कुलदीप विद्यार्थी
आपस के रिश्ते जब से व्यापार हुए।
बन्द सभी आशा वाले दरबार हुए।
जिसको इज्ज़त बख्सी सिर का ताज कहा
उनसे ही हम जिल्लत के हकदार हुए।
मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारों में उलझे हम
वो शातिर सत्ता के पहरेदार हुए।
जिस-जिसने बस्ती में आग लगाई थी
देखा है वो ही अगली सरकार हुए।
आसान है इंसान को कुत्ता कह देना
हम भाषा वाले कितने लाचार हुए।
मायूसी के बाद हँसी जब लोटी तो
मुझसे सारे अपने ही बेज़ार हुए।