राष्ट्रधर्मिता का पालक

विनोद कुमार सर्वोदय

अभिनेता से नेता बने कमल हासन सम्भवतः लिखे हुए ही वाक्य बोलने की कलाकारी के कारण “गोडसे को पहला हिन्दू आतंकवादी बोलने को विवश हुए होंगे”।
स्व.बंकिमचन्द्र चटर्जी के कथनानुसार “इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि पराधीनता के परिणाम में पराधीन जाति की बौद्धिक रचनाशीलता समाप्त हो जाती है।” यह तथ्य कुछ सीमा तक उन लोगों को संतुष्ट कर सकता है जिन्हें गोडसे को देशभक्त कहने में हिन्दू आतंकवाद दिखता है।जबकि गांधी वध एक राजनैतिक वध था…उस समय साम्प्रदायिक समस्या के संबंध में गांधी जी की नीति अत्यंत हानिकारक सिद्ध हुई थी। क्योंकि इतिहास से ज्ञात होता है कि भारत के मूल निवासियों पर बढ़ती आक्रान्ताओं की आक्रामकता में गांधी जी की उदासीनता उनका अप्रत्यक्ष समर्थन करती थी। वैसे भी अनेक अवसरों पर गांधी जी मुसलमानों के हिंसक स्वभाव को उचित मानते थे और हिन्दुओं को शांत रहकर उनके सब कुछ अत्याचार सहने का ही परामर्श देते थे। ऐसे में अनेक कांग्रेसी नेताओं का मत था कि वे राजनीति से निवृत्त हों और राष्ट्र के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं की उनके जीवन की बलि ले ली जाय। जबकि विभाजन के कारण पाकिस्तान से आये निर्वासितों की भावनाएं बहुत क्षुब्ध थी।यह कैसा स्वराज मिला है, बिना भूकम्प के ही उनके पैरों के नीचे से धरती खिसक गई थी। प्रत्येक निर्वासितों के रिस्ते घावों पर मलहम लगाने वाला कोई नही था। उन लाखों पीड़ितों की चीख-पुकार चाहने पर भी समाचार पत्रों में व्यक्त न हो सकी परन्तु वह अणु विस्फ़ोट के होने वाले विष-विस्तार के समान सम्पूर्ण देश के वायुमंडल को क्षुब्ध करती जा रही थी। ऐसे शोक के उद्वेग से मानव अंतःकरण का शाप देना प्रायः स्वाभाव का ही भाग है। गाँधीजी को मर जाना चाहिये: गांधी मरता है तो मरने दो, उसके कारण हमारा सर्वस्व लुट गया है, इस प्रकार के उदगार सार्वजनिक स्थानों पर असंख्य कंठों से बरबस निकल पड़ते थे। फिर भी कहना और करना दोनों में समानता साधारणतः कभी एकरूप नही लेती।
उस समय की भयावह परिस्थितियों में जो कार्य नाथूराम गोडसे ने अपने स्वस्थ मन स्थिति में किया वह सम्भवतः उस समय व भविष्य के भारत भक्तों के लिए सर्वथा उचित ही था। भारतीय संस्कृति अत्याचार व अन्याय के विरुद्ध सदैव संघर्ष का ही आह्वान करती रहीं हैं। लेकिन सहन शीलता की भी कोई सीमा होती है और कायर बन कर अपमानजनक जीवन जीने से तो देश व धर्म की वेदी पर बलिदान हो जाना अधिक सार्थक होता है। अतः प्रतिकूल परिस्थितियों में हुतात्मा नाथूराम गोडसे का गांधी जी के प्रति उपजा आक्रोश भारतीय शास्त्रों के अनुकूल ही था। हुतात्मा नाथूराम गोडसे को देशद्रोही या आतंकवादी कहने वालों को एक बार भारतीय शास्त्रों का अध्ययन अवश्य करना चाहिये।

“त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥”

अर्थात् “कुल की रक्षा के लिए एक सदस्य का बलिदान दें, गाँव की रक्षा के लिए एक कुल का बलिदान दें, देश की रक्षा के लिए एक गाँव का बलिदान दें, पर आत्मा की रक्षा के लिये तो पृथ्वी तक को त्याग देना चाहिये।”
राष्ट्रभक्त के लिए राष्ट्र सर्वोपरि होता है और उसे खंडित करने वाले षडयंत्रो से रक्षा करना उसका राष्ट्रधर्म होता है।
ऐसे भावों से भरे हुए युवा गोडसे ने अपने सम्पूर्ण विवेक के आधार पर राष्ट्रधर्म का पालन करते हुए अपने सहित अपने कुल का भी बलिदान दिया।
यह भी सत्य था कि अंतिम घटनाओं के संबंध में गांधी जी से कितना भी मतभेद क्यों न हो, अंततोगत्वा उनके पीछे एक महान जीवन का इतिहास खड़ा था। लोकमान्य तिलक की रिक्तता में गांधी जी ने सत्याग्रह के माध्यम से सामान्य जन के मन से बंदीगृह के भय को नष्ट करके पराधीनता के दोषों की अनुभूति के साथ साथ देशप्रेम की भावना का संचार हुआ था। गांधी जी ने महात्मा की उपाधि स्वयं धारण नहीं की थी । कुछ लोगों का मानना है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने सर्वप्रथम उनको महात्मा कह कर संबोधित किया था। “महात्मा गांधी की जय हो” उस समय का रणघोष था और “गांधी टोपी” रणवेश। इस चरित्र से पूर्णतः परिचित होने के कारण गांधी जी के जीवन को पूर्ण विराम देने के पूर्व नाथूराम गोडसे की मनः स्थिति क्या रही होगी और उन्होंने ऐसा क्यों किया इसके लिए उनके उस लिखित बयान को समझना होगा जो उन्होंने न्यायालय में दिया था। एक प्रकार से गांधी वध हालाहल पान था। गांधी जी ने जिस पीढी को प्रेरित किया था गोडसे भी उसी पीढी के थे। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी पूर्व के प्रभावों का मिट जाना सरल नहीं होता। सम्पूर्ण देश में गांधी जी के श्रद्धालु असंख्य थे और उनके वध करने का अर्थ होता कि उनके श्रद्धालुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाना और उनके आक्रोश को सहन करना। नाथूराम गोडसे न तो विस्थापित थे और न ही उनका गांधी जी के प्रति कोई व्यक्तिगत वैर था। ऐसे में गांधी वध का कठोर निर्णय लेने में उनकी स्वयं की भावनाएँ भी उनको अवश्य व्यथित कर रही होगी। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अपने गुरुजन व परिजन को देखकर जो स्थिति अर्जुन की हुई थी कुछ कुछ ऐसी मनःस्थिति में नाथूराम गोडसे भी भ्रमित हुए होंगे। ऐसा सोचा जा सकता है। लेकिन किसी भी अनिश्चय की स्थिति में धर्म की रक्षा में भारतीय धर्म शास्त्रों का ज्ञान निश्चित ही बड़ी भूमिका निभाता है।
अपने प्राण देने पड़े या संपूर्ण विश्व की निंदा झेलनी पड़े, कुछ भी हो गांधी जी का अस्तित्व मिटाना ही होगा, इस पराकाष्ठा पर पहुँचे संकल्प का कोई तो विशेष कारण रहा ही था। इसलिए यह वध रिवाल्वर हाथ में लेकर गोलियां चला देना जैसी सहज और सामान्य घटना नही थी। वधकर्ता नाथूराम गोडसे के मन का द्वंद और उनके विशेष लिखित विस्तृत कथन को पढ़ कर यह समझा जा सकता है कि गांधी वध सहज नही बल्कि इतिहास की एक विशिष्ट घटना बन चुकी थी/है। राष्ट्रधर्मिता के पालन में राष्ट्रधर्म की रक्षार्थ ऐसी घटनाएं युग-युग में दुर्लभ ही हुआ करती है। अतः साध्वी प्रज्ञा के हुतात्मा नाथूराम गोडसे को आतंकवादी बताने वालों के विरुद्ध दिया गया मत कि वे “देशभक्त थे, है और रहेंगे” सर्वथा उस काल और परिस्थिति के अनुकूल है।

विनोद कुमार सर्वोदय
(राष्ट्र्वादी चिंतक व लेखक)
गाज़ियाबाद

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