छत्रपति संभाजी महाराज का जिस प्रकार मुगलों ने निर्दयता और क्रूरता के साथ वध कर दिया था, उसके परिणामस्वरूप मराठा साम्राज्य के सामने कई प्रकार के प्रश्न आ खड़े हुए थे। सर्वप्रथम स्वराज्य की रक्षा के लिए चल रहे संघर्ष को यथावत बनाए रखने के लिए एक योग्य उत्तराधिकारी के ढूँढने का प्रश्न था, क्योंकि संभाजी महाराज के औरंगजेब की जेल में जाने के पश्चात मुगल कुछ अधिक ही उत्साहित हो गए थे। अब वह हिंदवी स्वराज्य अर्थात मराठा साम्राज्य को छिन्न- भिन्न करने के लिए निर्भय होकर आक्रमण करते जा रहे थे। इनका मुंहतोड़ प्रत्युत्तर देने के लिए कोई ना कोई योग्य शासक होना अपेक्षित था। मुगल हिंदवी स्वराज्य के गढ़, कोट व चौकियों को एक-एक कर अपना ग्रास बनाते जा रहे थे। राजधानी रायगढ़ को भी औरंगजेब के सेनापति जुल्फीकार खान ने घेर डाला था। मराठा साम्राज्य को छिन्न भिन्न करने और बड़े प्रयत्न से तैयार किए गए हिंदवी स्वराज्य की नींव को उखाड़ फेंकने के लिए औरंगजेब स्वयं दक्कन में डेरा डाले बैठा था। उसकी योजना थी कि इस बार वह अपने उद्देश्य में सफल होकर ही दिल्ली लौटेगा। इस बार औरंगजेब दक्षिण की आदिलशाही और कुतुबशाही सहित मराठा शक्तियों का दमन कर दिल्ली लौटना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि इस बार दक्षिण से निश्चिंत होकर वह दिल्ली लौटे तो अच्छा है।
ऐसे भयंकर और कठिनाइयों से भरे हुए समय में छत्रपति शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र राजाराम को राज्य की मंत्रिपरिषद ने अपना राजा नियुक्त किया।
इसमें संभाजी महाराज की रानी येसूबाई एवं स्वराज्य के प्रमुख अधिकारियों ने अपनी स्वतंत्र सहमति प्रदान की और हिंदवी स्वराज्य के हित में एक अच्छा और सराहनीय निर्णय लिया। छत्रपति राजाराम महाराज ने भी बहुत ही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने आप को साहू जी महाराज का प्रतिनिधि मानकर शासन करना आरंभ किया। कहा जाता है कि उन्होंने राजगद्दी पर बैठने से इंकार कर दिया, परंतु हिंदवी स्वराज्य की रक्षा के लिए काम करने पर सहमति प्रदान की। छत्रपति शाहू शंभुजी के पुत्र और शिवाजी महाराज के पौत्र थे जो अपने पिता संभाजी के साथ औरंगजेब की जेल में डाल दिये गए थे। उनके जीवित रहने का अभिप्राय था कि राजा का पद उन्हीं को मिलना चाहिए था, इसलिए राजाराम महाराज ने स्वयं को उनके रहते राजा न मानकर उनका प्रतिनिधि मानकर काम करना आरंभ किया। जब सत्ता स्वार्थ के लिए लोग लड़ रहे हो तब भी निहित स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्र के लिए काम करने के दृष्टिकोण से समकालीन इतिहास की यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है।
साहू जी के बारे में
साहू जिसे शिवाजी द्वीतीय के नाम से भी इतिहास में जाना जाता है, छत्रपति शिवाजी का पौत्र तथा शंभूजी और एसुबाई का पुत्र था। साहू शंभु जी का उत्तराधिकारी था। जिसने राजाराम और ताराबाई के पुत्र शिवाजी तृतीय को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया था। बादशाह औरंगजेब ने शिवाजी द्वीतीय साहू को साधु कहना आरंभ कर दिया था। इसी से उसका नाम साहू हो गया था। साहू ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ की सहायता से मराठा साम्राज्य को एक नवीन शक्ति के रूप में स्थापित किया था। 1689 में रायगढ़ महाराष्ट्र के पतन के बाद साहू और उसकी मां येसूबाई एवं अन्य महत्वपूर्ण मराठा लोगों को कैद कर औरंगजेब के शिविर में नजरबंद कर दिया गया। उस समय वह बालक था और वह बंदी बनाकर मुगल दरबार में लाया गया। उसका भी वास्तविक नाम शिवाजी था, किंतु उसे शिवाजी द्वीतीय के नाम से जाना जाता था। औरंगजेब ने साहू को साधु का नाम दिया और यही साधु शब्द साहू हो गया। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के उपरांत सम्राट बहादुर शाह प्रथम ने उसे मुक्त कर दिया।
छत्रपति राजाराम महाराज ने की घोषणा
छत्रपति राजाराम महाराज ने अपना राज्याभिषेक होते ही मुगलों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए यह भी स्पष्ट कर दिया कि, “मराठों का राज्य नामशेष नहीं हुआ है, इतना ही नहीं, यदि आवश्यक हुआ तो अंतिम समय तक मराठों का शत्रु मुगलों के साथ निश्चयपूर्वक युद्ध जारी ही रहेगा।” इससे औरंगजेब को यह भली प्रकार ज्ञात हो गया कि वह जिस योजना को बनाकर दक्कन में पड़ा हुआ है, उसकी वह योजना इतनी सरलता से संपन्न होने वाली नहीं है। उसे चुनौती देने वाला एक और मराठा महारथी दक्षिण में उत्पन्न हो गया है।
माता एसुबाई के मार्गदर्शन में यह निर्णय लिया गया कि मुगलों को चकमा देते हुए परिवार एवं स्वराज्य दोनों के हित में यह उचित होगा कि राजाराम महाराज कर्नाटक की ओर जिंजी के किले में चले जाएँ और वहाँ से मुगलों के विरुद्ध युद्ध जारी रखें। इस परामर्श को मानकर राजाराम महाराज रायगढ़ से निकलकर प्रतापगढ़ की ओर गए। प्रतापगढ़ से सज्जनगढ़, सातारा, वसंतगढ़ होते हुए पन्हाळगढ पर पहुँचे। वे जहाँ भी गए, वहाँ वहाँ मुगल सेना उनके पीछे लगी रही। शीघ्र ही पन्हाळगढ़ पर भी मुगलों ने अपना घेरा डाला। स्वराज्य की स्थिति दिनोंदिन कठिन बनने लगी। तब पूर्व में ही लिए गए निर्णय के अनुसार राजाराम महाराज ने अपने प्रमुख लोगों के साथ जिंजी की ओर जाने का निर्णय लिया।
औरंगजेब ने अपने गुप्तचरों के माध्यम से यह जानकारी ले ली थी कि राजाराम महाराज जिंजी की ओर जाने की तैयारी कर रहे हैं। अतः उसने दक्षिण के सभी संभावित मार्गों पर अपने थानेदार और सैन्यकर्मी नियुक्त कर दिये। जिससे कि राजा को घेरा जा सके और गिरफ्तार कर उसको भी संभाजी के रास्ते पर ही भेज दिया जाए। इतना ही नहीं उसने राजा को घेरने और समाप्त करने के लिए पुर्तगाली वायसराय को भी सचेत कर दिया था कि राजा जिंजी जाने के लिए समुद्री मार्ग का भी आसरा ले सकता है, इसलिए तुम अपने स्तर पर राजा को जल मार्ग में घेरने का प्रयास करना।
राजाराम महाराज ने अपनाया दूसरा मार्ग
पन्हाळगढ़ के घेरे के जारी रहते हुए ही 26 सितम्बर, 1689 को राजाराम महाराज एवं उनके सहयोगी लिंगायत वाणी का वेश परिधान कर गुप्त रूप से घेरे से बाहर निकले। मानसिंग मोरे, प्रहलाद, निराजी, कृष्णाजी अनंत, निळो मोरेश्वर, खंडो बल्लाळ, बाजी कदम इत्यादि लोग साथ थे। घेरे के बाहर निकलते ही अश्वयात्रा आरंभ हुई। सूर्योदय के समय सभी कृष्णा तट पर स्थित नृसिंहवाडी को पहुँचे। पन्हाळगढ़ से सीधे दक्षिण की ओर न जाकर शत्रु को चकमा देने के लिए महाराज पूर्व की ओर गए। औरंगजेब की जेल से आगरा से निकल भागने के समय छत्रपति शिवाजी महाराज ने भी ऐसी ही चाल चली थी। वे सीधे दक्षिण की ओर न जाकर पहले उत्तर एवं तत्पश्चात पूर्व एवं तत्पश्चात दक्षिण की ओर गए थे। कृष्णा के उत्तर तट से कुछ समय यात्रा कर उन्होंने पुनः कृष्णा पार कर दक्षिण का मार्ग पकड़ा; क्योंकि जिंजी की ओर जाना है, तो कृष्णा को पुनः एक बार पार करना आवश्यक था। यह सब झंझट केवल शत्रु को चकमा देने के लिए था। महाराज की शिमोगा तक की यात्रा गोकाक सौंदत्ती-नवलगुंद-अनेगरी- लक्ष्मीश्वर-हावेरी-हिरेकेरूर-शिमोगा ऐसी हुई।
देश की स्वाधीनता के लिए कितने ही अनपेक्षित कष्टों को सहन करना पड़ता है। परंतु वही देश अपनी स्वतंत्रता की रक्षा भी कर पाता है जो ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों को या स्वतंत्रता प्रेमियों को जन्मता है जो स्वतंत्रता के लिए प्रत्येक प्रकार के कष्ट सहने को तैयार हों। राजाराम महाराज भी उन्हीं वीर स्वतंत्रताप्रेमियों में से एक थे, जो अपनी स्वतंत्रता के लिए और अपने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए प्रत्येक प्रकार के कष्ट सहने को तत्पर होते हैं। अपनी यात्रा को सफल बनाने के लिये उन्होंने बहिर्जी घोरपडे, मालोजी घोरपडे, संताजी जगताप, रूपाजी भोंसले इत्यादि अपने सरदारों को पहले से ही भेजा था। यात्रा करते समय महाराज उनसे मिलते थे। जब राजाराम महाराज अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बहुत दूर निकल चुके थे तब कहीं जाकर मुगलों को इस बात का आभास हुआ कि राजाराम महाराज उनके चंगुल से निकल चुके हैं, तब बादशाह द्वारा भी उन्हें घेरने और पकड़ने के लिए विविध प्रयास किए गए। औरंगजेब बादशाह द्वारा भेजी गई एक सेना वरदा नदी के निकट महाराज के पास पहुँच गई; तब उन्होंने बहिर्जी एवं मालोजी इन बंधुओं की सहायता से शत्रु को चकमा देकर नदी पार की; किंतु आगे मुगलों की अन्य सेना ने उनका मार्ग रोक दिया। तब रूपाजी भोंसले एवं संताजी जगताप जैसे वीर बरछैतों ने (बरछाद्वारा युद्ध करने वाले) विशालकाय पराक्रम द्वारा मुगलों को थाम लिया। ऐसे अन्य कई अवसरों पर राजाराम महाराज अपने वीर सेना नायकों और योद्धा साथियों के सहयोग से मुगलों को चकमा देकर अपनी यात्रा को निरंतर जारी रखते रहे।
रानी चेन्नम्मा से मिली राजाराम महाराज को हर प्रकार की सहायता
रानी चेन्नम्मा भारतीय इतिहास की वह वीरांगना हैं जिनके नाम पर हमारा देश अनंतकाल तक गर्व अनुभव करता रहेगा। वह मार्ग में स्थित बिदनूर की रानी थीं। उन्होंने भी राजाराम महाराज को अपनी ओर से देश की स्वतंत्रता के लिए महान सेवाएं अर्पित कीं, जिनके कारण वह इतिहास में अमर ख्याति को प्राप्त हुईं। राजाराम महाराज को यदि रानी चेन्नम्मा का इस समय सहयोग नहीं मिलता तो संभव था कि वह मुगलों को इस स्थान पर चकमा देने में सफल नहीं हो पाते। रानी को जैसे ही पता चला कि उसके राज्य से राजाराम महाराज सुरक्षित निकलकर जिंजी जाना चाहते हैं तो उन्होंने उन्हें सुरक्षित निकलने का न केवल रास्ता दिया अपितु उनका हर संभव सहयोग भी किया। यद्यपि वह जानती थीं कि इस सहयोग करने का अभिप्राय होगा औरंगजेब बादशाह की शत्रुता मोल लेना, परंतु उन्होंने इस सबके उपरांत भी यह कार्य इसलिए किया कि वह शिवाजी महाराज के स्वतंत्रता प्रेमी कार्यों और महान देशभक्ति से भरे जीवन से बहुत अधिक प्रभावित थीं। उनके भीतर देशभक्ति की भावना भरी थी और वह प्रत्येक स्थिति में शत्रु औरंगजेब को समाप्त कर हिंदवी स्वराज्य की सुरक्षा करने को अपना राजधर्म मानती थीं। रानी की इस सहायता के कारण ही मराठा राजा अपने सहकारियों के साथ तुंगभद्रा के तट पर स्थित शिमोगा में सुरक्षित पहुँचे। जैसे ही औरंगजेब को यह पता चला कि राजा के शिमोगा तक पहुँचने में रानी चेन्नम्मा ने विशेष सहयोग दिया है तो उसने एक विशाल सेना रानी को उसके इस देशभक्ति पूर्ण कार्य का दंड देने के लिए भेजी।
रानी चेन्नम्मा के बारे में
कर्नाटक के केलाड़ी साम्राज्य की रानी चेन्नम्मा का भारतीय इतिहास में बहुत ही सम्मानजनक स्थान है। केलाड़ी साम्राज्य को ही बिदनूर के नाम से भी इतिहास में जाना जाता है। इसका गठन विजयनगर साम्राज्य के पतन के पश्चात हुआ था। 1667 में रानी चेन्नम्मा का विवाह राजा सोमशेखर नायक के साथ हुआ था। राजा सोमशेखर की मृत्यु 1677 में हो गई थी। उसके पश्चात चेन्नम्मा ने केलाड़ी नायक वंश के प्रशासन को अपने हाथों में लिया और बड़ी कुशलता से शासन करने लगी। 25 वर्षों के अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने औरंगजेब जैसे क्रूर शासक से टक्कर ली और उसकी सेना को अपने राज्य से खदेड़ दिया था। उन्होंने बसप्पा नायक को गोद लिया था जो उनके निकट के संबंधी थे। आगे चलकर हिरिया बसप्पा नायक के रूप में इतिहास में स्थापित किया गया। इसी रानी’ ने राजाराम महाराज को अपनी सहायता प्रदान की और औरंगजेब के हमले की धमकी से भी आक्रांत नहीं हुई। शिवाजी के पुत्र राजाराम छत्रपति ने जब उनसे आश्रय मांगा तो उन्होंने अपने मंत्रीगण के साथ बैठक कर उन्हें आश्रय देते हुए उनका सम्मान भी किया। उसके पश्चात औरंगजेब ने केलाड़ी पर हमला कर दिया। जिन्होंने बिना हार के युद्ध लड़ा और मुगलों के साथ चला यह युद्ध एक संधि के साथ कालांतर में समाप्त किया। केलाड़ी की रानी चेन्नम्मा भारतीय इतिहास में वीरता शौर्य और साहस की प्रतीक एक वीरांगना के रूप में अमर हो गई।
‘ लड़े वो वीर जवानों की तरह
ठंडा खून फौलाद हुआ,
मरते मरते भी शत्रु मार गिराए
तभी तो देश आजाद हुआ।’
द्वीप पर मुगल सेना का आक्रमण
राजाराम महाराज अपनी ओर से पूर्ण सावधानी बरतते हुए यद्यपि तुंगभद्रा के तट तक पहुँच गए थे, परंतु शत्रु भी उनका पीछा करता आ रहा था। अतः राजा का सावधान रहना बहुत आवश्यक था। पता नहीं शत्रु कब उन पर अपनी ओर से आक्रमण कर दे? ऐसी ही स्थिति, परिस्थितियों, शंका-आशंकाओं के मध्य एक दिन मध्यरात्रि को मुगल सेना की एक बडी टुकड़ी द्वारा उन पर आक्रमण कर ही दिया गया। औरंगजेब की इस सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व बीजापुर का सूबेदार सय्यद अब्दुल्ला खान कर रहा था। औरंगजेब बादशाह के आदेश से ही उसका सेनापति अब्दुल्लाह निरंतर 3 दिन और 3 रात चल कर यहाँ तक पहुँचा था। आक्रमण की भनक लगते ही सतर्क मराठा वीर सावधान हो गए और अपने राजा की रक्षा के लिए युद्ध करने लगे। हमारे वीर मराठे मरने मारने के लिए कटिबद्ध होकर भयंकर युद्ध करते जा रहे थे, शत्रु सेना का साहस टूटता जा रहा था। इस सब के उपरांत भी इस युद्ध में हमारे वीर मराठों को बड़ी क्षति उठानी पड़ी। अनेकों वीर योद्धा इस युद्ध में मारे गए, जबकि अनेक बंदी बना लिए गए। उन बंदियों में से एक बंदी को देखकर अब्दुल्लाह को ऐसा लगा कि जैसे यह राजाराम स्वयं है? तब उसने प्रसन्नता में अपने औरंगजेब बादशाह के पास यह संदेश भी भिजवा दिया कि उसने राजा को गिरफ्तार कर लिया है। उधर औरंगजेब ने भी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी ओर से एक सेना इस बात के लिए भेज दी कि वह सुरक्षित रूप से राजा को औरंगजेब के पास ले आये। परंतु कुछ ही समय पश्चात अब्दुल्लाह खान को अपनी भ्रांति का समाधान हो गया, वह राजाराम स्वयं न होकर हमारा एक मराठा सैनिक था जो राजा का भेष बनाए हुए था।
जिसने शत्रु को चकमा देने के लिए ऐसा नाटक किया था। सचमुच हमारे ऐसे वीर योद्धाओं के नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखे जाने योग्य हैं, जिन्होंने देश व धर्म की रक्षा के लिए सहर्ष अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था। बादशाह औरंगजेब राजाराम महाराज को पकड़ नहीं पाया और इस युद्ध के उपरांत भी वह अपने उद्देश्य में सफल ना हो सका।
राजा हो गया सावधान
राजाराम महाराज और उनके वीरयोद्धा सहयात्रियों ने यहाँ तक की यात्रा घोड़ों से की थी और यह स्वाभाविक था कि घोड़ों से यात्रा करने वाले यात्रीदल की भनक शत्रुपक्ष को बड़ी सहजता से लग सकती थी। बहुत बौद्धिक चातुर्य बरतने के उपरांत भी सचमुच राजा की ओर से यह असावधानी रही कि वह अपनी यात्रा घोड़ों से कर रहे थे, अब उन्होंने अपनी यात्रा में परिवर्तन किया और यात्री, बैरागी, कार्पाटिक, व्यापारी, भिखारी जैसे विभिन्न प्रकार के वेषांतर कर अपनी यात्रा जारी रखी। बादशाह औरंगजेब की चौकियों और सैन्य कर्मियों को चकमा देते हुए अंत में बैंगलोर पहुँच गए। यहाँ पर राजा को जब कुछ लोगों ने अपने सेवकों से पैर धुलवाते हुए देखा तो उनके मन मस्तिष्क में यह विचार आया कि यह कोई ना कोई विशिष्ट व्यक्ति है। अतः उन्होंने इस व्यक्ति के यहाँ तक पहुँचने की सूचना मुगल सैनिकों को दी कि हो ना हो यह राजाराम ही हों? इस पर राजाराम महाराज के साथी सावधान हो गए, परंतु तब तक सूचना औरंगजेब के लोगों तक पहुँच चुकी थी। ऐसे में खंडो बल्लाळ ने आगे बढ़कर महाराज से उक्त स्थान से अन्यत्र निकल जाने की विनती की, जिसे महाराज ने स्वीकार कर लिया और वह वहाँ से दूसरे स्थान के लिए प्रस्थान कर गए।' इधर थानेदार ने छापा डाला एवं खंडो बल्लाळ व उनके अन्य कई साथियों को गिरफ्तार कर थाने में ले गया।
वहाँ ले जाकर थानेदार ने खंडो बल्लाल व उनके साथियों पर अमानवीय और क्रूर अत्याचार किए। उन पर कोड़े बरसाए गए। मुंह में तोबड़े थामें गए और अन्य अमानवीय यातनाएँ देकर उनसे यह राज उगलवाने का प्रयास किया गया कि राजाराम महाराज किधर गए हैं? परंतु वह इन सब घटनाओं को सहन करने के उपरांत भी अपने राजा के बारे में कुछ भी बताने को तत्पर न हुए। वह केवल इतना ही कहते रहे कि, "हम तो यात्री हैं, हमें कुछ पता नहीं। अंत में थानेदार को यह विश्वास हो गया कि यह लोग यात्री ही हैं और इन्हें राजाराम महाराज के बारे में कोई जानकारी नहीं है, तब उसने उनको छोड़ दिया।
सचमुच धन्य हैं हमारे ऐसे वीरयोद्धा, जिन्होंने हिंदवी स्वराज्य के लिए इतने अमानवीय अत्याचारों को सहन करके भी अपनी स्वामीभक्ति और देशभक्ति का परिचय दिया। सचमुचः आज यदि हम स्वतंत्र हैं तो ऐसे बीर योद्धाओं के बलिदानों स्वामीभक्ति, देशभक्ति और धर्मभक्ति के कारण ही स्वतंत्र हैं। अपनी स्वतंत्रता में दिए गए उनके योगदान को यदि हम भुलाते हैं तो निश्चय ही उनके साथ हम कृतघ्नता का व्यवहार करने के दोषी होंगे।
राजाराम महाराज पहुंचे अम्बुर
महाराज राजाराम स्वतंत्रता के लिए कष्ट सहते हुए इस समय महाराणा प्रताप शिवाजी और उन जैसे अन्य उन वीरयोद्धाओं के दिखाए गए मार्ग का अनुकरण कर रहे थे, जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अनेकों कष्ट सहे, परंतु शत्रु के सामने कभी शीश नहीं झुकाया। अपनी उसी वीर परंपरा का निर्वाह करते हुए राजा राम महाराज निरंतर अपने गंतव्य की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। राजाराम महाराज यह भली प्रकार जानते थे कि समय-समय पर जब इस देश में कोई महाराणा प्रताप या शिवाजी हुआ है और उसने अपना सिर न झुकाने का संकल्प लेकर शत्रु को चुनौती दी है तो उसके पीछे उसकी एक ही भावना रही है कि वह उस समय इस संपूर्ण भारतवर्ष के सम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक बन चुका था। अतः उसके सिर के झुकने का अभिप्राय था कि संपूर्ण हिंदू जाति शत्रु के सामने झुक गई। आज राजाराम इस स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ा रहे थे, परंतु उन्हें अपना दायित्वबोध था। इतना ही नहीं उन्हें इतिहास बोध भी था, जातिबोध, धर्मबोध और कर्तव्यबोध आदि से भरे हुए हृदय को लेकर वह वीर योद्धा निरंतर अपने गंतव्य की ओर बढ़ता रहा। बंगलुरू के पूर्व की ओर 65 मील की दूरी पर अंबुर नामक स्थान पर वे पहुँचे। अंबुर थाना मराठों के अधिकार में था तथा वहाँ बाजी काकड़े नामक मराठा सरदार का पड़ाव था। अपने महाराज का यथोचित सम्मान किया और इस बात से उन्हें निश्चित किया कि अब आप खुले रूप में यहाँ पर रहे। अतः अब महाराज प्रकट रूप से अपनी सेना सहित अंबुर से वेलोर की ओर निकले। वेलोर का किला भी मराठों के अधीन था। 28 अक्टूबर को महाराज वेलोर पहुँचे। पन्हाळगढ़ से वेलोर पहुँचने के लिए उन्हें लगभग 33 दिन लगे। वेलोर के निवास में कर्नाटक के कुछ सरदार अपनी सेना के साथ उन्हें आकर मिले।
जिंजी किले के बारे में
जिंजी किले को स्वयं शिवाजी महाराज ने अभेद्य बनाया था। तभी से यह अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण विख्यात था। इसके बारे में यह भविष्यवाणी की गई थी कि यदि भविष्य में कभी किसी मराठा राजा के सामने कोई किसी प्रकार की आपत्ति आई तो यह किला ही उसको सुरक्षित रख पाएगा और अब वही स्थिति आ चुकी थी कि राजाराम महाराज को यह किला ही अपनी सुरक्षा के लिए उत्तम जान पड़ रहा था। संपूर्ण हिंदू जाति के प्रतीक वीर राजाराम महाराज अब इस किले की ओर बढ़ने लगे थे। जब राजाराम महाराज जिंजी किले के निकट पहुँचे तो वहाँ उन्हें अपनी ही सौतेली बहन से चुनौती मिली। यह किला कर्नाटक में मराठों के प्रमुख सूबेदार संभाजी राजा के समय हरजी राजे महादिक के अधीन था। कुछ समय पहले ही उनका देहांत हुआ था। उनकी पत्नी अर्थात राजाराम महाराज की सौतेली बहन हरजी राजा के पश्चात स्वयं स्वतंत्र होकर शासन कर रही थी। उसने जिंजी की ओर से राजाराम महाराज का सामना करने का प्रयास किया, परंतु उसी के लोगों ने उसे सही समय पर समझा दिया और वह युद्ध का विचार त्याग कर राजाराम महाराज को किला सौंपने के लिए तैयार हो गई। जिंजी में मराठों ने राजाराम महाराज के पक्ष का समर्थन किया। अंत में अंबिकाबाई को अपने भाई का सम्मान करने के लिए जिंजी का द्वार खोलना पड़ा। नवंबर 1689 के पहले सप्ताह में राजाराम महाराज अपने वीर योद्धाओं के साथ जिंजी किले में पहुँचे। इस प्रकार जिंजी की यात्रा का अंत सुखदायी हुआ। राजा अपने गंतव्य स्थान पर सुरक्षित पहुँच गए और मुगल शासक औरंगजेब व उनके सैनिक उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। यदि इतिहास में गांधीजी की 'दांडी यात्रा' स्वतंत्रता के लिए की गई एक विशिष्ट और प्रसिद्ध यात्रा है तो राजाराम महाराज की यह जिंजी यात्रा क्यों नहीं प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण मानी जा सकती ? जिंजी में पहुँचकर राजाराम महाराज ने यहीं से शासन करने का विचार किया और इसे अपनी राजधानी बनाया। जिससे जिंजी के लोगों ने हर वर्ष एक नए पर्व को मनाना आरंभ किया।
मराठों का मुगलों के साथ संघर्ष
आगे चलकर एक समय ऐसा भी आया जब औरंगजेब जिंजी किले को जीतने में भी सफल हो गया। परंतु तब तक राजाराम महाराज संपूर्ण दक्षिण भारत में औरंगजेब के विरुद्ध वातावरण बनाने के लिए निकल चुके थे।
तब औरंगजेब ने जिंजी को अधिकार में लेकर राजाराम महाराज को बंदी बनाने हेतु जुल्फीकार खान को यह दायित्व सौंपा। वह अपने पूरे दल बल के साथ जिंजी पहुँच गया। उसने वहाँ जाकर जिंजी के किले का घेरा डाल दिया। उसका यह घेरा निरंतर अगले 8 वर्ष तक जारी रहा, परंतु उसे सफलता नहीं मिली। हमारे मराठा योद्धा बहुत ही वीरता और साहस के साथ अपने किले और अपने महाराज की रक्षा में सन्नद्ध रहे। इस अवधि में रामचंद्र पंडित, शंकराजी नारायण, संताजी, धनाजी जैसे योद्धाओं ने राजाराम महाराज के नेतृत्व में मुगलों के साथ कड़ा संघर्ष किया। संताजी-धनाजी ने इसी कालावधि में अपने बौद्धिक चातुर्य और कूटनीति का परिचय देते हुए मुगलों को नाकों चने चबाने का सराहनीय और देशभक्ति पूर्ण कार्य किया।
जिसके परिणामस्वरूप नाशिक से लेकर जिंजी तक मराठी सेना स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने लगी। परंतु शत्रु के साधन असीमित थे और हमारे योद्धाओं के पास सीमित साधन थे। ऐसे में 1697 में जाकर जुल्फीकार खान को सफलता मिली और जिंजी का किला उसके नियंत्रण में आ गया। यद्यपि हमारे वीर योद्धाओं ने एक बार फिर इतिहास रचा और इससे पहले कि राजाराम महाराज शत्रु के हाथ लगते, उन्होंने अपने महाराज को वहाँ से सुरक्षित पहले ही निकाल दिया। राजाराम महाराज के भीतर अपने जिन पूर्वजों का रक्त संचरित हो रहा था, उसके चलते वह झुकने को कदापि तैयार नहीं थे। परंतु अब उनका स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था। लंबे काल से वह थकाऊ यात्रा और दीर्घकालीन युद्धों के कारण कुछ अस्वस्थ रहने लगे थे। यद्यपि अभी भी वह महाराष्ट्र में मुगलों के विरुद्ध धूम मचाते घूम रहे थे और मुगल उन्हें गिरफ्तार करने में अपने आप को अक्षम और असमर्थ पा रहे थे। शत्रु के प्रदेश में आक्रमण करते समय सिंहगढ़ पर फागुन कृ. नवमी, शके 1700 को उनका निधन हो गया।
राजाराम महाराज भारत के इतिहास में अमर रहेंगे, क्योंकि उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी अपने पूर्वजों की पताका को झुकने नहीं दिया और स्वतंत्रता व स्वराज्य के लिए जिस प्रकार उनके पूर्वजों ने संघर्ष किया था, उसी संघर्ष की ध्वजा को लिए वह आगे बढ़ते रहे। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक भारत की स्वतंत्रता और स्वराज्य के लिए संघर्ष किया और इन्हीं दोनों आदर्शों के लिए अपने जीवन को होम कर दिया।
डॉ राकेश कुमार आर्य