शिवरात्रि

प्यार क्या है, त्याग क्या है?
इश्क का ये राग क्या है?
दिल में हो गहरी जो कूवत,
तो रेख क्या है, भाग क्या है?

एक बार इक राजकुमारी,
गौरी, सुंदर, अद्भुत प्यारी।
लज्जाशील, कोमल, सुवर्णी,
पंकजपाद, वदनसम तरणि।
देख जिसे निशिकर शर्माये,
तेज पवन‌ छूते घबराए।
मात-पिता की राजदुलारी,
सुनयनी, सत्या, सुकुमारी।

सारे सुख थे राजमहल के,
सुवर्ण पलंग तकिये मखमल‌ के।
हाथी, घोड़े, दास और दासी
सखि, सहेली, अन्त:पुर वाशी।
नाना फल और पाक रसावन,
रत्नजड़ित वस्त्र मनभावन।
दुर्लभ नहीं जिसे सुख सुविधा,
पर मन की अपनी ही दुविधा।

एक जोगी को अपना माना,
बड़ा कठिन‌ जिसे‌ था पाना।
औघड़ रूप, भयंकर वेशा,
डमरु हाथ, जूटसम केशा।
भस्मरमा, बाघाम्बर पहने,
रुंड-मुंड के‌ सजाये गहने।
निर्जन, विकट चहु हिमराशी,
समाधिस्थ, एकान्त वाशी।

ऐसा वर ना स्वप्न में रोचे,
किन्तु ऊमा उसी को सोचे।
कठिन तप, तृण तक ना खायी,
तब पार्वती अपर्णा कहलायी।
हजार वर्ष तपस्या में लागे,
शंकर तब समाधी से जागे।
कामदेव को जिसने जारा,
वो शिव स्वयं प्यार में हारा।

एक अति कोमल सुकुमारी ,
वरण रही शम्भू त्रिपुरारी।
मन में लग्न तपस्या गहरी,
उसके ना कठिनाई ठहरी।
शिव-शक्ति का मेल ये अद्भुत,
हर भक्ति का खेल ये अद्भुत।
अद्भुत पर्व है महाशिवरात्रि,
पिता शम्भू ऊमा है धात्री।।

राजपाल शर्मा ‘राज’

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here