी से गृहस्थ त्यागने पर मनरंगस्वामी ने दीक्षा दी तब सिंगा जी महाराज ने लखमेसिंह की नौकरी छोड़ निगुर्ण ब्रम्ह के गुणगान में लग गये। सिंगाजी महाराज के भक्तों के अनुसार सिंगाजी महाराज के 1100 भजन है किन्तु वे लिपिबद्ध नहीं है कुछ भक्त यह सॅख्या 800 बताते है किन्तु ये प्रगट में न होने से इनकी सॅख्या का प्रमाण नहीं है। जो भजन या पद सिंगाजी महाराज के अब तक प्राप्त हुये है वे सिंगाजी महाराज को कबीर परम्परा के संतों में लाकर खड़ा करते है जहॉ सिंगा जी द्वारा राम को निर्गुण निराकार ब्रम्ह माना है और उसे अजन्मा, अगोचर, अरूप ब्रम्ह को राम के अतिरिक्त निगुर्ण ब्रम्ह, साहेब, गोविन्द, सोहम आदि सम्बोधित किया है, सिंगाजी महाराज के राम दशरथ के पुत्र नहीं अपितु अखिल ब्रम्हाण्ड में व्याप्त है, सर्वोपति और सर्वशक्तिमान है जो सकल चराचर जगत में स्थित है।
सिंगाजी पढ़े लिखे नहीं थे उन्होंने जो भी लिखा और जाना वह अपने आत्मानुभव से ही प्रगट किया इसमें शास़्त्रों जेसी संरचना भले हीं न हो किन्तु साहित्य में उनके साखी, दोहे, भजन, चोपाईयॉ, दृढ़उपदेश, आत्मज्ञान में या प्राणायाम और समाधि की प्रक्रिया,योग में नाडियों, षटचक्र,कुंडलिनी, बंकनाल, नाभिकमल, ब्रहरंध्रआदि तो है ही साथ ही दोषबोध में मानवीय क्रिया-व्यापारों को रेखाकिंग करते अनुचितकार्यो ओर नेतिक आचरण को व्यक्त करने तथा नारद में सदगुरू ओर ब्रम्ह, शरद मेंं शरदपूर्णिमा का सौन्दर्य बाणावली में जन्यता तथा संसार का मर्म, सातवार में सप्ताहों में जीवन की नश्वरता,ज्ञान की महत्ता, पन्द्रह तिथि में भारतीय महिनों के पन्द्रह तिथियों के आरम्भ और समापन को उनकी शुभता के साथ निरूपित करने तथा बारहमासी में बारह महिनों का सार, जीवन की गहनतम अनुभूतियां का वर्णन करने तथा प्रत्येक माह के मौसम स्थिति ओर उसमें घटित होने वाले रहस्यो आदि का वर्णन इनके द्वारा किया गया है-
निरगुण ब्रम्ह है न्यारा, कोई समझे समझण हारा।
खोजत-खोजत ब्रम्हा थाके, उनने पार न पाया।।
खोजत-खोजत सिवजी थाके, वो ऐसा अपरम्पारा।
सेष सहस मुख रटे निरन्तर,रैनदिवस एक सारा।
ऋषि मुनि और सिद्ध चौरासी, तैतीस कोटि पचिहारा।।
गुरूदीक्षा के 11 महिने बाद ग्राम पीपल्या में संवत 1616 सन 1559 में सिंगाजी ने जीवित समाधि ले ली। सिंगाजी की पत्नी जसोदाबाई अत्यन्त सुशील, सुन्दर और ईश्वरभक्त थी। उनके चार पुत्र कालू, भोलू, सदु और दीपू थे। इन चार पुत्रों में एक पुत्र कालू ग्वाल संत कवि के रूप में विख्यात रहे है तथा शेष पुत्रों के विषय में ज्यादा जानकारी नहीं प्राप्त होती है किन्तु दीपू नाम पुत्र की बचपन में ही मृत्यु होना बतलाया है। संत कालू गवली ने सिंगा पंथ की दीक्षा ली और कम आयु में जीवित समाधि ले कर पिता सिंगा जी की परम्परा का अनुसरण किया। कालू महाराज के नाम से इस क्षैत्र में पशु मेला लगता है और कालू के बाद उनके पुत्र दलुदास भी इसी परम्परा के अनुगामी बने।
इन्दिरासॉगर बॉध के डूबत क्षैत्र में हरसूद के आने के बाद पीपल्या गॉव भी आ गया जहॉ सिंगाजी की समाधि थी जिसे एक कुयॅे में सुरक्षित होना बताया गया जो जल में समा गयी है जिससे अब भक्त लोग ग्राम छनेरा में सिंगा जी का मेला आयोजित करने लगे है। इसके अलावा इस क्षैत्र में कालू जी महाराज का मेला, बोंदरूदास महाराज और बोखारदास महाराज आदि संतों का मेला लगता है। सिंगाजी को समाधि लिये 501 साल हो गये आज भी लोग अपने गाय-भैस गुम जाने पर या चोरी हो जाने पर सिंगाजी को कढ़ाई का प्रसाद चढ़ाकर मनौती करते है और उनका विश्वास फलित होता है और उनके गुम हुये जानवर उन्हें मिल जाते है और अनेक बार चमात्कारिक रूप से देखने को मिलता है जब चोर भी जानवर की पूछ पकड़कर सिंगा जी महाराज की शरण में आ जाते है।

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