(दुर्वासा-संकट का समाधान)
प्रिय सखी स्मरण करे और श्रीकृष्ण उपस्थित न हों, यह कैसे संभव था? इधर स्तुति समाप्त हुई, उधर श्रीकृष्ण नेत्रों के सामने। आनन्दातिरेक के कारण द्रौपदी के नेत्रों से पुनः पुनः अश्रु छलक पड़े। स्वागत एवं चरण-वन्दना के पश्चात उसने दुर्वासा मुनि के आगमन और भोजन याचना का सारा वृतान्त कह सुनाया। लेकिन यह क्या? श्रीकृष्ण पर कोई प्रभाव ही नहीं, उल्टे बोल पड़े –
“अन्नपूर्णे! इस समय मैं अत्यन्त क्लान्त हूं। क्षुधापीड़ित भी हूं। पहले कुछ भोजन दो, पश्चात दुर्वासा के लिए प्रबन्ध करती रहना।”
द्रौपदी स्तब्ध रह गई, काटो तो रक्त नहीं। भोजन की समस्या के निवारण के लिए जिसे आमन्त्रित किया था, वही आते हि अन्नपूर्णा के संबोधन के साथ भोजन मांग रहा था। गृहिणी अन्नपूर्णा तो होती है लेकिन आज उसका कोष रिक्त था। वह ग्लानि के बोझ से दबी जा रही थी। हम सभी इसे कृष्ण का परिहास मान, मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे लेकिन वह अत्यन्त गंभीर थी। कोई समाधान न पाकर बोल ही पड़ी –
“भगवन्! आपको तो ज्ञात है कि सूर्य देवता द्वारा प्रदत्त अक्षय पात्र से तभी अन्न मिलता है, जबतक मैं भोजन न कर लूं। दुर्भाग्य से मैं भोजन कर चुकी हूं। न जाने नियति मेरी कौन सी परीक्षा ले रही है। इस समय घर में कुछ भी नहीं है। भोजन कहां से ले आऊं?”
श्रीकृष्ण को परिहास सूझ रहा था या वे समाधान निकालना चाह रहे थे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, व्यग्र होकर बोले –
“द्रौपदी! मैं तो भूख और थकान से कष्ट पा रहा हूं और तुम्हें परिहास सूझ रहा है। शीघ्र भीतर जाओ और अक्षय पात्र लाकर मुझे दिखाओ।”
श्रीकृष्ण बालक की तरह हठ कर बैठे। द्रौपदी ने अक्षय पात्र उन्हें पकड़ा दिया। बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से यशोदानन्दन ने पात्र का निरीक्षण किया। साग का एक कण समान अवशेष पात्र में चिपका पड़ा था। उसे प्रेमपूर्वक अपनी कलात्मक उंगलियों की सहायता से निकाला, मुंह में डाला और निगल लिया। हम सभी मन्त्रमुग्ध हो यह दृश्य देख रहे थे। उनके आगमन के बाद, आसन्न विपत्ति को भूल गए थे। क्षणभर नेत्र बंद रखने के पश्चात बड़ी-बड़ी आंखों से कृष्णा को देखते हुए बोले –
“इस साग के कण से संपूर्ण विश्व के यज्ञभोक्ता सर्वेश्वर भगवान श्रीहरि तृप्त और संतुष्ट हों।”
हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था लेकिन वे मुस्कुरा रहे थे। हमलोगों को आश्वस्त करते हुए बोले –
“मेरे प्रिय बन्धुगण! निश्चिन्त हो जाओ। कोई तुम्हारा अनिष्ट नहीं कर सकता। जहां कृष्ण हैं, वहां आनन्द का वास होता है। महर्षि दुर्वासा के भोजन की व्यवस्था मैंने कर दी है। सहदेव, तुम शीघ्र जाकर मुनियों को भोजन के लिए बुला ले आओ।”
सहदेव आज्ञाकारी शिष्य की भांति मुनियों को बुलाने, देवनदी की ओर चल पड़े।
दुर्वासा ऋषि शिष्यों के साथ खड़े होकर मंत्र जाप कर रहे थे, सहसा उन्हें पूर्ण तृप्ति की अनुभूति हुई – मानो वे भोजन कर चुके हों। बार-बार अन्न के रस से युक्त डकारें आने लगीं। जल से बाहर निकलकर सब एक-दूसरे को देखने लगे। सबकी एक ही अवस्था हो रही थी। सब दुर्वासा से कहने लगे –
“महर्षे! राजा को भोजन तैयार कराने की आज्ञा देकर स्नान हेतु हमलोग यहां आए थे पर इस समय तो इतनी तृप्ति हो गई है कि प्रतीत हो रहा है जैसे भोजन कण्ठ तक भर गया हो। वहां जाकर हम कैसे भोजन करेंगे? हमने जो रसोई तैयार कराई है, वह व्यर्थ होगी। अब आप ही कोई समाधान बताएं।”
“सचमुच ही व्यर्थ भोजन बनवाकर हमलोगों ने राजर्षि युधिष्ठिर के प्रति महान अपराध किया है। समस्त पाण्डव महात्मा हैं। वे धार्मिक, शूरवीर, विद्वान, व्रतधारी, तपस्वी, सदाचारी तथा नित्य भगवान वासुदेव के भजन में लिप्त रहने वाले हैं। वे क्रोध करने पर हम सबको भस्म करने की क्षमता रखते हैं। इसलिए हे शिष्यो! अब कल्याण इसी में है कि उन्हें बिना सूचना दिए हमलोग यहां से पलायन कर जाएं।”
गुरु की आज्ञा भला शिष्य कैसे नहीं मानते? दुर्वासा शिष्यों समेत तीव्र गति से द्वैतवन से बाहर चले गए।
सहदेव से पूरी घटना का विवरण सुन श्रीकृष्ण ने हंसते हुए हमें आश्वस्त किया –
“जो सदा धर्म में तत्पर रहते हैं, वे कष्ट में नहीं पड़ते। कभी-कभी दैव उनकी परीक्षा अवश्य लेता है। अभी तक तुमलोग प्रत्येक परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हो और भविष्य में भी होवोगे। आर्यावर्त का इतिहास स्वार्णाक्षरों में तुम्हारी गाथा समेटेगा। युगों-युगों तक तुम्हारी कीर्ति-पताका लहराती रहेगी।”
इस बार श्रीकृष्ण का सान्निध्य अत्यन्त अल्प अवधि के लिए प्राप्त हुआ। लेकिन यह सहवास भी असीम आनन्द प्रदान कर गया। अमृत की मात्र कुछ बून्दें हि ग्रहण की जाती हैं, पूरा पात्र नहीं। वे जब भी आते, हम आनन्द सागर में गोते लगाने लगते। उनके सान्निध्य का अभिप्राय जानने का जितना प्रयास करता, उलझता जाता। उनको नापने का मेरा कोई भी माप पूरा नहीं पड़ता। किसी भी ओर से दृष्टि दौड़ाने पर यही प्रतीत होता – वे अथाह हैं, असीम हैं, नीले आकाश की तरह। मेरी उलझन तभी समाप्त होती, जब मैं अपना सर्वस्व उन्हें सौंप देता। उनके प्रति पूर्ण समर्पण ही सारी समस्याओं का निदान है – समस्त प्रश्नों का समुचित उत्तर।
क्रमशः