अंधों की बस्ती में चश्मे की बिक्री

हिन्दी शिक्षकों को निरंतर लिखने वाले से खास तरह की एलर्जी है। वे यह कहते मिल जाते हैं कि फलां का लिखा अभी तक इसलिए नहीं पढ़ा गया या विवेचित नहीं हुआ क्योंकि जब तक उनकी एक किताब पढकर खत्म भी नहीं हो पाती है तब तक दूसरी आ जाती है। इस तरह के अनपढों के तर्क उसी समाज में स्वीकार किए जाते हैं जहां लिखना अच्छा नहीं माना जाता। कहीं न कहीं गंभीर लेखन के प्रति एक खास तरह की एलर्जी या उपेक्षा जिस समाज में होती है वहीं पर ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं।

हिन्दी में देश में सबसे ज्यादा अनुसंधान होते हैं। आजादी के बाद से लेकर अब तक कई लाख शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा चुके हैं। हिन्दी में शोध की दशा को देखना हो तो हमें यह देखना चाहिए कि आलोचक वर्तमान के सवालों पर कितना समय खर्च कर रहे हैं। कितना लिख रहे हैं। रामविलास शर्मा, नगेन्द्र, नामवर सिंह, विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय,शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह, चन्द्रबलीसिंह, परमानन्द श्रीवास्तव, नन्दकिशोर नवल आदि की पीढ़ी के आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा? इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के वर्तमान जगत की समस्याओं पर कौन गौर करेगा? खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जटिलताओं का मूल्यांकन तो हमने कभी किया ही नहीं है।

रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक के स्वातन्त्र्योत्तर भारत के बारे में अब तक के विवेचन से भारत कम से कम समझ में नहीं आता। हिन्दी क्षेत्र और हिन्दी साहित्य की जटिलताओं काकम से कम आभास मिलता है। हिन्दी से जुड़े अधिकांश जटिल सवालों की हमारी समीक्षा ने उपेक्षा की है। किसी भी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस को मुकम्मल नहीं बना पाए हैं।

हिन्दी में साहित्यिक बहसें, विमर्श एवं संवाद के लिए नहीं होतीं,बल्कि यह तो एक तरह का दंगल है, जिसमें डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट चलती रहती है। हमने संवाद,विवाद और आलोचना के भी इच्छित मानक बना लिए हैं। इसे भी हम अनुशासन के रूप में नहीं चलाते।

परंपरा के नाम पर जो विपुल सामग्री स्वातंत्र्योत्तर दौर में रची गयी है वह भी इच्छित तरीके से। उसमें भी हमने शोध के अनुशासन का पालन नही किया है। परंपरा पर विराट सामग्री ने और कुछ किया या नहीं हम नहीं जानते किन्तु इसने हमारे हिन्दी के परजीवी शिक्षक को परंपरापूजक जरूर बना दिया है।

हम भूल ही गए कि परंपरा पर इकहिरे ढ़ंग से विचार करने से एक खास किस्म का सांस्कृतिक माहौल बनता है। जिसमें वर्तमान तो उपेक्षित होता ही है स्त्री और दलित भी उपेक्षित होते हैं। यही वजह है कि दलित और स्त्री को परंपरा से सख्त नफरत है। वे परंपरा के नाम पर किए गए किसी भी किस्म के प्रयास को स्वीकार नहीं करते। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा परंपरा का इन दोनों से सीधा अंतर्विरोध है।

परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमने सरलीकरण और साधारणीकरण से काम लिया है। परंपरा की इच्छित इमेज बनाई है। परंपरा की जटिलताओं को खोलने की बजाय परंपरा के वकील की तरह आलोचना का विकास किया है। परंपरा की इच्छित इमेज बनाने का सबसे अच्छा उदाहरण हैं रामविलास शर्मा का लेखन। इसमें वाद-विवाद और संवाद के लिए कोई जगह नहीं है। कुछ-कुछ यह भाव है हम बता रहे हैं और तुम मानो।

मजेदार बात यह है कि परंपरा का मूल्यांकन करते हुए जो लेखक परंपरा के पास गया वह परंपरा का ही होकर रह गया। परंपरा का मूल्यांकन करते हुए बार-बार परंपरापूजक का बोध पैदा करने की कोशिश की गई। इसकी साहित्य में गंभीर प्रतिक्रिया हुई है लेखकों का एक तबका एकसिरे से परंपरा को अस्वीकार करता है। परंपरा पर बातें करना नहीं चाहता।

खासकर प्रयोगवाद, नयी कविता, दलित साहित्य, स्त्रीसाहित्य और आधुनिकतावादी साहित्यकार के लिए परंपरा गैर महत्व की चीज है। कहने का अर्थ है कि परंपरा के बारे में हमारे यहां तीन तरह के नजरिए प्रचलन में हैं।

पहला नजरिया परंपरावादियों का है जो परंपरा की पूजा करते हैं। परंपरा में सब कुछ को स्वीकार करते हैं। दूसरा नजरिया प्रगतिशील आलोचकों का है जो परंपरा में अपने अनुकूल की खोज करते हैं और बाकी पर पर्दा डालते हैं। तीसरा नजरिया आधुनिकतावादियों का है जो परंपरा को एकसिरे से खारिज करते हैं। इन तीनों ही दृष्टियों में अधूरापन है और स्टीरियोटाईप है।

परंपरा को इकहरे, एकरेखीय क्रम में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। परंपरा का समग्रता में जटिलता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए। परंपरा में त्यागने और चुनने का भाव उत्तर आधुनिक भाव है। यह भाव प्रगतिशील आलोचकों में खूब पाया जाता है।

परंपरा में किसी चीज को चुनकर आधुनिक नहीं बनाया जा सकता। नया नहीं बनाया जा सकता। परंपरा के पास हम इसलिए जाते हैं कि अपने वर्तमान को समझ सकें वर्तमान की पृष्ठभूमि को जान सकें। हम यहां तक कैसे पहुँचे यह जान सकें।

परंपरा के पास हम परंपरा को जिन्दा करने के लिए नहीं जाते। परंपरा को यदि हम प्रासंगिक बनाएंगे तो परंपरा को जिन्दा कर रहे होंगे। परंपरा को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता।

परंपरा के जो लक्षण हमें आज किसी भी चीज में दिखाई दे रहे हैं तो वे मूलत: आधुनिक के लक्षण हैं नए के लक्षण हैं। नया तब ही पैदा होता है जब पुराना नष्ट हो जाता है। परंपरा में निरंतरता होती है जो वर्तमान में समाहित होकर प्रवाहित होती है वह आधुनिक का अंग है।वर्तमान का रूप है,उसका हिस्सा है।

साहित्य के लिए परंपरा का जो अर्थ है वही अर्थ ‘दलित साहित्य’ और ‘स्त्री साहित्य’ के लिए नहीं है। साहित्य की परंपरा इतिहास के साथ ‘दलित साहित्य’ और ‘स्त्री साहित्य’ का सीधा अन्तर्विरोध है। यह अंतर्विरोध कैसे खत्म हो इस पर हमने कभी विचार नहीं किया। समग्रता में देखें तो ‘परंपरा’ वर्चस्वशाली ताकतों का हथियार रही है। वर्चस्व स्थापित करे का माध्यम रही है।यही वजह है कि वंचितों ने हमेशा परंपरा को चुनौती दी है। उसे अस्वीकार किया है।यही स्थिति कमोबेश इतिहास की भी है। वंचितों ने इतिहास को भी चुनौती दी है। परम्परा और इतिहास के जितने भी मूल्यांकन हमारे सामने हैं वे दलित और स्त्री को सही नजरिए से देखने में मदद नहीं करते। बल्कि इसके उलट सही नजरिए से देखने में बाधा देते हैं।

वर्चस्वशाली ताकतों की सेवा में साहित्य का इतिहास तब तक सेवा करता है जब तक उसे चुनौती नहीं मिलती। आजकल जमाना बदल चुका है। बदले जमाने की हवा वर्चस्वशाली ताकतों और उनके विचारकों के लिए सिरदर्द बन गयी है। वंचितों के वैचारिक और सामाजिक दबाव का ही सुफल है कि आज आलोचना के किसी एक स्कूल के आधार पर मूल्यांकन करने की बजाय अन्तर्विषयवर्ती समीक्षा पध्दति का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग हो रहा है। हिन्दी में इस पद्धति का चलन काफी धीमी गति से हो रहा है।

हिन्दी अनुसंधान की सबसे बड़ी बाधा है उसका आलोचक और आलोचना से एकदम संबंध विच्छेद। अनुसंधान और आलोचना में किसी भी किस्म का संपर्क, संबंध और संवाद ही नहीं है। आलोचक इस संवाद में अपनी हेटी समझता है। वह आलोचना को उत्तम कोटि का कर्म और अनुसंधान को दोयमदर्जे का कर्म मानता है। सवाल किया जाना चाहिए कि आलोचना महान कैसे हो गयी और अनुसंधान निकृष्ट कोटि का कैसे हो गया?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,286 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress