सवाल जनप्रतिनिधियों की शिक्षा का ?

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यह एक सर्वमान्य धारणा है कि एक शिक्षित व ज्ञानवान व्यक्ति अशिक्षित तथा अज्ञानी व्यक्ति की तुलना में अधिक समझदार,सूझबूझ रखने वाला तथा सही निर्णय लेने की क्षमता रखने वाला होता है। प्राय:विश्व की समस्त सरकारी व ग़ैर सरकारी व्यवस्थाओं में आमतौर पर महत्वपूर्ण पदों पर यहां तक कि लिपिकीय कार्य हेतु तथा चपरासी व चौकीदार जैसे तृतीय श्रेणी के पद पर भी शिक्षित लोगों की ही नियुक्ति की जाती है। हमारे देश में भी लगभग यही व्यवस्था है। परंतु बड़े आश्चर्य की बात है कि हमारे देश में जनप्रतिनिधि बनने हेतु अर्थात् लोकसभा व विधानसभा जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण सदनों की सदस्यता हेतु किसी प्रकार की शैक्षिक योग्यता की कोई आवश्यकता नहीं है। यही स्थिति स्थानीय निकायों व सरपंच अथवा प्रधान या जि़ला परिषद् के चुनावों में भी है। यह तो भला हो सर्वोच्च न्यायालय का कि उसने हरियाणा राज्य में पंचायत चुनाव लडऩे हेतु शैक्षिक योग्यता का निर्धारण कर दिया है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा सरकार द्वारा पंचायत चुनाव लडऩे हेतु बनाए गए नए नियमों पर अपनी मोहर लगाते हुए यह निर्धारित किया कि भविष्य में पंचायत चुनाव लडऩे हेतु सामान्य श्रेणी के प्रत्याशी का दसवीं कक्षा पास होना ज़रूरी है। जबकि दलित प्रत्याशी अथवा महिला प्रत्याशी के लिए शैक्षिक योग्यता आठवीं पास रखी गई है। इस समय हमारे देश की संसद में भी चार सांसद ऐसे हैं जो पूरी तरह से अनपढ़ हैं।
educationसवाल यह है कि जो लोकसभा देश के संविधान में संशोधन किए जाने का अधिकार रखती हो, जिस लोकसभा में आए दिन नए-नए क़ानून बनते हों,जहां नए-नए बिल पेश किए जाते हों,जिस लोकसभा के ऊपर वैश्विक संबंध बनाने व देश के विकास,राज्यों से उसके संबंध बेहतर बनाने तथा बाहरी व आंतरिक सुरक्षा जैसी तमाम जि़म्मेदारियां हों आिखर कोई अनपढ़ व्यक्ति इन बारीक व दूरदर्शिता वाली बातों को कैसे समझ सकता है? कोई अनपढ़ व्यक्ति किसी पुलिस चौकी के मुंशी का काम कतई नहीं कर सकता। किसी कार्यालय में क्लर्क की कुर्सी पर नहीं बैठ सकता। फिर आख़िर अनपढ़ व्यक्ति देश के भविष्य का निर्धारण करने की समझ व सूझबूझ कैसे रख सकता है? यही हाल विधानसभाओं का भी है। यहां भी जो भी चाहे चुनाव लडक़र विधानसभा का सदस्य यहां तक कि मंत्री या मुख्यमंत्री कुछ भी बन सकता है। विधानसभाओं में भी तरह-तरह के राज्यस्तरीय कानून बनते हैं,राज्य संबंधी तमाम योजनाएं बनाई व लागू की जाती हैं,किसी अनपढ़ विधायक को आख़िर इन बातों की समझ कैसे हो सकती है जब तक कि वह व्यक्ति पूरी तरह से शिक्षित न हो? परंतु पार्टी द्वारा व्हिप जारी किए जाने और उस व्हिप के समर्थन में अपना हाथ उठाने जैसी सरल प्रक्रिया ने जनप्रतिनिधियों की पढ़ाई-लिखाई की अहमियत को लगभग ख़त्म कर दिया है।
आज़ादी के 68 वर्षों के बाद अब भी हमारे देश में अशिक्षित लोगों की संख्या ज़्यादा है। ज़ाहिर है गरीबी तथा शिक्षा की अहमियत का न समझ पाना यानी अज्ञानता इसका मुख्य कारण है। कहा जा सकता है कि देश का यही वर्ग नेताओं का वोट बैंक भी है। लिहाज़ा यह जानने व समझने के बावजूद कि राजनीति में ख़ासतौर पर जनप्रतिनिधि बनने हेतु किसी भी व्यक्ति का शिक्षित होना ज़रूरी है फिर भी बड़े ही आश्चर्यजनक तरीक़े से कई राजनैतिक लोग यह कहते सुनाई देते हैं कि जनप्रतिनिधि बनने हेतु शिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसा कहकर यह लोग भले ही अनपढ़,अशिक्षित व अज्ञानी लोगों की अपने पक्ष में हमदर्दी हासिल कर लेते हों परंतु इससे देश की न केवल छवि धूमिल होती है बल्कि देश के विकास से जुड़ी तमाम योजनाएं ,लोकसभा व विधानसभा में लिए जाने वाले अनेक निर्णय,यहां तक कि उनके अपने क्षेत्र से संबंधित तमाम योजनाएं प्रभावित होती हैं। किसी भी अनपढ़ व्यक्ति को कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति गलत या सही तरीके से जो भी समझा देता है एक अनपढ़ व्यक्ति उस बात को उसी तरीके से स्वीकार करने हेतु बाध्य हो जाता है। उदाहरण के तौर पर कोई डॉक्टर अपने किसी मरीज़ के शरीर के भीतर बीमारी के जो लक्षण मरीज़ को बताता है वह मरीज़ डॉक्टर की उस बात को मानने के लिए मजबूर रहता है क्योंकि मरीज़ को मेडिकल संबंधी ज्ञान नहीं होता।
जनप्रतिनिधियों के लिए शिक्षा को गैरज़रूरी मानने वालों का तर्क है कि गरीब लोग शिक्षित नहीं हो पाते। और शिक्षा को जनप्रतिनिधि के लिए अनिवार्य बनाए जाने के परिणामस्वरूप केवल संपन्न लोग ही जनप्रतिनिधि बन सकेंगे। यह तर्क अनपढ़ लोगों को अपने पक्ष में करने तथा ऐसा तर्क देकर उन्हें खुश करने के लिए दिया जाने वाला तर्क तो हो सकता है परंतु इस तर्क के साथ यह सोचना भी बेहद ज़रूरी है कि एक अनपढ़ व्यक्ति जिसे किसी भी विषय का,किसी भी क्षेत्र का, किसी भी नीति-नियम,कायदे व क़ानून का ज्ञान ही न हो वह व्यक्ति लोकसभा,विधानसभा अथवा देश के किसी भी निर्वाचित सदन में अपनी क्या भूमिका निभा सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि हरियाणा सरकार के फैसले को सही ठहराते हुए सामान्य श्रेणी के लिए दसवीं तथा दलित व महिला के लिए आठवीं पास होना ज़रूरी करार दिया है। परंतु दरअसल यह शैक्षिक योग्यता भी कम है। पंचायत से लेकर लोकसभा तक कम से कम स्नातक की डिग्री का होना ज़रूरी है। आठवीं व दसवीं पास का अर्थ तो केवल यही हुआ कि वह व्यक्ति अख़बार पढ़ सकता है, किसी प्रकार के सरकारी व गैर सरकारी पत्र व्यवहार को पढ़ सकता है, अपने हस्ताक्षर कर सकता है। इससे अधिक और कुछ नहीं। यहां तक कि वह सरकारी व गैर सरकारी पत्र व्यवहारों को पढऩे के बावजूद संभवत: उसकी बारीकी तक नहीं समझ सकता। और उनपर क्या कार्रवाई करनी है या उनका क्या उत्तर देने है यह तो कतई नहीं समझ सकता।
आज हम देश की लोकसभा व विभिन्न विधानसभाओं में अक्सर यह देख रहे हैं कि देश के संविधान के अंतर्गत् शपथ लेने के बावजूद यही सांसद व विधायक अपनी शपथ की अवहेलना करते हुए सदन के बाहर न जाने कैसे-कैसे बयान देते फिरते हैं। अपने पद व अपनी शपथ की गरिमा के विरुद्ध बयानबाजि़यां करते रहते हें। उन्हें अपने पद की गरिमा का कोई ख्याल नहीं रहता। इन सब का कारण केवल अशिक्षा ही है। आज शिक्षा की स्थिति को लेकर हमारे देश में सोशल मीडिया पर ‘एक भयानक सत्य’ के शीर्षक से देश की व्यवस्था का मज़ाक उड़ाया जा रहा है जो सौ फीसदी सत्य परंतु बेहद अफ़सोसनाक है। इसमें कहा गया है कि भारतवर्ष में प्रथम श्रेणी में पास होने वाले छात्र तो तकनीकी शिक्षा हासिल करते हैं और वे आगे चलकर आईटी,डॉक्टर या इंजीनियर बनते हैं। सैकेंड डिवीज़न में पास होने वाले छात्र आईएएस या एमबीए में सफलता प्राप्त करने के बाद प्रशासक बनते हैं तथा प्रथम श्रेणी वाले डॉक्टर्स व इंजीनियर्स को ‘हैंडल’ करते हैं। थर्ड डिवीज़न में पास होने वाले छात्र राजनीति में प्रवेश कर प्रथम व द्वितिय श्रेणी में पास होने वाले छात्रों पर राज करते हैं। और जो फेल हो जाते हैं वह अंडरवल्र्ड में जाकर उपरोक्त तीनों श्रेणियों के लोगों को नियंत्रित करते हैं। और जो लोग कभी स्कूल ही नहीं गए और घर से भाग कर बाबा अथवा साधू बन गए उनका उपरोक्त चारों श्रेणियों के लोगों पर नियंत्रण रहता है और वे सभी इनके पैरों पर गिरते हैं।
उपरोक्त बातें सुनने में भले ही अटपटी या हास्यास्पद क्यों न लगें परंतु यदि हम ठंडे दिमाग से सोचें तो हमारे देश की व्यवस्था इससे अलग कतई नहीं है। अच्छे-अच्छे राजनेता अनपढ़ साधुओं व बाबाओं या ज्योतिषियों के दरवाज़े पर मत्था टेकते या उनसे अपने भविष्य की जानकारी लेते दिखाई दे जाएंगे। अशिक्षा ही अंधविश्वास का कारण है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक शिक्षित डॉक्टर,इंजीनियर अथवा प्रशासनिक सेवा को कोई अधिकारी एक अनपढ़ मंत्री या मुख्यमंत्री अथवा केंद्रीय मंत्री के आगे हाथ जोड़े खड़ा रहता है। और मंत्री जी अपने स्वभाव के अनुरूप उस शिक्षित अधिकारी के साथ जैसा चाहे बर्ताव कर सकते हैं। निश्चित रूप से हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। जनता द्वारा अपने प्रतिनिधियों को चुना जाता है। परंतु देश व जनता की भलाई भी इसी में है कि उसे सूझबूझ रखने वाला शिक्षित तथा ज्ञानवान जनप्रतिनिधि मिले। जिस समय हमारे देश का संविधान बनाया गया था उस समय में और आज के समय में काफी अंतर आ चुका है। अब गांव-गांव में शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो चुका है। अब वह ज़माना नहीं रहा कि हम अपनी पुरानी राजनैतिक मान्यताओं को हूबहू ढोते रहें। पूरे देश में अब ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि केवल शिक्षित व्यक्ति ही यहां तक कि कम से कम स्नातक डिग्रीधारक व्यक्ति ही किसी भी निर्वाचित सदन के लिए चुनाव लडऩे का अधिकारी हो। ऐसी व्यवस्था हो जाने से देश तथा समाज का कल्याण तो होगा ही साथ-साथ विश्व में भारत की छवि भी उज्जवल बनेगी।

 

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