समावेशी सोच के प्रणेता शिवराज सिंह चौहान
प्रमोद भार्गव
किसी राजनेता या महान व्यक्तित्व की महिमा इस तथ्य से प्रमाणित नहीं होती है कि वह कहां जन्मा, उसके माता-पिता कौन हैं और उसकी जाति क्या है ? अलबत्ता उसकी गौरव-गाथा इस बात से तय होती है कि उसने अपने देश व समाज को दिया क्या ? उसका आचरण और व्यवहार आम-आदमी के प्रति कितना सरल रहा ? जनता से जो वादे किए, भाषण के दौरान बृहत्तर समाज से जो घोशणाएं कीं, उनके प्रति वह कितना उत्तरदायी रहा ? सामाजिक समरसता के उपरोक्त पहलुओं पर वही व्यक्ति विचार कर क्रियान्वयन कर सकता है, जिसके भीतर समावेशी सोच की अवधारणा हिलोर मार रही हो और जो अंतर्मन से उदार व सहिष्णु हो ? इस नाते इन पहलुओं पर मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सौ टका खरे उतरते हैं। गोया प्रदेश की कमान संभालने के बाद से ही उनका सतत प्रयत्न रहा है कि प्रदेश के प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान बहतर बने और समाज का भविष्य सुधारने में राजतंत्र निरंतर गतिशील रहे। समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए ‘गण‘ और तंत्र‘ की मिली-जुली सृजन-शक्ति पर आधारित शासन व्यवस्था ही सर्वोत्तम रहती है। व्यवस्था के इसी संतुलित स्वरूप को लेकर ही मध्य-प्रदेश आगे बढ़ रहा है।
देश या प्रदेश के फलक पर अकसर उदारता, सहिष्णुता और संवेदनशीलता की व्यावहारिकता कटघरे में देखने में आती है। यह तब और चिंतनीय पहलू बन जाता है, जब हमारा उत्पादक समाज, मसलन किसान और किसानी से जुड़ा मजदूर संकट से दो-चार होता है। यह वर्ग प्राकृतिक प्रकोप यानी अनावृष्टि या अतिवृष्टि के चलते पिछले कुछ वर्षों से संकट में है। यह वह संकट है, जो इस वर्ग के आजीविका के संसाधनों को अल्पवर्षा के चलते या तो उत्पन्न ही नहीं होने देता या बेमौसम बरसात और ओलों के मार से नष्ट कर देता है। किसी भी देश या प्रदेश के नेतृत्वकर्ता की यही वह नाजुक घड़ी होती है, जब एकाएक हाशिए पर आ गए इस समाज की उदारतापूर्वक चिंता करे, संवेदनशीलता जताएं और राजकोषीय खजाने खोलकर इस सर्जक समाज को संकट से उबारे। ऋण माफी तो एक अलग तरह का मामला है, लेकिन हमने किसानों के परिप्रेक्ष्य में देखा है कि जब दो साल पहले अवर्षा और फिर ओलावृष्टि के चलते खेतों में लहलहाती फसलों की जो हानि हुई थी, उसकी पूर्ति के लिए किसानों को जितना मुआवजा दिया गया उतना प्रदेश के इतिहास में पहले कभी नहीं मिला। संकट में पड़े किसानों को दी गई मुआवजा रूपी इसी ऊर्जा का पर्याय है कि प्रदेश आज गेंहू व अन्य फसलों के उत्पादन में अग्रणी बना हुआ है और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इन्हीं किसानों की महनत के बूते पांच बार कृषि कर्मण विजेता पुरस्कार अपने कर-मामलों में प्राप्त करने का स्वर्ण अवसर मिल रहा है।
मध्य-प्रदेश ने किसी अन्य क्षेत्र में कृषि जैसी सफलता प्राप्त को ही देखने में नहीं आई है। इस नाते प्रदेश के मुखिया का यह उदात्त दायित्व बनना स्वाभाविक है कि वह प्रदेश के इस सबसे बड़े उत्पादक वर्ग का सरंक्षण करे। कृषि और ग्रामीण विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दे। किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लक्ष्य समय-सीमा में पूरे हों। इस दृष्टि से प्रदेश के बजट में किसानी के लिए 37,498 करोड़ रुपए का प्रावधान प्रशंसनीय है। प्राकृतिक प्रकोपों के चलते अल्पकालिक कर्ज चुकाने हेतु बैंक के डिफाल्टर हुए किसानों के लिए समझौता योजना लागू करना मरते किसान को संजीवनी देने का काम करेगी। भावांतर योजना भी इसी कड़ी का हिस्सा है। अकसर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित रक्षक अर्थशास्त्री किसान, गरीब व वंचितों को सीधे लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं को ‘लोक लुभावन कहकर नकारते हैं, जबकि ये इनके जीवन की रक्षा करती हैं। इन योजनाओं में दीनदयाल रसोई योजना, सामाजिक सुरक्षा पेंशन आदिवासियों के कुपोषित बच्चों के लिए पोष्टिक आहार योजना, बीपीएल कार्डधारियों को 1 रुपया किलो गेंहू, चावल व नमक देना ऐसे सार्थक व स्वप्निल लक्ष्य हैं, जिन्हें साधना तब बड़ी चुनौती बन जाता है, जब सरकार के खजाने में धन की कमी हो ? क्योंकि हम सब जानते हैं कि सरकार के ऊपर डेढ़ लाख करोड़ से भी ज्यादा का कर्ज है। लेकिन यह स्थिति इसलिए चिंतनीय नहीं है, क्योंकि यह राजकोषीय बजट प्रवंधन अधिनियम की परिधि में है।
वर्तमान समय में राजनीति से आशय उसके मूलाधार वैचारिक निष्ठां की बजाय, सत्ता में बने रहने का गण्ति बिठाए रखने में माना जाता है। किंतु शिवराज प्रदेश में अब तक रहे मुख्यमंत्रियों में अपवाद हैं। वे हमेशा ही बहुलतावादी संस्कृति के प्रबल पक्षधर रहे।, यही वजह रही कि शिवराज के चौदह वर्षीय कार्यकाल में सभी वर्ग, जाति-समूह और बहुधर्मी समुदाय संतुष्ट रहे। इस दौरान अधिकारों और सुविधाओं को लेकर तो प्रदर्शन और धरने कमोबेश देखने में आएं, लेकिन जाति या धर्म विशेष के लोग, जाति या धर्म-आधारित संकीर्णणओं के कारण प्रताड़ित हुए हों, ऐसा कभी देखने में नहीं आया। यह सद्भाव इसलिए दिखा, क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज ने प्रदेश की जनता के साथ कोई भेद न तो जन-कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में किया और न ही तीर्थदर्शन योजना में किया। यदि सनातन हिंदुओं को रामेश्वरम, हरिद्वार या कामाख्या देवी की धार्मिक यात्रा सरकार की ओर से कराई जाने की निशुल्क सुविधा दी जा रही है तो इस्लाम धर्मावलंबियों को भी अजमेर शरीफ इबादत के लिए भेजा जा रहा है। ऐसी धार्मिक सहिष्णुता मध्य-प्रदेश में ही नहीं देश के अन्य किसी राज्य में पहले कभी देखने में नहीं आई। संप्रादायिक सद्भाव की इसी धारणा का पर्याय है कि शिवराज के कार्यकाल में छिटपुट निजी कारणों से हुईं, इक्का-दुक्का वारदातों को छोड़ दें तो कभी सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए।
जब किसी व्यक्ति की सोच और प्रगति की परिकल्पना समावेशी हो और उससे उपजी योजनाओं का क्रियान्वयन भी धरातल पर वस्तुपरक हो, तो ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व को विपक्ष से चुनौती मिलना मुश्किल है। विपक्ष के लोग आॅक्सफोर्ड विवि से भले ही डिग्रीधारी रहे हों, या फिर बड़े कारोबारी रहे हों, ये इसलिए समूंचे मध्य-प्रदेश में चुनाव की राणनीति में सफल होने वाले नहीं हैं, क्योंकि जनता की नब्ज समझने के मनोविज्ञान से ये अछूते हैं। इन्हें चुनावी सफलता तभी मिलती है, जब बसपा का हाथी मैदान में न हो। कोलारस और मुंगावली विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस की विजय का यही कारण है।
शिवराज सिंह द्वारा ‘सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय‘ नीति की भावना से काम किए जाने के बावजूद आय के स्तर पर समाज के विभिन्न वर्गों में असमानता बढ़ रही है, इसके मूल में वह भूमंडलीय आर्थिक उदारवादी शर्तें हैं, जिन्हें कांग्रेस की पीवी नरसिंह सरकार ने 24 जुलाई 1991 को स्वीकार किया था। इस समय अमेरिका के पैरोकार डाॅ मनमोहन सिंह केंद्र में वित्त मंत्री थे। देश की अवाम ने 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वतंत्रता प्राप्त की थी, लेकिन 1991 में सरंचनात्मक समायोजन के नाम पर जो बेलआउट डील हुई थी, उस पर हस्ताक्षर करके हमने आने वाले कई शताब्दियों के लिए अपनी आजादी को गिरवी रख दिया है। नव उपनिवेशवाद के इसी जंजाल के चलते राज्य सरकारों को संविदाकर्मी बनाने और पेंशन की व्यवस्था प्रतिबंधित करने का काम करना पड़ा है। बावजूद वे शिवराज ही हैं, जो कल के भारत के निर्माण के लिए आज के बचपन को शिक्षित करने वाले शिक्षाकर्मियों को ‘अघ्यापक‘ की सम्मानजनक श्रेणी में लाने की दृष्टि से बेलआउड डील की वर्जना को नकार रहे हैं। ये वर्जनाएं वे नेता और वे सरकारें नहीं तोड़ सकते, जिनके आकाओं ने प्रजातंत्र विरोधी शर्तों पर हस्ताक्षर करते समय तालियां पीटी थीं। इन वर्जनाओं से मुक्ति शिवराज जैसा ही नेता दिला सकता है, क्योंकि वह गांव के उस समावेशी संस्कार से परिश्कृत है, जिसके मूल्यों में ‘सबका साथ, सबका विकास‘ का भाव अंतरनिर्हित है। इसी भाव की परिणति है कि जब शिवराज ने यूरोपियन संस्कृति के अकेलेपन के प्रभाव के चलते लोगों को अवसाद की गिरफ्त में आने का अनुभव किया तो तुरंत आनंद मंत्रालय की सौगात दे दी। आनंद का यह अनूठा उपहार वही दे सकता है, जिसके ह्रदय में करूणा और दया के भाव फूट रहे हों और जो दूसरों में भी इन्हीं भावों को देखने की अभिलाषा रखता हो।