निहाल होंगे जनप्रतिनिधि

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संदर्भः- विधायक-सांसदों के वेतनों में बढ़ोत्तरी

प्रमोद भार्गव

अन्ना आंदोलन की कोख से उपजी आम आदमी पार्टी का उदय और उसका जनता-जर्नादन में विश्वास इस उम्मीद को लेकर पैदा हुआ था कि वह आम और खास आदमी के बीच बढ़ रही विषमता की खाई को पाटने का काम करेगी। इस विश्वास की पुष्टि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप को 67 सीटें जीताकर मतदाता ने कर भी दी थी। लेकिन अब आप और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल की कथनी-करनी में फर्क दिखाई दे रहा है। जन-आकांक्षाओं पर वे खरे नहीं उतर रहे। जिस तरह से दिल्ली विधानसभा में विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ाने का विधेयक पारित हुआ है,उससे लगता है,अंततः उनकी कोशिशें आम और खास आदमी के बीच खाई को और चौड़ा करना है। इन बढ़े वेतन-भत्तों के देखा-देखी अन्य राज्यों के विधायक भी अपनी सरकारों पर वेतन बढ़ाने के लिए दबाव बनाएंगे। साथ ही सांसद भी संसद की संयुक्त समिति की वेतन-भत्तों से जुड़ी उन सिफ़ारिशों को लागू करने की कवायद करेंग,जो इसी साल जुलाई में आई थीं। ऐसा इसलिए होगा,क्योंकि अब दिल्ली के विधायकों का वेतन न केवल राज्य के अन्य विधायकों से कई गुना ज्यादा हो गया है,बल्कि सांसदों से भी ज्यादा है। जाहिर है,यह राजनीतिक अनैतिकता अखिरकार राजनीति के परिप्रेक्ष्य में बेहद घातक है।

सरकारी कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोत्तरी के लिए हर दस साल में वेतन आयोग अनुशंसाएं करता है। फिर एक नीति के तहत इन अनुशंसाओं को लागू कर दिया जाता है। आयोग की केंद्रीय कर्मचारियों व सेवानिवृत्त कर्मचारियों की वेतन व पेंशन में वृद्धि की अप्रत्याषित सिफ़ारिशें आई हैं। इनसे सरकारी खजाने पर तो बोझ बढ़ेगा ही असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लोगों को भयावह आर्थिक विसंगति का सामना करना होगा। मझोले,लघु और सीमांत किसान व कृषि मजदूरों की तो कमर ही टूट जाएगी। होना तो यह चाहिए था कि हमारे विधायक और सांसद वेतन बढ़ाने के इस नीतिगत उपाय का विरोध करते और निचले तबके के लोगों की आमदनी बढ़ाने के नीतिगत उपाय करते ? ऐसा होता तो जनप्रतिनिधियों के दायित्व बोध की भावना परिलक्षित होती।

किंतु विडंबना है कि जनप्रतिनिधि यह मिसाल पेश करते हैं कि उनका वेतन जनसेवक होने के नाते हरहाल में सचिव से ज्यादा होना चाहिए,भले ही एक रुपया ज्यादा हो ? मसलन आप अपना वेतन बढ़ाने के लिए सांतवे वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू करने का रास्ता साफ कर रहे हैं ? लिहाजा आम जनमानस में यह भाव गहरा रहा है कि जनता की सेवा के बड़े-बड़े दावे करने वाले नेता विधायिका का अधिकार प्राप्त होते ही अपने और अपनी संतति की सुख-सुविधा के लिए परेशान होने लग जाते हैं। अवर्षा और अतिवृष्टि की चपेट में आए अन्नदाता की आत्महत्याएं और चैन्नई की बाढ़ में डूबते लोग भी उन्हें उदार व सहिष्णु बनाए रखने का काम नहीं कर पाते। इससे लगता है कि अब देश की राजनीति उस पगडंडी पर चल पड़ी है,जो केवल सत्ता और धन के सुख से जोड़े रखने वाली है।

करीब पांच महीने पहले सांसदों की सर्वदलीय समिति ने प्रस्ताव रखा था कि बढ़ते खर्चों और महंगाई के मद्देनजर सांसदों के वेतन और भत्तों में कम से कम दोगुना वृद्धि की जाए। इसी आधार पर दिल्ली के विधायकों ने भी तर्क दिया था कि वर्तमान-वेतन भत्ते महंगाई और खर्च के औसत अनुपात में बहुत कम हैं। इस मांग की पूर्ति के लिए पीडीटी अचारी के नेतृत्व में एक समिति गठित की गई। इस समिति की सिफाारिशो ने दिल्ली के विधायकों के वेतन-भत्तों में उम्मीद ज्यादा बढ़ोत्तरी करके उन्हें निहाल कर दिया है। इन विधायकों को फिलहाल 88 हजार रुपए वेतन,भत्तों सहित मिल रहे हैं। इसे आनन-फानन में बढ़ाकर 2 लाख 36 हजार रुपए कर दिया गया। मसलन एक झटके में एक मुश्त एक लाख 48 हजार रुपए प्रतिमाह बढ़ा दिए गए। आम आदमी के हितों के सरंक्षण का दावा करने वाली केजरीवाल सरकार यही नहीं ठहरी,बल्कि विधायकों को जो वार्षिक  यात्रा भत्ता 50 हजार रुपए मिलता है,उसे भी बढ़ाकर तीन लाख रुपए कर दिया गया। यानी छह गुना बढ़ोत्तरी। साथ ही विधायकों को यह सुविधा भी दे दी गई कि वे चाहें तो इस धनराशि से विदेश जाकर भी मौज-मस्ती कर सकते हैं। गोया जो राशि अब तक केवल विधानसभा क्षेत्र की सीमाओं में बुनियादी समस्याओं की जानकारी जुटाने के लिए सुनिश्चित थी,उससे अब विधायक विदेश जाकर गुलछर्रें उड़ाएंगे। घोर राजनैतिक अनैतिकताओं व अनियमिततों से भरा यह विधेयक बहुमत से इसलिए पारित हो गया,क्योंकि 70 सदस्यीय विधानसभा में आप के 67 विधायक हैं। निहायत विसंगतिपूर्ण यह फैसला उस आम आदमी पार्टी का है,जिसने आम आदमी के हक और युवाओं को रोजगार देने के अरमान जगाए। किंतु सत्तारूढ़ होने के बाद इस दिशा में कुछ करने की बजाए जनता के अरमानों पर,जले पर नमक छिड़कने का काम जरूर कर दिया।

अब दिल्ली के विधायकों को प्रधानमंत्री से ज्यादा तनख्वाह मिलेगी। यही नहीं,इन माननीयों को अन्य सभी राज्यों के विधायकों और सांसदों से भी ज्यादा वेतन मिलेगा। फिलहाल संसद सदस्यों का सब कुल मिलाकर करीब डेढ़ लाख वेतन मिलता है। दिल्ली के विधायकों के वेतन बढ़ने के बाद सांसदों के एक समूह ने भी वेतन बढ़ाने की मांग उठा दी है। हाांकि सांसदों की संसदीय समिति पहले ही वेतन,भत्ते और पेंशन बढ़ाने की 65 अनुशंसाएं कर चुकी है। इन सिफारिशो में मासिक वेतन 50 हजार से बढ़ाकर एक लाख,संसद सत्र के दौरान दैनिक भत्ते को 2,000 से बढाकर  4,000 तथा पूर्व सांसदों की पेंशन प्रतिमाह 20000 हजार रुपए से बढ़ाकर 35000 करना शामिल है। इनके अलावा भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता वाली इस समिति ने पूर्व सांसदों के लिए विमान और रेल यात्रा में मिलने वाली सुविधाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी की मांग भी की है। यही नहीं विदेश यात्रा करने वाले वर्तमान व पूर्व सांसदों को वैसा वीजा देने की अनुशंसा की है,जैसा कि देश के राजनयिकों को मिलता है। जबकि सांसदों को जरूरत थी कि सेवानिवृत्ति के बाद हुई राजनायिकों को यह सुविधा मिल रही है तो इसे बंद किया जाए ? इन सिफारिशो में एक और मजेदार अनुशंसा यह है कि वर्तमान सांसदों की विवाहित संतानों को चिकित्सा सुविधा मिले। यहां सवाल उठता है कि विवाहित संतान जब एक स्वतंत्र परिवार बन जाता है तो उसे संसदीय कोटे से सुविधा क्यों ?

कुछ खबरों के मुताबिक यह अच्छी खबर है कि केंद्र सरकार ने संसदीय समिति की 65 में से 18 सिफारिशो के पूरी तरह नामंजूर कर दिया है। 15 पर सहमति नहीं बनी है। मगर इससे यह कटु सत्य नहीं बदल जाता कि अपने वेतन-भत्तों तथा अन्य सहुलियतों के लिए मत भिन्नता रखने वाले सांसद कैसे एकमत हो जाते हैं ? ऐसी समितियों में सभी दलों के सांसद इसलिए शामिल किए जाते हैं,जिससे व्यापक लोकहित सर्वोपरि रहे। किंतु लोकहित की परवाह करने की बजाय सांसदों को अपने स्वाहित और अपनी संतानों की सुख-सुविधाओं की चिंता ज्यादा रही है।

ऐसी स्वार्थ-सिद्ध भावनाएं प्रकट होने से उनके प्रति जनता का भरोसा टूटता है। जनप्रतिनिधि को लेकर जनमानस में जो आवधारणा है,वह खंडित होती है। सच्चा जनसेवक वह है,जिसकी सुविधाएं,जनसुविधाओं से जुदा न हों। लेकिन वेतन-भत्ते बढ़ाने के उपायों के चलते आज आय के विभाजन की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि देश की करीब 70 फीसदी आबादी तो 50-55 रुपए रोज की आमदनी से ही अपना गुजारा करने को विवश है,जबकि सांसद और विधायकों को अभी भी सभी सुविधाएं जोड़कर पांच हजार रुपए रोज के करीब मिल रहे हैं। इसके अलावा सांसद व विधायकों को सत्र के दौरान पौश्टिक व स्वादिश्ट सस्ती दरों पर भोजन भी मिलता है। कुछ समय पहले सूचना के अधिकार के मार्फत पता चला था कि संसद के भोजनालय में 76 तरह के लजीज व्यंजन कम से कम कीमत में परोसे जाते हैं। इन पर 63 प्रतिशत से लेकर 150 प्रतिशत तक की सबसिडी दी जाती है। बीते पांच सालों में यह सबसिडी 60 करोड़ 70 लाख की थी। यानी जिस दौर में आम आदमी 200 रुपए प्रति किलो की दालें खरीदने को मजबूर है,उसी दौर में जनप्रतिनिधि जनता के धन की बदौलत महंगाई की मार से एकदम अछूते हैं।

बावजूद तनख्वाह बढ़ाने के विधेयक पारित हो रहे हैं तो स्थिति शर्मनाक है। हैरानी इस बात पर भी है कि संसद और विधानसभाएं जब ठप रहती हैं,तब भी ये सुविधाएं बहाल रहती हैं। इस नाते केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा ने ठीक ही कहा था कि ‘संसद में काम नहीं तो सांसदों को वेतन भी नहीं मिलना चाहिए।‘ यह उपाय केवल विधायिका में ही नहीं,बल्कि न्यायपालिका और कार्यपालिका में भी लागू होना चाहिए। जब सरकारी व असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले दैनिक वेतनभागियों और मजदूरों पर यह नियम लागू है तो अन्य क्षेत्रों में क्यों नहीं ? साथ ही यह विचार भी गैरतलब है कि सांसदों की सुविधाओं में बढ़ोत्तरी का अधिकार संसदीय समिति को ही क्यों ? अपनी सहूलियतों में इजाफे का फैसला खुद संसदीय समिति ले यह किसी भी दृष्टिसे तर्कसम्मत नहीं है ? कोई ऐसी तार्किक व्यवस्था क्यों नहीं कि जाती जो निर्लिप्त हो ? जब तक ऐसी स्थिति सामने नहीं आती तब तक जनप्रतिनिधियों पर पक्षपातपूर्ण तरीके से स्वहित साधने के आरोप लगते रहेंगे ?

1 COMMENT

  1. इतनी सुविधाएँ लेने के बाद इनमें हंगामा करने की और शक्ति आ जाती है , फिर जब बिना काम के इतनी सुविधा लेने ये वाले लोग जन प्रतिनिधि कैसे कहे जा सकते हैं न लोक सेवक इन्होने तो इस नाम को ही बदनाम कर दिया

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