
संदर्भः- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लाहौर यात्रा
प्रमोद भार्गव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनेक कूटनीतिक नियमों को ताक पर रखकर यकायक पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के आमंत्रण पर काबुल से भारत आते हुए लाहौर पहुंच गए। उनके इस जोखिम भरे दुस्साहिक कदम से भारत समेत पूरी दुनिया अचंभित है। क्योंकि विदेश यात्रा के दौरान किसी भी राष्ट्र प्रमुख के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होते हैं। इस लिहाज से एकाएक दुश्मन देश में उतरना विदेश नीति और कूटनीति के विशेषज्ञों के लिए यह पहल हैरानी में डालने वाली है। मोदी न केवल उतरे,बल्कि अगवनी के लिए हवाई अड्डे पर मौजूद नवाज शरीफ के साथ हेलिकाॅप्टर में बैठकर उनके पुश्तैनी गांव रावलपिंडी पहुंच गए। वहां शरीफ की नातिन मेहरूनिन्सा की निकाह की रस्म की बाधाई की औपचारिकता पूरी की। फिर शरीफ के साथ दोनों देशों के द्धिपक्षीय संबंधों पर अनौपचारिक बातचीत भी की। मोदी की डिप्लोमेसी के इस मास्टर स्ट्रोक से फिलहाल दुनिया में खलबली है। लेकिन यह अभी काल के गर्भ में ही है कि इस अभिनव पहल के बावजूद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों के बीच सौहार्द्र स्थायी रूप से कायम हो जाएगा। बावजूद यह समझ से परे है,कि कांग्रेस,जदयू और शिवसेना इस यात्रा का हाफिज सईद की तर्ज पर क्यों विरोध कर रहे हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ मनमोहन सिंह ने 2007 में फिक्की के सम्मेलन में कहा था,‘मैं चाहता हूं कि एक ऐसा दिन आए,जब कोई व्यक्ति नाश्ता अमृतसर में करे,दोपहर का भोजन लाहौर में और रात्रि का आहार काबुल में ले। यदि हम अपने पड़ोसी देशों से इस तरह के विश्वसनीय संबंध बना लेते हैं तो सीमाएं अप्रासंगिक हो जाएंगी। मेरे पुरखों के समय ऐसा ही था और मैं चाहता हूं कि मेरे नाती-पोतों को ऐसा अवसर मिले।‘ किंतु मनमोहन सिंह यह हिम्मत पाक से बार-बार न्यौता मिलने के बावजूद नहीं जुटा पाए। क्योंकि वे अपने पूरे 10 साल के कार्यकाल में कठपुतली प्रधानमंत्री की तरह काम करते रहे। सब जानते हैं, उन पर नियंत्रण के धागे 10 जनपथ में बैठी सोनिया गांधी की मुट्ठी में थे। इसीलिए सिंह जो सोचते थे,उसे कार्यरूप में बदल नहीं पाते थे। इसीलिए मोदी की तरह तय अजेंडे और प्रोटोकाॅल की वर्जनाओं को तोड़ने की हिमाकत उनमें कभी दिखाई नहीं दी। मोदी ही हैं,जो बृहत्तर भारत की परिकल्पना को अंजाम तक पहुंचाने में जोखिम भरा साहस दिखा सकते है।
हालांकि मोदी की अचानक यात्रा के पहले पूर्व नियोजित यात्राओं के अंतर्गत जवाहर लाल नेहरू 1953 और 1960 में पाक गए थे। एक लंबे अर्से बाद 1988 एवं 1989 में राजीव गांधी ने पाक यात्राएं की थीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो अतिरिक्त उदारता दिखाते हुए 1999 व 2004 में पाक यात्राएं कीं। नई दिल्ली से लाहौर यात्री बस सेवा उन्हीं की देन थी। किंतु इस उदारता के सबसे गहरे जख्म पाक ने भारत को दिए। जून 2001 में जब आगरा में वाजपेयी और उनका मंत्रीमंडल परवेज मुशर्रफ की अगवनी में जाजम बिछा रहे थे,तब पाक सेना कारगिल की पहाड़ियों पर चढ़कर कब्जा जमा रही थी। इस अवैध कब्जे से मुक्ति के लिए भारत को अपने करीब 550 जवानों को खोना पड़ा था और करीब 1100 सैनिक घायल हुए थे। बावजूद पाक आतंकवादियों ने भारत की पीठ पर छुरा भौंकते हुए 13 दिसंबर 2001 को देश की संसद पर हमला बोला। गौरतलब यह भी है कि 26/11 के मुंबई हमले का मास्टर मांइड हाफिज सईद पाकिस्तान की सड़कों पर नुक्कड़ सभाएं करके भारत के खिलाफ जहर उगालने में लगा है। पाक के ये हरकतें हरे जख्मों पर नमक छिड़कने जैसी हैं। धोखाधंड़ी की ऐसी हरकतों की बार-बार पुनरावृत्ति से लगता है,भारत-पाक नीति में व्यापक व बुनियादी बदलाव की उम्मीद बेमानी है।
हालांकि मोदी की इस अचानक और अनियोजित यात्रा से रहमदिल लोगों में एक बार फिर यह आशा जगी है कि समस्याओं को सुलझाने में यह पहल कारगर साबित होगी। इसे परिवर्तन की हरी झंडी भी मान सकते हैं। साथ ही इसे वाजपेयी की पाक कूटनीति का मोदी द्वारा किया जा रहा अनुसरण भी कह सकते हैं। लेकिन यदि मोदी की इस यात्रा में अटल की कूटनीति की प्रेरणा है तो कारगिल और संसद जैसे हमलों के परिदृश्य को भी पूरी तरह नकारने की भूल भी नहीं करनी चाहिए ? क्योंकि दषकों से बनी चली आ रही कटुता की गांठें अतिरंजित उदारता से एकाएक खुलने वाली नहीं हैं। वैसे भी 2008 में मुंबई हमले के बाद से यह बातचीत एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाई है। इसीलिए इस यात्रा को अंतरराष्ट्रीय मंचों के दबाव का सबब माना जा रहा है। हालांकि मोदी के पैरोकार उनकी इस अनूठी पहल को उनकी अप्रत्याशित कदम उठाने की विशिष्ट शैली का पर्याय मानकर चल रहे हैं।
हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि दोनों देशों के बीच जमा गतिरोध को तोड़ने की ज्यादातर पहलें भारत की ओर से हुई हैं। बावजूद जमी बर्फ नहीं पिघली। नरेंद्र मोदी ने तो इस दिशा में आश्चर्यजनक ढ़ंग से आगे बढ़ने की हिम्मत दिखाई है। प्रधानमंत्री की शपथ लेते समय सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित करने के साथ नवाज शरीफ को उन्होंने विशेष रूप से न्यौत कर भारतीय विपक्षी दल को आश्चर्य में डाल दिया था। लेकिन इससे परस्पर संबंधों में सुधार का मार्ग नहीं खुला। नाकुछ तीन महीनों के भीतर ही दोनों देशों के बीच तनाव चरम की इस हद तक पहुंच गया कि विदेश साचिवों की पूर्व निर्धारित बातचीत को भी खारिज करना पड़ गया था। इसके बाद इसी साल जुलाई में रूसी शहर ऊफा में शंघाई सहयोग संगठन की शिखर बैठक में नवाज और मोदी की मुलाकत हुई। द्विपक्षीय संबंधों की दरकार के तहत औपचारिक वार्ता की शुरूआत हुई। इसमें दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा के सलाहकारों के बीच बातचीत पर सहमति बनी। हाफिज सईद की आवाज का नमूना देने की भी शरीफ ने हामी भर ली थी। लेकिन कश्मीरी अलगाववादियों से पाक प्रतिनिधि मंडल के मिलने की जिद् ने ऊफा में किए पर पानी फेर दिया। नतीजतन वार्ता रदद् हो गई।
पेरिस में आयोजित जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन में दोनों नेताओं की अचानक मुलाकत का एक बार फिर संयोग बना और बढ़ते तापमान में कमी लाने की दृष्टि से अहम् वार्तालाप हुआ। ऐसा माना जाता है कि बातचीत की सकारात्मक परिणति थाइलैंड में दोनों देशों के राष्ट्रीय सलाहकारों के बीच हुई वार्ता के रूप में सामने आई। यहीं,संबंधों के पटरी पर आने का रास्ता खुला। यह बातचीत अजीत डोभाल और नसीर जंजुआ के बीच बैंकाॅक में हुई और साझा बयान भी दिया गया। इसी वार्ता के परिणामस्वरूप दूसरी बड़ी पहल जब हुई,तब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस्लामाबाद में आयोजित ‘हार्ट आॅफ एशिया सम्मेलन‘ में भागीदारी के लिए पहुंची। बाद में सुषमा ने ऐलान किया कि दोनों देशों के बीच परस्पर संवाद की शुरूआत होगी। इसी कड़ी में जनवरी 2016 में दोनों देशों के विदेश सचिवों के बीच बातचीत होनी है। यह संवाद 2008 में हुए 26/11 के हमले के बाद से टूटा हुआ था। इन वार्तालापों में छंटे धुंधलके की पारदर्शी परछाईं में ही अचानक मोदी 120 लोगों के शिष्टमंडल के साथ लाहौर की धरती पर उतर गए।
भारत और पाकिस्तान अपवादस्वरूप शायद दुनिया के ऐसे दो देश हैं,जिनके रिश्तों का इतिहास बेहद उतार-चढ़ाव भरा रहा है। कटुताएं भी चरम पर रही हैं। इनकी पृष्ठभूमि में सीमापार से आयातित आतंकवाद और अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण रेखा पर संघर्ष विराम समझौते का लगातार उल्लंघन रहा है। इसी साल अब तक 900 बार पाक सेना द्वारा उल्लघंन किया जा चुका है। सेना नायक मेघराज के काटे गए सिर की घटना आज भी देश की अवाम को दहला देती है। इसीलिए भारत सरकार के कई नेता इस जिद् पर अड़े हुए थे कि पाक से बात होगी तो केवल आतंकवाद के मुद्दे पर ? किंतु अब एकाएक समग्र वार्ता का दरवाजा खुला है तो यह आशंका वाजिब है कि यह सब अंतरराष्ट्रीय मंचों और शक्तियों के दबाव में संभव हो रहा है। समग्र वार्ता में 26/11 के आतंकियों पर न्यायिक कार्यवाही,सियाचीन,सरक्रीक,बुल्लर बराज,तुलबुल नौवहन परियोजना,आर्थिक व्यापार सहयोग,मादक पदार्थों की तस्करी पर नकली नोट,जनता के स्तर पर संपर्क और धार्मिक पर्यटन जैसे तमाम मुद्दे शामिल हैं। इसे ही सुषमा स्वराज ने व्यापाक द्विपक्षीय परस्पर संवाद का नाम दिया है। मुद्दों को शाब्दिक आयाम देना तो आसान है,किंतु इन्हें उदारता के अंतरंग बहुआयामी पहलुओं से जोड़ना उतना ही मुश्किल है। फिर भी यदि मोदी पाक से संबंध बेहतर बनाने में कामयाब होते हैं तो यह उनकी राजनीतिक व कूटनीतिक चतुराई होगी और वे एक बड़े वैश्विक नेता के रूप में उभर आएंगे। किंतु यदि इस सब के बावजूद,भारत पर आतंकी हमले और सीमा पार से संघर्श विराम का उल्लंघन देखने में आता है,तो उनकी आलोचना होना भी स्वाभाविक है। वैसे भी पाक सेना और वैश्विक राजनीतिक हस्तियां यह कभी नहीं चाहेंगी कि भारत का कोई नेता,एकाएक विश्व नेता के रूप में ऐसी छवि बनाने में सफल हो जाए,जो भविष्य में विकसित देशों के नेताओं के लिए चुनौती के रूप में पेश आए ? इस मनोवैज्ञानिक विडंबना से निपटना भी मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती है।
शान्ति बेहतर विकल्प है। आज पाकिस्तान भी महसूस कर रहा है की भारत और उनके बीच स्थायी शान्ति के बिना दोनों देश अपनी समस्याओ का हल नही ढूंढ सकते। आज अलगाववाद की नही एकीकरण की आवश्यकता है। हम सांस्कृतिक, भाषिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, धार्मिक रूप से एक जैसे है तो फिर दिलो में दूरी क्यों। दक्षिण एशिया में अशांति और द्वन्द पैदा कर के बड़ी शक्तिया अपने यहाँ मोतियो की फसल उगा रहे है। यह बात बच्चे बच्चे को समझ में आनी चाहिए।
लगता तो नहीं कि पाकिस्तान बदल रहा है.आप यह लिंक देखिये:
https://timesofindia.indiatimes.com/…/articlesh…/50422330.cms?
भारत जब भी अपने किसी पड़ोसी से सम्बन्ध सुधारने का प्रयास करता है, किसी विश्व दादा के पेट में दर्द शुरू हो जाता है और वह अपनी कुटिल हरकतों से प्रयासों को पथभृष्ट करने की कोशिस करता है। उस दादा के एजेंट भारत और पाकिस्तान दोनों की राजनीति, मीडिया, ब्यूरोक्रेसी एवं अतिवादीयो में छुपे है। अगर भारत और पाकिस्तान का वर्तमान नेतृत्व अपने इरादों में ईमानदार है तो रिश्ते सुमधुर बनाने का प्रयास जारी रहना चाहिए। आतंकियों के खिलाफ कड़ी कारवाही होनी चाहिए।