Home विविधा सुमिरन करिए शिवराज के प्रताप का

सुमिरन करिए शिवराज के प्रताप का

-वीरेन्द्र सिंह परिहार-
shivaji

‘‘त्यो म्लेच्छ वंश पर शेर शिवराज है।’’ प्रसिद्ध कवि भूषण की इस कविता का गायन अपनी मधुर आवाज में स्वामी विवेकानन्द एक चांदनी रात में अपने चेन्नई प्रवास के दौरान कर रहे थे। इस पर उनके एक शिष्य ने कहा- ‘‘यह क्या स्वामी जी? वह तो एक घोर डाकू, कपटी, खूनी था। तत्मयता से गा रहे स्वामी जी का मुख क्रोध से तमतमा उठा। उन्होंने कहा- ‘‘जिस समय हमारे धर्म, संस्कृति का नामों-निशान मिटाया जा रहा था, हमारा समूचा समाज ही विनाश के गर्त में डूबा जा रहा था। ऐसे विषमकाल में हमारे धर्म एवं समाज का उद्वार करने वाला, महान राष्ट्रपुरूष था वह। तुम्हारी सोच परकीयों द्वारा पिलाई गई गलत इतिहास की घुट्टी का विषफल है। गहन कालिमा के क्षणों में अवतार धारण कर अधर्म का विनाश कर, धर्म राज्य की स्थापना करने वाला युगपुरूष था- वह प्रत्यक्ष शिवाजी का अवतार, भारत की आत्मचेतना का मूर्त रूप था वह। भारत के भव्य भवितव्य का आशादीप था वह। प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने लिखा- ‘‘जहांगीर ने प्रयाग के वट वृक्ष कोे जड़ों से काट डाला था। उसकी जड़ों पर उबलता शीशा उड़ेला था। पर एक वर्ष के अंदर ही खाक हुए उन्हीं जड़ों से वह वट फिर अंकुरित हुआ। उस शीशे के कवचों जैसेी दासता की श्रृंखलाएं, अत्याचार आदि हिन्दुत्व के वटवृक्ष को सैकड़ों वर्षों तक ध्वस्त कर सेंध कर बैठे थे। वहीं वटवृक्ष परकीयों के दमन-भार में फंसने के बाद भी मरने के बजाय फिर नए सिरे से अंकुरित होते हुए दास्ता के शीश कवचों को दूर फंेककर बढ़ते-बढ़ते बनकर खड़ा हो सका। यह बात शिवाजी ने अपने जीवन में साबित कर दिखायी है, प्रसिद्ध विचारक और संघ के पूर्व सरकार्यवाह हो.वि. शेषाद्रि के शब्दों में- ‘‘स्वराज की बाती बुझ गई थी, धर्म अंतिम सांसें ले रहा था। हिमालय से रामवेश्वरम तक सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक दासता का घना साम्राज्य फैल गया था। तभी पश्चिम तटीय सह्याद्रि के पहाड़ों के गर्भ में एक नवजात बालक का उदय हुआ। बाल्यावस्था में ही विदेशी बीजापुर बादशाह को उस लड़के ने मुजरा करना नामंजूर किया। आते-आते उसने बीजापुर के तख्त को जड़ो से हिलाया। भाग्यनगर के कुतुबशाह को झुका दिया। दिल्ली बादशाह के दिल में भी उस सह्याद्रि के बालक ने कंपकंपी पैदा की। ईरान के युवा बादशाह अब्बास द्वितीय ने तो पत्र लिखकर औरंगजेब की हंसी उड़ायी। ‘‘तुम खुद को आलमगीर यानी विश्व-सम्राट कहते हो, लेकिन एक छोटे सरदार के बेटे को जीतना तेरे लिए मुमकिन नहीं हुआ।

इस तरह से बीजापुर के एक सरदार संभाजी के बागी बेटे की कीर्ति हिन्दुस्तान के बाहर भी पहुंच चुकी थी। उसका खड़ग दुष्ट दुश्मनों का मारक एवं स्वराज तथा स्वधर्म का तारक बना। यह शिवाजी के संघर्ष का परिणाम था कि आगे उनके वंशजों ने बीजापुर सल्तनत को जड़ो से उखाड़कर फेंक दिया। निजामशाही का अस्तित्व नाममात्र रहा। दिल्ली के विश्व सम्राट बादशाह को उसके साम्राज्य की राजधानी दिल्ली में निवृत्त कराते हुए उसे एक कोने में बिठा दिया। सह्याद्रि से निकले बौने टट्टू सिंधु प्रदेश पारकर आगे दौड़ पडें। उस बालक के वंशज अटक, काबुल, कंधार तक जाकर हिन्दुस्तान का विजयध्वज गाड़ कर आ गये।’’

पिता शाहजी एवं माता जीजाबाई के ऐसे पुत्र शिवाजी का जन्म 19 फरवरी 1627 को पूना के पास शिवनेरी के किले में हुआ। छः वर्ष की उम्र में शिवा को शिवनेरी से पुणे भेज दिया गया। जहां उनके संरक्षण और शिक्षा के लिए वयोवृद्ध, ज्ञान के पुंज राजकार्य के धुरंधर दादा जी कोंडदेव का मार्गदर्शन शिवाजी को मिला। दूसरी तरफ माता जीजाबाई शिवाजी को बराबर राम, कृष्ण, अर्जुन, हनुमान की कथाएं सुनाया करती थी। उतनी छोटी उम्र में समवयस्क बालकों को लेकर माटी के किले बनाकर लडाई का खेलना शिवाजी का प्रिय खेल था। उनके पिता शाहजी जो बीजापुर के एक सरदार थे, दस वर्ष के शिवा को लेकर एक बार बीजापुर दरबार में गये, पर शाह जी के कहने पर भी शिवा ने सुल्तान को सलाम नहीं किया। उसी समय शिवाजी जब बीजापुर शहर की सैर करने निकले तो एक कसाई गाय की हत्या करने जा रहा था। पलक झपकने से पहले ही बालक शिवाजी की तलवार म्यान से बाहर आ गई और उस कसाई का हाथ कंधे से दूर जा पड़ा। गोमाता के संरक्षण और निर्भीकता एवं साहस का एक अद्भुत उदाहरण था यह।
पुणे वापस लौटने पर शिवाजी ने 12 मावल प्रांतों में दीन-हीन, अशिक्षित मावलों को संगठित किया। 13 वर्ष की आयु में ही शिवाजी ने अष्टकोणीय आकृति में स्वतः की राजमुद्रा जारी की और रोहिणेश्वर के स्वयंगू शिवलिंग के समक्ष सभी साथियों के साथ मिलकर हिंदवी स्वराज स्थापित करने की शपथ ली। जबकि उस वक्त स्वराज का विचार ही पागलपन जैसा था। बावजूद इसके 14 साल के शिवाजी बदफैली के पाटिल को एक विधवा से बलात्कार के आरोप में हाथ-पैर काटने की सजा दंेते है। जबकि उस समय सामर्थ्यवान लोगों के लिए यह सामान्य बात थी, पर यही तो शिवाजी के स्वराज की विशेषता थी। 16 वर्ष की आयु में शिवा अपनी किशोरवयी सेना लेकर स्वराज की शुरूआत करते हैं, और बगैर एक बिन्दु रक्त बहाए ही बीजापुर द्वारा दुर्लक्षित दुर्ग, ‘‘तोरणगढ़’’ में स्वराज का तोरण बांध देते है। इसके बाद तो शिवाजी एक के बाद एक दुर्गों पर अधिकार करते गए। बीजापुर दरबार द्वारा सर कलम किए जाने के प्रत्युत्तर में शिवाजी अपने शेर-मित्र बापू जी मुद्गल देशपाण्डे के द्वारा खून का बगैर एक कतरा बहाएं ‘‘कोंडाणा’’ जैसा दुर्गम दुर्ग अपने अधीन कर लेते हैं। फिर तो शिरवल, सुभानमंगल जैसे किले हाथ में आते गए।

शिवाजी के बढ़ते प्रभाव और प्रभुत्व से भयभीत होकर बीजापुर दरबार ने अफजल खान जैसे दुर्दान्त सरदार को शिवाजी को ठिकाने लगाने के लिए भेजा। उसने तुलजापुर में भवानी के मंदिर को तोड़ा, फिर पंढरपुर, कोल्हापुर आदि नगरों में हत्या, विध्वंस, आगजनी, बलात्कार, लूटपाट करता, मंदिरों को तोड़ता और उनकी जगह मजिस्दों का निर्माण कर वह आगे बढ़ता रहा। शिवाजी की शरण में आने के लिए प्रतापगढ़ के किले में जहां उस वक्त शिवाजी थे, वहां दूत भेजा। पर शिवजी की चतुराई से प्रतापगढ़ के किले के पास ही 10 नवम्बर 1659 को दोनों का मिलना तय हुआ। इसके पहले कि अफजल शिवाजी का हत्या कर पता, शिवाजी ने अपना बघनखा अफजल के पेट में घुसेड़ दिया। अफजल खान की फौज को भागने की जगह भी नहीं मिली। इस दौरान शिवाजी के एक सरदार खण्डों जी खोपडे ने शिवाजी के साथ गद्दारी की थी, अपने खास कान्होजी जेधे के कहने पर शिवाजी ने उसको प्राणदान तो दिया, पर एक हाथ और एक पैर तुड़वा दिया। उनका कहना था गद्दारी करने वालों को यदि सजा नहीं दी गई तो स्वराज्य एक दिन के लिए भी सुरक्षित नहीं रहेगा। राज्य का भय नहीं तो स्वराज का अनुशासन कैसे?

अफजल के असफल होने पर बीजापुर दरबार द्वारा सिद्दी जौहर के नेतृत्व में पन्द्रह हजार घुड़सवार, बीस हजार पैदल और ऊंटों, हाथियों से लदी सेना भेजी गई। सन् 1660 में पन्हालगढ़ के किले में सिद्दी जौहर ने शिवाजी को घेर लिया। उधर औरंगजेब ने अपने दक्खन के सूबेदार और मामा साइस्ता खान को शिवाजी के ऊपर आक्रमण करने को भेज दिया। 77 हजार घुड़सवार और 30 हजार पैदल सेना लेकर वह शिवाजी के राज्य में लूटपाट, बलात्कार, आगजनी, नृशंष हत्याएं, धर्मान्तरण करते हुए घुसता गया और पुणे जाकर लालमहल में डेरा डाल दिया, जहां शिवाजी का बचपन बीता था। सिद्दी जौहर के घेरे में चार माह हो गए थे। पन्हालगढ़ से कैसे निकला जाए यह यक्ष प्रश्न था। एक गलियारे को कुछ खाली देखकर भरी बरसात की भयावह रात्रि में 600 सैनिकों के साथ शिवाजी प्रतापगढ़ किले से नीचे उतर पड़े। पर मोर्चेबंदी की सीमा में सिद्दी जौहर के जासूसों ने उन्हें जाते देख लिया। इसी दौेरान एक दूसरी खाली पालकी पर शिवाजी की वेशभूषा में एक दूसरा व्यक्ति बैठ गया। मावले शिवाजी को पालकी को लेकर एक आड़ें-टेढ़ें रास्ते से दौड़ पड़े।

सिद्दी जौहर के सैनिक जैसे ही पालकी के पास पहुंचे और पूछा कि कौन? तो पालकी में बैठे व्यक्ति ने जवाब दिया-शिवाजी। सेैनिक उसे पकड़कर शिविर में लाए तो पता चला कि वह शिवाजी नाम का नापित था। अब उसका क्या हश्र हुआ होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। पर संकट अभी टला नहीं था। विशालगढ़ का किला जो शिवाजी का लक्ष्य था, वह अभी दूर था। रास्ते में घाटी में एक तंग गलियारा था। तत्काल बाजीपभु देशपाण्डे ने 300 सैनिकों के साथ शिवाजी को विशालगढ़ की ओर भेजते हुए 300 सैनिकों को लेकर उस खिण्ड (गलियारे) में सिद्दी जौहर के सैनिकों का इंतजार करने लगा। शिवाजी को बचाने के लिए सभी सेैनिक उस खिण्ड में सिद्दी जौहर के सैनिको को रोकते हुए एक-एक कर बलिदान होते हुए। जब विशालगढ़ किले से तोपों की गर्जना सुनाई दी, जिसका आशय यह था कि शिवाजी सकुशल विशालगढ़ पहुए गए है, तभी अनगनित घाव खाया बाजीप्रभु भी शहीद हो गया। गौर करने की बात यह कि शिवाजी के साथी शिवाजी और स्वराज के लिए किस हद तक बलिदान करने को तैयार करते थे।

इधर, शाइस्ता खान से निबटने के लिए शिवाजी ने एक बहुत ही दुस्साहिक योजना बनाई। 6 अप्रैल 1663 की मध्य रात्रि। दो हजार सेना के साथ शिवाजी रायगढ़ किले के नीचे उतर आए। रोज-ए-शरीफ तथा औरंगजेब की सालगिरह होने से मुगल लालमहल में छककर खा-पीकर सो रहे थे। पहरेदारों ने टोका तो शिवाजी के सैनिकों ने कहा कि हम सेना की टुकड़ी, पहरा देने गांव से बाहर गए थे। आखिर में लालमहल के पास पहुंचकर शिवाजी और उनके चार सौ साथी बिना कोई आवाज किए भूतों जैसे रसोईघर में घुस गये। फिर दीवार तोड़कर ये सैनिक शाइस्ता खान के जनानखाने में घुंसने लगे। समूचा लालमहल चीत्कारों और हाहाकारों में भर गया। खिड़की से नीचे कूद जाने के कारण खान स्वतः तो बच गया, पर उसकी तीन उंगलिया कट गई। उसका एक बेटा और कई बीबियां मारी गई। शाइस्ता खान के सैनिकों जैसे ही शिवाजी के सैनिक भी गनीम-गनीम चिल्लाते बाहर निकले और रफूचक्कर हो गए। खान के अगल-बगल एक लाख फौज का पहरा होते हुए भी शिवाजी यह सब कर गए। ऐसी स्थिति में उनके साहस और युक्ति को कौन सलाम नहीं करेगा? इस घटना से खान बुरी तरह टूट गया और शीघ्र ही लालमहल छोड़कर औरंगाबाद की ओर निकल गया। जहां से औरंगजेब ने उसका तबादला बंगाल के लिए कर दिया और इस तरह से शिवाजी का रास्ता निष्कंटक हुआ। इसके बाद स्वराज में तीन साल जो बर्बादी हुई थी, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए उस समय मुगलिया सल्तनत और भारत के सबसे समृद्ध बंदरगाह सूरत पर चार हजार सवारों के साथ 15 जनवरी 1664 को शिवाजी ने हमला कर दिया। सूरत को पूरी तरह लूटा गया। इधर बीजापुर सुल्तान ने नामी-गिरामी सेनापति खवास खान को भारी भरकम फौज के साथ भेजा, पर शिवाजी ने उसे धूल चटा दी। इतना ही नहीं उन्होने बीजापुर के अधीन प्रसिद्ध जलदुर्ग फोंड़ा पर अपना कब्जा कर लिया। साथ ही अरब सागर पर भव्य सिंधुदुर्ग का निर्माण कराया।

इधर औरंगजेब शिवाजी को सबक सिखाने के लिए सैकड़ों युद्धों में विजय प्राप्त करने वाले मिर्जा राजा जय सिंह को भेजा। जय सिंह की सेना में तो 80 हजार मात्र घुड़सवार ही थे। परिस्थितियों का तकाजा देखते हुए शिवाजी ने संधिपत्र भेज दिया। इतिहास में यह पुरंदर संधि के नाम से प्रसिद्ध है। शिवाजी को 23 प्रमुख किले और 16 साल की आमदनी वाला मुल्क जयसिंह के हवाले करना पड़ा। जयसिंह के प्रस्ताव पर वह पुत्र संभाजी को लेकर औरंगजेब से मिलने आगरा पहुंच गए। पर औरंगजेब की दरबार में शिवाजी को पीछे की पंक्ति में खड़ा किया गया, जो तृतीय दर्जे की जगह थी। शिवाजी ने इस अपमान को बर्दाश्त न करते हुए सख्त आपत्ति की और गरजकर कहा- ‘‘मैं कभी नहीं बनूंगा, औरंगजेब का गुलाम।’’ औरंगजेब ने शिवाजी को नजरकैद कर उन पर सख्त पहरा बिठा दिया। इधर, शिवाजी बीमारी का बहाना बनाकर पिटारों में मिठाई भर-भरकर साधुओं-फकीरों को भेजने लगे। औरंगजेब उनकी हत्या कराने वाला ही था कि एक दिन पुत्र सभाजी के साथ पिटारों में बैठकर वह औरंगजेब की कैद से निकल आए। नौ वर्ष के शंभाजी को मथुरा में एक विश्वस्त के यहां छोड़ा और बनारस, पुरी होते हुए रायगढ़ पहुंच गए। दो वर्ष तक उन्होंने स्वराज की व्यवस्था बनाई और फिर पुरंदर संधि के तहत छोडें गए दुर्गों और किलों को मुक्त करने के लिए कदम उठाया। कोडांणा के दुर्गम किले को मुक्त कराने का दायित्व उन्होंने अपने बाल मित्र सिंह साहसी ताना जी मालसुरे को दिया। सिंहगढ़ तो जीत लिया गया, पर तानाजी का इसमें बलिदान हो गया।

शिवाजी ने इस पर कहा कि ‘गढ़ आला पण सिंह गेला। इसके बाद पुरंदर कल्याण, लोहगढ़ आदि किले स्वराज के अधीन आते गये। सन् 1670 में शिवाजी ने सूरत का दुबारा लूटा और उसे श्रीहीन कर दिया। इसके पश्चात पहली बार से खुले युद्ध में दिडोरी में उन्होंने. मुगल सेना को भारी पराजय दी। इसी दौरान छत्रसाल जो मुगलिया फौज के ही साथ आए थे, किसी तरह शिवाजी के पास पहुंचे और उनसे अपनी सेवा में लेने का अनुरोध किया। इस पर शिवाजी ने कहा- ‘‘छत्रसाल आप क्षात्र कुल के मुकुटमणि हैं, आप बुन्देलखण्ड वापस जाइए और उसे मुक्त कराइए। शिवाजी ने कहा कि दो-दो मोर्चों से औरंगजेब को छकाना आसान रहेगा। वस्तुतः यही थी- शिवाजी की राष्ट्रीय दृष्टि। शिवाजी के आदेशानुसार अतुल पराक्रम से छत्रसाल ने बुंदेलखण्ड को मुक्त किया। इसके पश्चात पुनः सालेर के युद्ध में खुले मैदान में मराठा सेनाओं ने औरंगजेब की सेना को पराजित किया। मैदानी युद्धों में भी हम मुगलों को पानी पिला सकते हैं, ऐसा आत्मविश्वास मराठों में जमा। शिवाजी के बढ़ते वर्चस्व को देखते हुए भाग्यनगर का कुतुबशाह उन्हें चौथ भेजने लगा। इधर, शिवाजी ने दो-दो खुले युद्धों में बीजापुर के सेनापति बहलोल खान को हराया और पन्हालगढ़ को पुनः अपने कब्जे में ले लिया।
पर एक बड़े साम्राज्य के बावजूद शिवाजी अब भी मान्य राजा नहीं थे। उनके उत्तर में विशाल मुगलिया सल्तनत थी, तो दक्षिण में बीजापुर की आदिलशाही। ऐसी स्थिति में एक सार्वभौग स्वतंत्र हिन्दू राज सिंहासन स्थापित करने का निर्णय शिवाजी ने लिया। सुरक्षित और स्वराज के बीच में स्थित होने के कारण राजधानी के लिए रायगढ़ का चुनाव किया गया। राज्यभिषेक के लिए काशी से प्रकाण्ड पण्डित गोगाभट्ट को बुलाया गया। भारत के सप्त नदियों, सभी सागरों, तीर्थस्थलों के पुण्योदक के कलश आए। दूर-दूर से विद्वान, कलाशासक और राजदूत आए। यद्यपि शिवाजी सिसोदिया वंश के कुलोत्पन्न क्षत्रिय थे और उनके पूर्वज मेवाड़ से आए थे, पर मुस्लिम प्रभुत्व के चलते उनके कुल में कई संस्कार लुप्त हो गए थे। इसी प्रभाव के चलते उनके पिता और चाचा का नाम मुसलमानों जैसा क्रमशः शाह जी एवं शरीफ जी था। अतएव, सभी संस्कार कराए गए।

शिवाजी महाराज की जयघोष के साथ शिवाजी सिंहासन पर विराजमान हुये। इन्द्रप्रस्थ, देवगिरी, वारंगल, कन्नौज, विजयनगर पर टूट पड़ा सिंहासन आज फिर से साकार हुआ। शिवाजी ने छत्रपति की पदवी धारण की। इसके पश्चात 1676 मेें विजयादशमी के शुभ मुहूर्त पर रायगढ़ से दक्षिण दिग्विजय के लिए छत्रपति निकल पड़े। पहले वह भाग्यनगर गये, जहां कुतुबशाह ने उनका भव्य स्वागत किया। फिर जिंजी के किले को जीतते वैलूर के किले पर घेरा डालते हुए आगे बढ़े। पिता की मृत्यु के बाद उनका भाई व्यंकोजी ही कर्नाटक का राजा था, उसने तंजौर भी जीत लिया था। उन्होंनेे व्यकोंजी से स्वराज के लिए सहयोग मांगा, पर उसे दासता ही अधिक प्रिय थी, अतएव कावेरीपट्टणम् मद्राचलम्, चिदम्बरम् आदि स्थान हस्तगत कर बंगलुरु होसकोटे, कोलारशिरा आदि दुर्ग स्वतंत्र हिन्दू राज्य में शामिल करते 1678 के आरंभ में वह रायगढ़ पहुंच गये।

इसी बीच औरंगजेब ने हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया। हिन्दुओं के पवित्र तीर्थों, मंदिरों को नष्ट करने लगा। काशी-विश्वनाथ और मथुरा का केशोराय मंदिर गिरवा दिया। इस पर व्यथित होकर शिवाजी ने औरंगजेब को एक पत्र लिखा- ‘‘प्रजा में भेदभाव बतरना पाप है।’’ यदि जजिया कर वसूल ही करना है, तो सर्वप्रथम मेवाड़ के राणा राज सिंह ओैर फिर मुझसे वसूल करो। पचास वर्ष की आयु में महाराज को कुछ बीमारी हुई सतत् संघर्षों से उनकी देह जर्जर हो गई थी। योगावस्था में ही 03 अप्रैल 1680 को वह कैलाशवासी हो गये।

छत्रपति का कार्य सही अर्थों में ध्येय निष्ठा से अभिमंत्रित था। उज्जवल राष्ट्रीय ध्येय में ही उसका मूल छिपा था। अनेक बार शिवाजी को स्वराज से बहुत दूर रहना पड़ा था। पन्हालगढ़, आगरा, में उन्हें महीनों तक प्राणसंकटों से भरे दिगबंधनों में रहना पड़ा। तत्पश्चात् दक्षिण दिग्विजय के लिए निकलने पर दो वर्षों के दीर्घकाल तक वे स्वराज से दूर रहे। पर ऐसे किसी भी समय में स्वराज के शासन में गडबड़ी या शौथिल्य निर्माण नहीं हुआ। स्वराज के हरेक प्रजा के हृदय में उन्होने अपनी स्वतः की भक्ति के बदले स्वराज-स्वधर्म के अनुसार ध्येयनिष्ठा की कल्पना की थी। इसलिए ऐसे विषम प्रसंगों में भी राज्य का कारोबार कडाई तथा सुचारू रूप से चला था।

जन-जन को उन्होंने ध्येयनिष्ठ बना दिया था। तभी तो शिवाजी की मृत्यु के बाद भले औरंगजेब चार लाख की सेना लेकर आया हो, पुत्र संभाजी को पकड़कर क्रूरतम तरीक से हत्या कर दी हो, स्वराज को श्मसान बनाने का प्रयास किया हो, सभी गढ़ों, किलो पर कब्जा कर लिया हो, पर स्वराज को वह श्मसान नहीं बना पाया। घनाजी जाधव और संता जी घोरपडे़ जैसे छोटे-छोटे सरदारों के रूप में छत्रपति ही अवतरित हो गये थे। जो औरंगजेब की छावनी में घुसकर बादशाही डेरे के स्वर्ण-कलश काट लाए। उस समय औरंगजेब डेरे में नहीं था, इसलिए बच गया। अंत में औरंगजेब स्वतः श्मसान में समाहित हो गया।

उस दौर में प्रलोभन या प्राणभय से एक बार मुसलमान बनने पर उसे हिन्दू धर्म में वापस लेने को कोई धर्माचार्य तैयार नहीं होते थे। ऐसे में ऐसा व्यक्ति सदा के लिए हिन्दू समाज से विच्छिन्न ही नहीं हो जाता था, बल्कि हिन्दू समाज का ही नाश करने वाले खड़े दुश्मनों के साथ मिल भी जाता था। विद्यारण्य स्वामी के पश्चात जिन्होंने हरिहर और बुक्का को पुनः हिन्दू धर्म में लेकर विशाल विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कराई थे, ऐसे संकट को पहचानने और उसका परिहार करने वाले उस दौर केवल शिवाजी ही थे। उन्होंने धर्मान्तरिंतों का शुद्धिकरण करने का क्रम चलाकर अकल्पित मानसिक क्रांति का सूत्रपात किया। बीजापुर बादशाह द्वारा धर्मान्तरित बालाजी निबांलकर तथा औरंगजेब द्वारा धर्मान्तरित कराए हुए नेताजी पालकर का शुद्धिकरण करते हुए हिन्दू धर्म में पुनः लिया। दूसरे लोग पीछे हटेंगे, इसलिए उनके साथ अपने ही परिवार वालों के रक्त-संबंध बढ़ाकर शिवाजी महाराज ने समाज को एक नयी धर्म दृष्टि प्रदान की। इतना ही नहीं, धर्म के नाम पर हिन्दू समाज की सुरक्षा तथा सामर्थ्य को संकट उत्पन्न करने वाले सब बंधनों का उन्हांने उन्मूलन किया। समुद्र-प्रयाण को लेकर जो धार्मिक विरोध की अंधश्रद्धा थी। उसे उखाड़कर फेंकने के लिए उन्होंने स्वयं समुद्र-प्रयाण कर सागर तट से अंदर जाकर जलदुर्गोे का निर्माण कराया। समर नौकाओं में बैठकर संचार करते हुए सागर पराक्रम की उज्जवल परंपराओं को स्थापित किया।

मुसमलमान बादशाहों द्वारा तब प्रचालित पद्धति जागीर देने की थी। ऐसी स्थिति में जागीरों के सूबेदार ही उनके सैनिकों और प्रजा के निष्ठा के प्रथम केन्द्र थे। शिवाजी महाराज के राज्य में ऐसे अनेक जागीरगदार, देशमुख, देशपाण्डे थे। एक राज्य के अंदर अनेक राज्यों की अवस्था स्वराज के लिए कभी भी विपत्तिजनक बन सकती थी। परन्तु जागीरदारी प्रथा को समाप्त करना कोई आसान काम नहीं था। परन्तु महाराज ने अपना कठोर निर्णय ले ही लिया तथा उसे सफल बनाया। जागीरे रद्द कर जमीनें गरीब किसानों को बॉट दी। अपने समधी पिलाजी शिर्के द्वारा मांगे जाने पर भी जागीर नहीं दी। इससे जनसामान्य में स्वराज के प्रति आत्मीयता बढ़ी उत्पादन बढ़ा और स्वराज की सुरक्षा के लिए अपायकारी ऐसे जागीरदारों का भी अंत हुआ। सर्वसाधारण किसानों का स्वामिभान से जीना संभव हुआ।

अन्नदाता की, नमक खिलाने वाली की, चाहे वह दुश्मन ही क्यों न हो, चरण सेवा करते पड़ें रहना, ऐसा भ्रम तब बडें व्यापक प्रमाण में छा गया था। छत्रपति ने इस स्वामी, निष्ठा को स्वदेश, स्वधर्म के लिए जीवन अर्पित करने वाले स्वामी नेता के प्रति ध्येय निष्ठा से जोड़ा। यह शिवाजी की उच्च नैतिकता का ही प्रमाण था कि उन्होंने औरंगजेब की कैद के दोैरान जयसिंह के पुत्र राम सिंह को बाध्य किया था कि वह औरंगजेब को उनके संबंध में दी हुई जमानत वापस ले-ले, ताकि उनके निकल जाने पर उन्हें कोई आपत्ति न आए। यह बात अलग है कि फिर भी औरंगजेब ने राम सिंह की जागीर जब्त कर ली और मिर्जा राजा जयसिंह की हत्या विष देकर करवा दी।

स्वाभिमान याने व्यक्ति अभिमान ऐसा भ्रम सिर्फ उस समय ही नहीं, आज भी मौजूद है। बातों-बातों में ही हथियार निकलकर झगड़ा करना, और मरने, मारने के लिए तैयार होना, कुछ ऐसा ही स्वाभिमान उस वक्त था। मध्ययुग में इस तरह के स्वाभिमान को लेकर राजपूत एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते थे। स्वाभिमान का अर्थ ऐसी राष्ट्रघातक व्यक्ति प्रतिष्ठा की जगह राष्ट्रपोषक स्वाभिमान ऐसा शिवाजी ने सिखाया। उन्होंने ‘‘शठं प्रति साठ्यम’’ नीति का पालन कर शत्रुओं को भरपूर मजा चखाया। एकाकी धर्मयुद्ध की जगह दुश्मनों के अनुसार अपनी नीति अपनायी। छत्रपति ने क्षात्रधर्म की संकल्पना को ही बदल दिया। हौताम्य की जगह उन्होने विजयोपासना की सार्थक नीति का प्रचलन किया। साम, दांम, दण्ड और भेद नीति में वह पूरे प्रवीण थे। समयानुसार कब पीछे हटना और कब हमला कर देना, इसके लिए प्रतिमान उन्होने गढे थे। हरेक बार समर संचालन का सूत्र वह अपने पास ही रखते थे। घोड़ों के कमियों की पूर्ति उन्होंने दुश्मनों के घोड़ों से ही की। शत्रु पर अचानक हमला कर उसके संभलने तक फरार हो जाने का तंत्र था उनका गनिमी काबा, (गुरिलायुद्ध) इसी के चलते उनकी छोटी-छोटी टोलियां बडी फौजों को भी ठिकाने लगा सकी। दूर से ही दुश्मनों पर प्रहार कर सके, इस प्रकार से शूल का प्रयोग भी उन्होंने जारी किया। इससे अपने लंबेे तलवारों से प्राप्त मुसलमानों की श्रेष्ठता समाप्त हो गई। दुर्गों की रचना में उन्होंने जो कौशल दिखाया, उसे देखकर अंग्रेज इतिहासकार भी आश्चर्यचकित रह गए।

तस्वीर का दूसरा बड़ा पहलू यह है कि सभी श्रेष्ठ मानवीय आदर्शो को प्रतिष्ठापित करने की परंपरा उन्होने आरंभ की। राज्याभिषेक के पश्चात् प्राचीन भारतीय अष्ट प्रधान पद्धति उन्होने लागू किया। उनका स्वराज हिंदवी और हिन्दू जीवन मूल्यों से ओत-प्रोत होने पर भी स्वराज निष्ठ होने पर मुसलमानों और ईसाइयों को भी पुरूस्कार मिलता था। शत्रु स्त्रियों के बारे में उनका मान-सम्मान, पूज्यभाव लोक विख्यात हैं इस संबंध में कल्याण के सूबेदार के सौन्दर्यवती बहू की घटना सभी को पता है, जिसे पकड़कर लाए जाने पर उन्होने ससम्मान वापस भेज दिया था। इसके साथ कुरान और मस्जिद को कहीं भी अपवित्र न किया जाए, उनके सम्मान और पवित्रता का पूरा ख्याल रखा जाए, इसकी सराहना मुस्लिम इतिहासकारों ने खुले दिल से की है। सेना का आक्रमण करते समय देहातों में खड़ी फसल को हाथ नहीं लगाना, बाजारों में अन्य जैसे ही पैसे देकर समान खरीदना। यदि किसी ने अवज्ञा की तो उसे कठोर सजा। ऐसे कल्याणकारी नीतियां छत्रपति की थी। गोवा को दो बार उन्होंने बुरी तरह से लूटा, लेकिन पादरियों, मौलवियों, महिलाओं, बच्चे को तनिक भी धक्का नहीं लगा। सामान्य जनता, गरीबों को तिल-मात्र भी कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए ऐसा उनका आदेश था। इतना ही नहीं, शहर के परोपकारी धनवानों को भी लूट से मुक्त रखा गया। उनका गुप्तचर विभाग दक्षता से परिपूर्ण था। रायगढ़ से निकले गुप्तचर अति अभेद्य रहस्य का पता कर, शोध लगाकर खोज निकालने में तत्पर और माहिर थे। व्यक्तियों के चयन तथा उनके गुण-परीक्षण में तो छत्रपति बड़े ही निष्णात थे। उनकी न्याय-निष्ठुरता, गुण-ग्राहकता, अनुशासनिक कठोरता आदि सें जनसामान्य की उनके प्रति निष्ठा हजार गुना बढ़ गई। न्याय-निष्ठुरता का आलम यह कि उन्होंने अपने पुत्र संभाजी को भी दण्डित करने से नहीं छोड़ा। इसके बावजूद भी वृत्ति से वह महायोगी। स्वयं का ही कमाया हुआ समूचा राज्य समर्थ रामदास की झोली में डालकर फकीर जैसे निकल जाने को तैयार (राज्य शिवाजी का नहीं, राज्य धर्म का है।) ऐसे स्थितिप्रज्ञ राजर्षि थे वह। अति श्रेष्ठ देशभक्त, संयमी, धर्मशील मातृभक्त, पितृभक्त, गुरूभक्त थे। तभी तो कवि परमानन्द ने संस्कृत में शिवाजी जीवनचरित्र शिवभारत लिखा। कवि भूषण तो हिन्दू छत्रपति का गुणगान करने दौड़ते हुए उत्तर से दक्षिण आ गए थे। ‘‘काशी जी कला जाती, मथुरा मस्जिद होती, शिवाजी न होते तो सुन्नत होती सबकी।’’
स्वयं गुरू समर्थ गुरू रामदास ने ही शिष्य का गौरवगान इस तरह किया –

‘‘आचारशील, विचारशील, न्यायशील, धर्मशील सर्वज्ञ सुशील जाणता राजा (जाणता यानी ज्ञानी)
यशवंत, कीतिवंत, वरदवंत, सामर्थ्यवंत, प्राणवंत, नीतिवंत, जाणता राजा।।’’

आंग्ल तथा पुर्तगाली इतिहासकारों ने शिवाजी की तुलना अल-सिकंदर, सीजर, हॉनिबल जैसे विश्वविख्यांत योद्धाओं से की है। तथापि उन सबको पहले ही सुसज्जित, प्रशिक्षित सेना, राज्य, राजकोष, आदि उपलब्ध थे। लेकिन शिवाजी महाराज ने इन सबका निर्माण बेचारे गरीब मावले के बलवूते किया। दूसरे सभी अवर्णनीय परपीड़न, संहार, अत्याचार, करने में पीछे नहीं हटे, जबकि छत्रपति धर्मान्धता, विध्वंस, इत्यादि का नाश कर, शांति, धर्म, न्याय की प्रतिष्ठापना की। इग्लैण्ड के एक सार्वजनिक संस्था ने ‘‘विश्व का सर्वश्रेष्ठ वीर पुरूष कौन?’’ ऐसा प्रश्न विविध देशों को भेज दिया। अंत में शिवाजी ही उस लोकोत्तर पदवी के लिए सर्वदृष्टि से योग्य पुरूष है, ऐसा उसने निर्णय दिया। तभी तो स्वामी विवेकानन्द जैसे योद्धा सन्यासी ही नहीं, बल्कि महर्षि अरविंद की काव्य प्रतिभा और विश्व कवि रवीन्द्र नाथ टैगोंर की भावपूर्ण रसधारा के लिए भी छत्रपति का स्मरण प्रेरणा स्त्रोत बना।’’नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था कि भारत के स्वातंत्रय समर के लिए एकमात्र आदर्श के रूप मंे आज हमें शिवाजी का स्मरण करना चाहिए। स्वतंत्रता संग्राम के लिए वीर सावरकर, शिवाजी के भावचित्रों के सामने खडे अपने क्रांतिकारी संगठन के सदस्यो को शपथ दिलाते थे। लोकमान्य तिलक ने सामान्य जनता के हृदय में स्वातंत्रय की ज्योति प्रज्वलित करने हेतु शिवाजी उत्सव प्रचलित किया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक केशवराय बलिराम हेडेगवार ने शिवाजी के राज्यारोहण के उत्सव का सही संदेश समाज के मन में पहुंचाने के लिए हिन्दू साम्राज्य दिवोत्सव का रूप देकर प्रचलित किया। आज भी राष्ट्र की जो परिस्थितियां हैं, उनके समुचित समाधान के लिए समर्थ गुरू रामदास के अनुसार –
‘सुमिरन करिए शिवराज के रूप का, सुमिरन करिए शिवराज के प्रताप का।’

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