उमेश चतुर्वेदी
विकास के दावों और गरीबों-वंचितों को आर्थिक संबल देने की तमाम कोशिशों
और दावों के बावजूद जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्टें आती हैं तो इन कोशिशों की विद्रूपता की ओर ना सिर्फ ध्यान दिलाती हैं, बल्कि दावों की एक हद तक कलई भी खोल देती हैं। चूंकि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कोई निजी संस्था या गैर सरकारी संगठन नहीं करता, लिहाजा इस पर सरकारों के लिए भी सवाल उठाने की गुंजाइश नही नहीं रह पाती। हाल में नमूना सर्वेक्षण की ग्रामीण और शहरी आबादी को लेकर जो शुरूआती रिपोर्ट आई है, वह एक बार फिर यह चेतावनी दे रही है कि तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद समावेशी विकास नहीं हो पा रहा है। बल्कि देश में अमीरी और गरीबी की खाई और बढ़ी ही है।
उदारीकरण के पीछे जिस पश्चिमी ट्रिकल डाउन सिद्धांत का आधार है, उसने मौजूदा विश्व व्यवस्था में विकास को लेकर कई सारी नई अवधारणाएं दी हैं। उन्हीं में से एक है शहरीकरण को विकास का पर्याय मानना। इस अवधारणा की सीमाएं बार-बार आती रही हैं। शहरों में पसरती झुग्गियां दरअसल इस अवधारणा को ही मुंह चिढ़ाती रही हैं। अब इस पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट ने भी सवाल उठा दिया है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में सबसे गरीब दस फीसद लोगों के पास जहां 25 हजार 71 रूपए की संपत्ति है, वहीं शहरों के सबसे ज्यादा दस प्रतिशत गरीबों के पास 300 रूपए तक की भी संपत्ति नहीं है। सबसे ज्यादा शहरी गरीबों की इस बदहाली की वजह यह बताया जा रहा है कि इनमें से ज्यादातर गांवों से पलायित होकर आए लोग हैं और वे अक्सर खाली हाथ ही गांव से शहर आते हैं। लिहाजा उनकी यह हालत है। इस तर्क को खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जमींदारी उन्मूलन जैसे कदमों से ग्रामीण इलाकों में उन लोगों के लिए भी आधार जरूर बना है, जिनके पास कभी जमीन नहीं हुआ करती थी। इसलिए गांव में उन्हें न तो रहने के लिए किराया देना पड़ता है और नही कम से कम पानी के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। लेकिन शहरी इलाकों में सार्वजनिक रहवास रहे नहीं और गरीबों के पास अपनी रिहायश है नहीं, लिहाजा उन्हें रहने के लिए झुग्गियां ही सही, किराया जरूर चुकाना पड़ता है। उदारीकरण ने पानी और शौच की भी कीमत वसूलनी शुरू की है। जबकि ऐसे माहौल में भी मजदूरी दरें उस लिहाज से नहीं बढ़ीं, जिस लिहाज से महंगाई बढ़ी है। सो गरीबों को अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा शौच, पानी और सिर छुपाने की जगह के लिए भी खर्च करना पड़ रहा है। ऐसे में उनके पास संपत्ति कैसे बच या बन सकती है। उदारीकरण के तमाम दबावों के बावजूद भारतीय गांव अपनी पांच हजार साल पुरानी संस्कृति से नाता नहीं तोड़ पाए हैं। यही वजह है कि अभी भी वहां पानी और शौच जैसी सहूलियतों के लिए कीमत नहीं चुकानी पड़ रही है। फिर खानपान और दूसरे खर्च भी शहरों के मुकाबले कम है, लिहाजा ग्रामीण इलाकों के दस फीसद गरीबों की हालत शहरी इलाकों के सबसे दस फीसद लोगों की तुलना में बेहतर हैं।
जिस राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण से ये आंकड़े सामने आए हैं, दरअसल वह शहरी और ग्रामीण इलाकों की संपत्ति को लेकर किया गया था। इसमें लोगों घर, जमीन और देनदारियों के जरिए संपत्ति का आकलन किया गया है। इस सर्वे से एक और बात सामने आई है। गांवों में जहां 98.3 फीसद लोगों के पास संपत्ति है तो शहरों में इसकी तुलना में 93.5 लोगों के पास ही संपत्ति है। ट्रिकल डाउन थियरी में समृद्धि लाने में शहरीकरण की जिस भूमिका को बढ़ावा देने पर जोर है, उसे भी इस सर्वेक्षण रिपोर्ट ने गलत ठहराया है। इस रिपोर्ट ने एक और तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराने की कोशिश की है। ग्रामीण इलाकों में अमीरों और गरीबों की संपत्ति में अंतर जहां महज 228 गुना है, वहीं शहरी इलाकों में यह अंतर पचास हजार गुना है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि मौजूदा सरकारी नीतियों का फायदा ज्यादातर शहरी वर्ग के उस क्रीमी लेयर को ही मिल रहा है, जिसके पास पुश्तों से कारोबार या व्यापार पर कब्जा रहा है। उसकी तुलना में शहरी कामकाजी और मजदूर वर्ग को फायदा कम ही मिल रहा है। इसकी बनिस्बत गांवों में संपत्तियों के वितरण में वैसी असामनता नहीं है।
आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन का तमाम मकसदों में एक सामाजिक समानता को भी बढ़ावा देना था। लेकिन भूमि को लेकर यह असमानता अपवादों के बावजूद एक हद तक लागू भी हुई। ग्रामीण इलाकों के संपत्ति के आंकड़े यह साबित करने का आधार ही मुहैया कराते हैं कि जमींदारी उन्मूलन ने गांव के गरीब की दशा जरूर बदली। निश्चित तौर पर इसके पीछे राज्य की लोक कल्याणकारी भूमिका भी रही। लेकिन राज्य लोककल्याणकारी की वैसी भूमिका शहरी इलाकों, कारोबार और उद्योग में नहीं दिखा पाया है। इसका असर यह है कि उद्योगपति और कारोबारी लगातार फल-फूल रहे हैं और उनके कारिंदों की हालत लगातार खराब हो रही है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की इस रिपोर्ट ने यह सोचने का मौका जरूर दिया है कि हम विकास की मौजूदा अवधारणा और उसे बढ़ावा देने वाली नीतियों की तरफ सोचें। हमें शहरीकरण को विकास का आधार मानने की अवधारणा पर भी विचार करना होगा। वैसे भी शहरी इलाके ऊर्जा की खपत ज्यादा करते हैं। चाहे वह पेट्रोल-डीजल के रूप में हो या फिर बिजली के रूप में, दोनों के इस्तेमाल और निर्माण के चलते वातावरण पर असर डालने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन और गैसों का उत्सर्जन बढ़ता है। जबकि शहरों की तुलना में गांवों में ऊर्जा की खपत कम होती है।
आज के विकास का माप दंड है, जी.डी.पी. जिसको मापने के लिए पैमाना है औसत विकास दर.इसमें सर्वांगीण विकास के लिए कोई मापदंड है या नहीं,मुझे नहीं पता.जब तक यह पैमाना लागू रहेगा,तब तक मुकेश अम्बानी की आमदनी दिन दूनी रात चौगुनी होती जाएगी.भले ही उनके महल के पिछवाड़े कोई भूख से तपड़ता रहे.विकास के इस पैमाने को बदलना होगा.एक नयी दिशा देनी होगी.यह कैसे होगा,इसके लिए हमारे योजना प्रबंधकों को महात्मा गांधी और पंडित दीन दयाल उपाधयाय की ओर लौटना होगा.हो सकता है कि ऐसा करने से विकास की दर कम हो जाये,पर वह विकास सर्वांगीण अवश्य होगा.