आगामी विधानसभा चुनावों का परिदृश्य : चुनाव आयोग

0
146
चुनाव
चुनाव
चुनाव

अरविंद जयतिलक
चुनाव आयोग द्वारा केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम और पुड्डुचेरी के विधानसभा चुनाव की तिथियों के एलान के साथ ही राजनीतिक दलों के बीच सत्ता-सिंहासन के निमित्त व्यूह रचना तेज हो गयी है। दलों के बीच गठबंधन आकार लेने लगा है और किस्म-किस्म के नारे गढ़े-बुने जाने लगे हैं। हर चुनाव राजनीतिक भविष्य के संकेतों को समेटे होता है और इस चुनाव से भी भविष्य की राजनीतिक दशा-दिशा का परिदृश्य जरुर उभरेगा। यह चुनाव केंद्र में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए विस्तार की उम्मीदें हैं वहीं कांग्रेस और क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए गढ़ बचाने व उठ खड़ा होने की चुनौती। गौर करें तो इन पांच राज्यों में किसी में भी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में नहीं है। फिलहाल उसके पास कुछ खोने को तो नहीं लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि उसकी साख दांव पर नहीं है। अगर चुनावी परिणाम उसके पक्ष में नहीं रहे तो विपक्ष को उसे घेरने और कहने का मौका मिलेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कम हुई है। इन पांचों राज्यों की राजनीतिक परिदृश्य पर गौर करें तो भारतीय जनता पार्टी को सबसे अधिक उम्मीद असम से है। यहां कांग्रेस तीन बार चुनाव जीत चुकी है और उसके विरुद्ध एंटी इनकम्बैंसी से इंकार नहीं किया जा सकता। हालांकि वह चैथी बार भी सरकार बनाने का दावा कर रही है। लेकिन परिस्थितियां उसके अनुकूल नहीं है। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की साख गिरी है और उनसे अपेक्षानुरुप प्रदर्शन की उम्मीद कम है। कांग्रेस इससे संतुष्ट नहीं हो सकती कि पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ 5 सीटें मिली। गौर करना होगा कि 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा की 14 में से 7 सीटें अपनी झोली में डाल ली। मौजुदा परिस्थितियों पर गौर करें तो हवा का रुख मुख्यमंत्री तरुण गोगाई के खिलाफ है और भारतीय जनता पार्टी इसका फायदा उठाते हुए अभी से राज्य की बिगड़ती कानून-व्यवस्था, आतंकवाद, उग्रवाद, दंगा-फसाद व बांग्लादेशी घुसपैठ इत्यादि मसलों को मुद्दा बनाना शुरु कर दी है। भाजपा गठबंधन के लिए राहत की बात यह है कि सत्तारुढ़ कांग्रेस ने सभी 126 सीट अकेले चुनाव  लड़ने का फैसला किया है। इससे 35 फीसदी मुस्लिम वोट आॅल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी एआइयूडीएएफ के बदरुद्दीन अजमल और कांग्रेस में बंट जाएंगे और उसकी सत्ता तक पहुंचने का रास्ता आसान हो जाएगा। पश्चिम बंगाल की बात करें तो यहां ममता बनर्जी के लिए सत्ता बचाना एक बड़ी चुनौती होगी। उन्होंने 2011 में साढ़े तीन दशक तक सत्ता में विराजमान कम्युनिस्ट पार्टियों को धूल चटा दिया और राज्य की कुल 294 सीटों में से 214 सीटें अपनी झोली में डाल ली। लेकिन परिस्थितियां 2011 की तरह नहीं है। इसकी कई वजहें हैं। एक तो उन्होंने अपनी तानाशाही से अपनी लोकप्रियता गंवा बैठी हैं और दूसरे अपने पूरे कार्यकाल में अपनी उर्जा विकास कार्यों पर खर्च करने के बजाए राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को निपटाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रौंदने में जाया की। कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर भी उनकी सरकार पूरी तरह विफल है। राज्य के कई हिस्सों में आतंकी पकड़े गए। तृणमूल कार्यकर्ता खुलेआम सड़कों पर गुंडागर्दी मचाए हुए हैं और सरकार आंख बंद की हुई है। सरकार उन पर नियंत्रण की कोशिश नहीं कर रही। जनता आतंकित है और दंगाइयों का हौसला मजबूत है। गत जनवरी माह में वोटयुक्ति की लालच में किस तरह उनकी सरकार ने मालदा में मुस्लिम समुदाय के लाखों लोगों को सड़क पर उतरकर अराजकता फैलाने, पुलिस पर हमला बोलने, थाने में आग लगाने, अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के लोगों की दुकानें लूटने और घर में घूसकर उन्हें अपमानित करने की छूट दी जनता भूली नहीं है। वह आने वाले विधानसभा चुनाव में उसका हिसाब-किताब बराबर करेगी। ममता ने अपने कार्यकाल में कुछ ऐसे फैसले लिए हैं जिससे उनकी सरकार की छवि मुस्लिमपरस्त की बनी है। जिस तरह उनकी सरकार ने मुसलमानों को खुश करने के लिए राज्य के तीस हजार से अधिक इमामों को सम्मान के तौर पर हर महीने 2500 रुपए देने का एलान, अनुदान प्राप्त पुस्तकालयों में पांच बांग्ला, दो उर्दू व एक हिंदी अखबार के अलावा सभी राष्ट्रीय स्तर के अखबारों की खरीद पर रोक और हायर सेकंडरी छात्रों को रुसी क्रांति न पढ़ाने के अलावा माक्र्स व एजेंल को भी पाठ्यक्रम से बाहर करने और पाठ्यक्रम में पाकिस्तान और बांग्लादेश का इतिहास समाहित करने का निर्णय ली उससे जनता नाराज है। राजनीतिक तौर पर देखें तो ममता की छवि ध्वस्त है लेकिन उसका राजनीतिक फायदा कम्युनिस्ट पार्टियों को नहीं मिलने वाला। रोहित वेमुला और कन्हैया प्रकरण पर कम्युनिस्टों की नकारात्मक भूमिका से पश्चिम बंगाल की जनता नाराज है। लेकिन इसका फायदा कम्युनिस्ट दलों को मिलेगा इसमें संदेह है। हालांकि माकपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष सीताराम येचूरी ने ‘तृणमूल हटाओ, बंगाल बचाओ, मोदी हटाओ, देश बचाओ’ का नारा उछालकर कांग्रेस समेत अन्य दलों को साथ आने का न्यौता दिया है। उन्होंने कहा है कि अगर कांग्रेस पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के साथ किसी तरह का टाई-अप करना चाहती है तो वे उस पर विचार करने को तैयार हैं। हालांकि कांग्रेस ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। लेकिन वह भाजपा को रोकने की गीत गाकर अपनी वैचारिक विरोधी कम्युनिस्टों के गले भी लग सकती है। आंकड़ों के हिसाब से गत विधानसभा चुनाव में सीपीएम को 30.08 और कांग्रेस को 9.09 फीसद मत मिले थे जो कि तृणमूल कांग्रेस के 38.93 फीसदी मत से अधिक है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या दोनों दलों के कार्यकर्ता एकदूसरे के उम्मीदवारों को पसंद करेंगे इसमें संदेह है। भारतीय जनता पार्टी की बात करें तो वह गत विधानसभा चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं की लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में 4 सीटें जीतकर उत्साहित है और आगामी विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन को लेकर मुतमईन। जहां तक तमिलनाडु राज्य का सवाल है तो यहां की जनता हर चुनाव में बदलाव की इबारत गढ़ती है। ऐसे में सवाल लाजिमी है कि क्या एआइएडीएमके सुप्रीमों और राज्य की मुख्यमंत्री जयललिता दोबारा सत्ता-सिंहासन को चुम पाएंगी? उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि लोकसभा चुनाव में अलग हुए एम करुणानिधि की नेतृत्ववाली डीएमके और कांग्रेस फिर से एक हो गए हैं। डीएमडीके नेता विजयकांत भी इस गठबंधन का हिस्सा बन सकते हैं। ऐसे में संभव है कि जयललिता इस गठबंधन से मुकाबला करने के लिए भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन कर सकती हैं। केरल की बात करें तो यहां मुख्य मुकाबला लेफ्ट की अगुवाई वाले एलडीएफ और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के बीच होना है। यहां भाजपा के लिए कम स्पेस है। लेकिन उसने अपनी ताकत बढ़ाने के लिए छोटे-छोटे दलों से नजदीकियां बढ़ानी शुरु कर दी है। केरल की तरह पुड्डुचेरी में भी भाजपा की स्थिति कमोवेश ऐसी ही है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here