समृद्धि की चकाचौंध और अविकास का कोहरा

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हिमकर श्याम

समृद्धि की चकाचौंध और अविकास का कोहरा भारत की कड़वी सच्चाई है। किसी देश के आर्थिक विकास की गणना जीडीपी और प्रतिव्यक्ति आय के आधार पर की जाती है। जीडीपी में आठ से नौ प्रतिशत की दर से होनेवाले विकास ने भारत को शीर्ष अर्थव्यवस्थावाले देश में शामिल कर दिया है। सरकार इस बात के लिए अपना पीठ थपथपाती रही है कि 2008-2009 में मंदी के दौर को छोड़कर देश में विकास की दर ऊंची रही है। आंकड़ों के इस खेल में देश की वास्तविक तस्वीर को नजरअंदाज किया जाता रहा है। ऊंची विकास दर का लाभ एक छोटे-से वर्ग तक सीमित रहा है। नतीजतन, एक तरफ विकास की चकाचौंध दिखाई देती है तो दूसरी तरफ वंचितों की तादाद भी लगातार बढ़ती रही है।

मीडिया के माध्यम से आर्थिक सफलताओं के बड़े-बड़े दावे किये जा रहे हैं। भारत निर्माण की बात कही जा रही है। निरंतर यह प्रचारित किया जा रहा है कि भारत में सबकुछ बदल रहा है। भारत अब विश्व के शक्तिशाली और संपन्न देशों की सूची में शामिल हो गया है। पिछले दो दशकों में भारत की आय में जबरदस्त वुद्धि हुई है। देश में पांच से दस करोड़ प्रतिमाह वेतन पाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। भारत में अरबपतियों की तदाद लगातार बढ़ती जा रही है। ग्लोबल वेल्थ इंटेलिजेंस कंपनी वेल्थ-एक्स के एक स्टडी के मुताबिक, देश में 8200 से ज्यादा ऐसे सुपर रिच लोग हैं, जिनके पास 945 अरब डॉलर यानी 47,500 अरब रूपये हैं। यह भारत की कुल अर्थव्यवस्था का 70 फीसदी है। फोर्ब्स एशिया ने एशिया की जिन 200 कंपनियों को बेस्टत अंडर ए बिलियन सूची में जगह दी हैं उनमें 35 कंपनियां भारत की हैं। दुनिया के शीर्ष 10 अरबपतियों में भारतीय मूल के लक्ष्मी मित्तल और मुकेश अंबानी भी शामिल हैं। इस सूची के मुताबिक मौजूदा समय में पूरी दुनिया में 1210 अरबपति हैं जिसमें भारत के 50 अरबपति शामिल हैं।

सरकार की उदारीकरण व वैश्वीकरण की नीतियों के तहत देश में सुधार तो हुआ लेकिन इसका कितना लाभ देश के आम लोगों को मिला है, यह सवाल रह-रह कर उठता रहा है। आंकड़ों मे भले ही विकास के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हों, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि भारतीय नागरिकों के जीवन स्तर मे कोई खास सुधार नही हुआ है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट हर साल बता देती है कि समूची आबादी के जीवन-स्तर के लिहाज से भारत की हालत कितनी चिंताजनक है। मजबूत आर्थिक वृद्धि के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में खराब सामाजिक बुनियादी ढांचा के कारण भारत मानव विकास सूचकांक के मामले में 119वें पायदान पर है। मानव विकास रिपोर्ट बताती है कि जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिहाज से भारत के अधिकतर लोग कहां खड़े हैं।

प्रगति के सारे दावों के बावजूद देश का एक बड़ा तबका हतोत्साहित है। देश की बड़ी आबादी बुनियादी सुविधाओं से महरूम है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी अपनी जगह कायम हैं। लोग दाने-दाने को मोहताज हैं। लाखों बच्चे आज भी स्कूल का मुंह नहीं देख पा रहे हैं। आधुनिक जीवन शैली के मोहपाश में फंसकर अधिकांश लोग अपना सुख-चैन गंवा रहे हैं। कर्ज लेकर घी पीने की होड़ समाज के हर वर्ग में देखने को मिल रही है। पिछले दो दशकों में भारत में भूख एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। इस बीच झारखंड में भूख से मरने का समाचार भी सामने आया है। भूख से होनेवाली मौतें किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सबसे त्रासद स्थिति है। कृषि की विकास दर में उत्साहजनक वृद्धि होने के बावजूद किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं। महाराष्ट्रª, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में किसानों की हालत दयनीय है। कर्ज के बोझ, बढ़ती महंगाई और फसल का उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान आत्महत्या को मजबूर हैं। पिछले दिनों बंगाल में भी ऐसी घटनाएं सामने आयी हैं। बुंदेलखंड और विदर्भ का इलाका तो किसानों की आत्महत्या की वजह से पहले भी सुर्खियों में रहा है। पिछले कुछ दिनों में विदर्भ में 17 किसानों ने खुदकुशी कर ली। आंकड़ों के मुताबिक 1995 से 2010 के अंत तक देश के लगभग ढ़ाई लाख किसानों ने आत्महत्या की है।

सरकारी आंकड़ें भी विकास के दावों की पोल खोलते रहे हैं। प्रति व्यक्ति का लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच रहा है। गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों की संख्या को लेकर भ्रम है। तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट में देश की कुल आबादी का 37 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे रहने की बात कही गयी है। वहीं एनसी सक्सेना समिति ने कुल जनसंख्या का 50 फीसदी गरीबी रेखा के नीचे रहने का अनुमान जताया है जबकि अर्जुन सेन गुप्ता समिति ने अब भी देश की 77 फीसदी आबादी के बीपीएल की श्रेणी में होने की बात कही है। भारत मानव विकास रिपोर्ट 2011 के अनुसार शिक्षा व साक्षरता की दिशा में सुधार के बावजूद विश्व की एक तिहाई अशिक्षित जनसंख्या भारत में है। इनमें भी अनुसूचित जाति, जनजाति और मुसलमानों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है। अनुसूचित जाति और जनजाति की आधी से अधिक महिलाएं अब भी निरक्षर हैं। रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य के क्षेत्र में विकास बहुत धीमा हुआ। इस क्षेत्र में विकास दर सिर्फ 13.2 फीसदी ही हुआ। रिपोर्ट के अनुसार भारत में दस हजार लोगों पर अस्पताल के सिर्फ नौ बिस्तर उपलब्ध हैं। इसी तरह प्रति दस हजार आबादी पर सिर्फ छह डॉक्टर उपलब्ध हैं।

आधारभूत संरचना के क्षेत्र में केरल, दिल्ली और गोवा जैसे राज्यों ने ढांचागत सुविधाओं की मदद से चौमुखी विकास किया है, वहीं बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य ढांचागत सुविधाओं की कमी के कारण अभी भी गरीब बने हुए हैं। देश के एक तिहाई लोग और करीब आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। कुपोषण के लिहाज से भारत की स्थिति दक्षिण एशिया में तो सबसे खराब है ही, अफ्रीका के तमाम गरीब देशों से भी गई-बीती है। विकास का ढिंढोरा पीटने से सच्चाई नहीं बदल सकती। यही भारत का असली चेहरा है।

नीति नियंता ऊंची विकास दर को ही आर्थिक समस्याओं का कागरगर हल मान लेते हैं लेकिन जब तक हर पेट को अनाज और हर हाथ को काम नहीं मिलता तब तक आर्थिक प्रगति की बात बेमानी है। भारतीय संविधान में प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के सरंक्षण का उपबंध किया गया है जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति को मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार है। जहां ये सारी चीजे उपलब्ध नहीं होती वहां स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। एडम स्मिथ के अनुसार आवश्यकताओं का अभिप्रायः जीवित रहने के लिए जरूरी चीजों से ही नहीं-इनमें समाज की परंपरा के अनुसार जिन चीजों का न्यूनतम वर्ग के लोगों के पास भी नहीं होना बुरा समझा जाता है, वे चीजें शामिल हैं। स्वामी विवेकानंद का यह कथन याद रखने योग्य है कि जिस देश के लोगों को तन ढंकने के कपड़े और खाने की रोटी न हो, वहां संस्कृति एक दिखावा है और विकास दिवालियापन।

आर्थिक उदारीकरण के मौजूदा दौर में आर्थिक विकास की रफ्तार भले ही काफी तेज हो गई हो, लोगों का जीवन स्तर भी अपेक्षाकृत सुधरा हो, लेकिन जिस तरह अमीर और उच्च मध्य वर्ग की आमदनी में इजाफा हुआ है उस अनुपात में आज भी गरीबों की गरीबी कम नहीं हुई है। अमीरों एवं गरीबों के बीच आमदनी की खाई कम होने के बजाय और बढ़ गई है। आय का असामान्य वितरण आज एक ऐसा संकट है जिससे पार पाने का उपाय खोजना किसी भी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। दरअसल उदारीकरण के बाद सारा तंत्र बाजार द्वारा संचालित हो रहा है। बाजार न तो समाज के भीतर विषमता मिटा सकता है और न समाजों के बीच की असमानता। बाजार इस विषमता का कायम रखकर उसका लाभ उठाता है और संपत्ति का केंद्रीकरण कर के विषमता को बढ़ाता है। उदारीकरण की दौर में सरकार धीरे-धीरे समाजादी दृष्टिकोण छोड़ती जा रही है। सामाजिक-आर्थिक असमानता पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह घातक साबित हो सकता है। असमानता और विद्रोह में बहुत निकट संबंध है। विषमता की अनुभूति तो किसी भी समाज में विद्रोह के स्वर मुखर कर सकती है।

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