प्रमोद भार्गव
त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी की जबरदस्त और अप्रत्याशित जीत के बाद जो व्यापक हिंसा फैली है, वह चिंतनीय पहलू है। हालांकि हमारे देश में चुनाव परिणामों के बाद छिट-पुट हिंसा और असगजनी की घटनाएं देखने में आती रही है। किंतु त्रिपुरा में सोवियत रूस की बोल्षेविक क्रांति के नायक रहे व्लादिमीर इलिच उल्यानोव लेनिन की मुर्तियों का तोड़ा जाना एक नई तरह की चिंता की ओर आगाह करता है कि क्या ये मुर्तियां ऐसी थी, जो इस प्रदेश की जनता पर सत्ता की तरफ से थोपी गई थीं ? दरअसल माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने रूस के तानाशाह लेनिन रहे हों या स्तालिन उनके विचारों और मूर्तियों को उसी तरह से थोपने का काम किया है, जिस तरह से राजनीति ही नहीं साहित्य और इतिहास में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को असरदार ढंग से थोपने का काम किया। कोई भी देश आयातित वैचारिक मुल्यों को तभी तक स्वीकार करता है, तब तक उसे अपने परंपरागत विचार और मूल्यों को स्वीकारने का खुला माहौल नहीं मिलता। आज त्रिपुरा में 25 साल से चली आ रही माकपा की ऐसी सत्ता का अंत हुआ है, जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का निर्ममता से दमन करती चली आ रही थी। कालांतर में यही स्थिति केरल में बनने वाली है।
प्रतीक मूर्ति के रूप में हों या अन्य किसी रूप में, उनके आदर्शों को आचरण में ढालने की बजाय जब उनको दैवीय शक्ति के रूप में पूजने का चलन जोर पकड़ लेता है, तब आखिर में प्रतीक रूपी मुर्तियां मनुष्य को अशक्त और अपंग बनाने का ही काम करती हैं। हम भलीभांति जानते है कि भारतीय समाज में यह कमजोरी बहुत व्यापक और दीर्घकालीक रही है। प्राचीन भारत में जब चिंतन-मनन की धारा सूखने लगी तो सत्य और प्रकृति के रहस्य की खोजों का स्थान भजन-कीर्तन ने ले लिया। व्यक्तिगत जीवन में भी निष्ठाओं का स्थान चोटी, जनेऊ, दाढ़ी-मूंछ, तिलक-चंदन इत्यादी प्रतीकों ने ले लिया। इन प्रतीकों का अंततः हमारा हश्र यह हुआ कि हमें विदेशी हमलावरों की लंबी परतंत्रता झेलनी पड़ी। बावजूद हमारे लोकतंत्र के देशी शासक और अनेक दलों के प्रणेता मूर्ति रूपी वैशाखियों से मुक्ति का उपाय तलाशने की बजाय, मूर्तियों का शिलान्यास और करने में लगे रहे।
लेनिन का जन्म 22 अप्रैल 1870 को वोेल्गा नदी के किनारे बसे नगर सिम्ब्रिस्क में हुआ था। कार्ल माक्र्स के क्रांति संबंधी विचारों को व्यावहारिक रूप देने व प्रचारित करने और रूस के सर्वहारा वर्ग के पूनर्जागरण का श्रेय लेनिन को जाता है। दरअसल माक्र्स का यह मानना था कि मानव समाज में परिवर्तन अचानक नहीं होते, बल्कि प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों की तरह होते हैं। इस आधार पर यह तय किया गया कि समाज में जो धार्मिक विश्वास, नस्ली अहंकार और वीर या आदर्श व्यक्तियों की पूजा की जो धारणा बनी हुई है, उसे प्रगातिशील समाज के निर्माण की दृष्टि से बदला जाए। लेकिन लेनिन खुद अपनी जिंदगी में विरोधाभासी व्यक्ति के रूप में पेश आए। अपने विचारों और कार्यप्रणालियों को उदार रखने की बजाय, वे चरमपंथी नीतियों को अमल मे लाते रहे। इस कारण उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित भी किया गया। उन्हें किसी तानाशाही बर्बर सत्ता के अगुवा के रूप में जाना गया, जो राजनीतिक अत्याचार और बड़े पैमाने पर हत्याओं के लिए जिम्मेबार रहे। ‘ द ब्लैक बुक आॅफ कम्युनिज्म‘ नामक पुस्तक में बताया गया है कि साम्यवादी प्रयोगों के कारण बीते 70-80 सालों में दुनिया में लगभग 10 करोड़ लोग मारे गए। इनमें सोवियत संघ में 2 करोड़, चीन में 6.5 करोड़, कम्बोडिया में 20 लाख पूर्वी यूरोप में 10 लाख लैटिन-अमेरिका में 1.5 लाख, अफ्रीका में 17 लाख और अफगानिस्तान में 15 लाख मौतें हुईं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि लेनिन और माक्र्स के विचार अपनाने वाले लोग पूरे विश्व की मनावता को नष्ट करने में लगे हुए थे। अंत में लेनिन का भी वही हश्र हुआ, जो एक तानाशाह का होता है। लेनिन तानाशाह स्तालिन की बढ़ती ताकत को लेकर चिंतित रहने लगे। फिर वे दिमागी बिमारी का शिकार हो गए। नतीजतन तानाशाह स्तालिन को लेनिन का उत्तराधिकारी बनने का अवसर आसानी से मिल गया।
दक्षिण त्रिपुरा के बेलोनिया चैराहे पर लगी लेनिन की जिस प्रतिमा को जेसीबी से ढहाया गया है, उसका कुछ माह पहले ही अनावरण माकपा नेता प्रकाश करात ने किया था। नेताओं की मूर्तियों को तोड़ा जाना कोई नई बात नहीं है। रूसी राष्ट्रपति गौर्वाचोब के कार्यकाल में जब सोवियत संघ खंडित होकर 15 टुकड़ों में बंटा, तब इन नए देशों में माक्र्स और लेनिन की ओढ़ी हुई वैचारिक विरासत को उखाड़ फेंकने की होड़ सी लग गई थी। यूक्रेन में ही लेनिन की 1300 से अधिक मूर्तियों को आजादी के उत्सव में जमींदोज कर दिया गया था। यूक्रेन के राष्ट्रपति पेट्रो पेरोषेंको ने मई 2015 में एक कानून को अस्तित्व में लाकर लेनिन के नाम से जो भी संस्थाएं व मार्ग थे, उन्हें बदलने का फैसला ले लिया था। शायद इसीलिए भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा है कि ‘लेनिन विदेशी होने के साथ एक प्रकार से आतंकवादी हैं। इस लिहाज से हमारे देश में ऐसे व्यक्ति की प्रतिमा की कोई जरूरत नही है। हालांकि अनेक लोग लेनिन की प्रतिमाओं को तोड़े जाने की तुलना इराक में अमेरिकी आक्रमण के बाद सद्दाम हुसैन की एक चैराहे पर लगी मूर्ति को तोड़ने से कर रहे हैं। वहीं कुछ लोग इसकी तुलना अफगानिस्तान के बामियाम प्रांत में शताब्दियों से खड़ी महात्मा बुद्ध की उन प्रतिमाओं से कर रहे हैं, जिन्हें तालिबानियों ने तोप के गोलों से उड़ा दिया था।
दुनिया में एक वे शासक होते हैं, जो स्मारक और प्रतिमाएं बनाते हैं, दूसरे वे विदेशी आक्रांता होते हैं, जो समारक और मूर्तियों को खंडित करते हैं। भारत शायद दुनिया में ऐसा इकलौता देश है, जिसमें विदेशी हमलावरों द्वारा अपनी विरासत को ढहाने का सबसे दुखद अनुभव किया है। फिर भी भारतीयों की उदार सहिष्णुता हमेशा कायम रही। इस लिहाज से भारतीय लोकतंत्र में बहस-मुवाहिशा और सहमति-असहमति की तो खूब गुंजाइश हैं, लेकिन कट्टरता और हिंसा को अंततः भारतीय जनमानस स्वीकार नहीं करता। दरअसल चुनाव जीतने के बाद विरोधियों का दमन हमारी लोकतांत्रिक परंपरा में नहीं है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में बार-बार कह रहे हैं कि ‘पार्टी जितनी बड़ी बन रही है, कार्यकर्ताओं को उतना ही विनम्र व उदार बनने की जरूरत है। इस नीति को यदि भाजपा कार्यकर्ता मोदी को अपना आदर्श नेता मानते हैं तो उन्हें मोदी के कहे पर अनुसरण करना चाहिए। वैसे भी भारतीय लोकतंत्र की यह विशेषता है कि निर्वाचन के जरिए सत्ता का परिवर्तन शांतिपूर्ण तरीके से होता है। यदि 25 वर्ष बाद त्रिपुरा में माकपा की सरकार पराजित हुई तो यह भारतीय संविधान की लोकतांत्रिक व्यवस्था का ही परिणाम है। कमोबेश इसी तर्ज पर ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में 35 साल से चली आ रही माकपा की सरकार को पलट दिया था। यदि राजनीतिक दल और नेता एक-दूसरे के प्रति दुश्मनी की दुर्भावना से काम लेंगे तो प्रजातंत्र को संकट तो पैदा होगा ही, उसकी अंतरराष्ट्रीय साख पर भी बट्टा लगेगा। हालांकि सत्ता परिवर्तन के बाद स्मारक और प्रतिमाएं तोड़े जाने के उदाहरण दुनिया में तो बहुत हैं, लेकिन भारत ही ऐसा देश है, जहां इस तरह के उदाहरण अपवाद स्वरूप ही देखने में आते हैं। यही वजह रही कि जब देश आजाद हुआ था, तो उन सामतों की मूर्तियां नहीं तोड़ी गईं, जो अंग्रेजों की गुलामी को सरंक्षण देने का काम कर रहे थे। उन अंग्रेजों की मूर्तियां भी नहीं तोड़ी गईं, जिन्होंने भारत को परतंत्र बनाने का काम किया था। आज भी दिल्ली के कार्पोनेशन पार्क और लखनऊ के राजकीय संग्रहालय में रानी विक्टोरिया से लेकर कई वायसराय और अंग्रेज अधिकारियों की मूर्तियां सुरक्षित हैं।
सवाल उन माक्र्सवादी वमपंथियों पर भी उठते हैं, जो भारतीय होते हुए भी न केवल आयातित विचारधारा को महत्व देते हैं, बल्कि अपने वैचारिक धरातल पर भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सर्वथा नकारते हैं। वामपंथियों की त्रिपुरा, केरल और पश्चिम बंगाल में दशकों तक सरकारें रहीं, लेकिन कभी देखने में नहीं आया कि उन्होंने महात्मा गांधी, रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप या शिवाजी की मूर्तियां लगाने की पहल की हो। आज वामपंथाी यदि सिमट रहे हैं, तो उसकी एक वजह यह भी है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, साहित्य और इतिहास से वामपंथियों के गहरे व रचनात्मक सरोकार कभी नहीं रहे। वामपंथियों ने उस भक्तिकालीन साहित्य को भी प्रतिक्रियावादी घोषित किया, जिसे तुलसीदास, सूरदास और कबीरदास ने रचा था। जबकि यही वह साहित्य था, जिसने लोक मानस में भारतीय अस्मिता को जगाने का काम किया था। इसीलिए अनुकूल परिस्थितियों में जब जनआकांक्षाएं जोर पकड़ती हैं तो कुछ-कुछ उम्माद की स्थिितियां भी उत्पन्न होती हैं और अनुशासन भी टूटता है। गोया, त्रिपुरा में फूटे लब्बोलुआब की यही परिणति है।
===> मूर्ति पूजा में कम्युनिस्ट कब से मानने लगे?
साम्यवादी शासक क्यॊं विवादास्पद परदेशियों के पुतले भारत में लगाते हैं?
जब USSR के भी १३ टुकडे हुए हैं. कुछ समझ के बाहर हैं.
अब यदि कुछ ठीक करना ही है, तो जाओ, USSR को फिरसे एक करो.
ये ज्यादा अच्छा होगा.
वैसे, नास्तिक कम्युनिस्ट मूर्ति पूजा में, कब से मानने लगे?