पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के इस दौर में जीवन बहुत ही आपाधापी और भाग-दौड़ वाला हो गया है। मनुष्य दिनभर में अंट-शंट बातें करता है, इधर-उधर की सुनता है और बात-बात पर आलतू-फालतू में अपने विचारों को प्रकट करता है। कोई भी आज की इस दुनिया में ‘मौन’ नहीं रहना चाहता। व्यर्थ की बातें और गप-शप में आदमी अपना जीवन बिताता है। इससे आदमी की ऊर्जा बर्बाद होती है, वहीं आदमी की इच्छाशक्ति, दृढ़ संकल्प और कल्पनाशीलता को स्वयं की ओर पुनर्निदेशित करने में आदमी को बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मौन वह आभूषण है जिससे हम जीवन के प्रवाह में बह सकते हैं। अपनी कल्पनाओं को साकार कर सकते हैं। इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प का विकास कर सकते हैं। जब हम ज्यादा बोलते हैं तो अतिवादी स्थितियों से नहीं बच सकते हैं। मन, शरीर और आत्मा के बीच एक संतुलन स्थापित नहीं हो पाता है। मौन यह सबकुछ कर सकने की क्षमताएं रखता है। मौन हमें आत्मिक शांति, शक्ति का सही रूप में आभास कराता है। आदमी का मन सदैव चंचल है और मौन रहना बहुत ही मुश्किल कार्य है। विचार आदमी को मौन नहीं रहने देते हैं। और विचार एक अनवरत प्रक्रिया है। यहां तक कि स्वप्न में भी विचार अपना स्थान बनाते हैं। मनुष्य गहरी नींद में होता है तब भी विचार उसका पीछा नहीं छोड़ते हैं। मौन अंतरात्मा से साक्षात्कार कराता है। कहते हैं महात्मा बुद्ध को जब ज्ञान हुआ तो वह सात दिन चुप रह गए थे। बोलने का भाव उनमें पैदा ही नहीं हुआ। मौन जीवन का अमृत, जीवन का स्त्रोत है। क्रोध और दुःख के बाद कोई भी व्यक्ति मौन ही की शरण में तो जाता है। ज्ञानी व्यक्ति भी मौन को अपनाता है और वह व्यर्थ में अपनी ऊर्जा का ह्वास नहीं करता है। मौन में शांति है, सुकून है,एक अलग ही प्रकार के आनंद की अनुभूति है। जब भी हमारा मन अशांत हो तो हमें कुछ समय मौन रहना चाहिए और हालातों, परिस्थितियों को अच्छी तरह से समझकर निर्णय लेने चाहिए। इससे निश्चित ही हमारे मन और आत्मा को शांति मिलेगी। अशांत मन हमेशा अधिक प्रश्नशील रहता है और प्रश्नों की अधिकता मानव को परेशान करती है, इसलिए मौन रहकर प्रश्नों की अधिकता, अशांति से बचा जा सकता है। मौन एकाग्रता और सुख-शांति, समृद्धि लाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि मानव मन इन्द्रियों के द्वारा सदैव विषयों में ही सुख की खोज में भ्रमण करता रहता है।विषय भोग की इच्छाएं ही मन की इस अन्तहीन दौड़ का कारण है। बाह्य विषय ग्रहण तथा आन्तरिक इच्छाओं से मन को सुरक्षित रखे जाने पर ही मनुष्य को शान्ति प्राप्त हो सकती है। मौन का अर्थ है -‘मननशीलता।’ मौन मानव को आत्मसंयमी बनाता है। मौन ही व्यक्ति में धैर्यशीलता का विकास करता है।
कहा भी गया है कि “मौनं सर्वार्थ साधनम्।” मतलब यह है कि मौन रहने से सभी कार्य पूर्ण होते हैं। महात्मा गाँधी कहते थे- मौन में अन्तर्शक्ति को जगाने की प्रभावशाली सामर्थ्य होती है।लांगफेलो के अनुसार मौन और एकान्त, आत्मा के सर्वोत्तम मित्र हैं। दार्शनिक बेकन का मत है कि मौन निद्रा के समान है जो विवेक को ताजगी प्रदान करती है। वास्तव में मौन एक साधना है, मूल्यवान निधि और धरोहर है। मौन ही मुनियों, तपस्वियों का असली भूषण है। मौन धारण करने वाला व्यक्ति इन्द्रियों को वश में कर जितेन्द्रिय कहलाता है। मौन ऊर्जा के बिखराव को समेटकर एवं
इसे संग्रहित कर उच्चस्तरीय पुरुषार्थ में नियोजित करने की अभूतपूर्व क्षमताएं रखता है। चिन्तक-मनीषी फ्रेंकलिन ने कहा है- ‘चींटी से अच्छा कोई उपदेश नहीं देता क्योंकि वह मौन रहती है।’ इसलिए जीवन में मौन बहुत ही महत्वपूर्ण है।