श्रीलंका में सिंहल-सिंहल संग्राम

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद और यहां तक कि उसके संविधान की जैसी दुर्गति आजकल हो रही है, पहले कभी नहीं हुई। मुझे वह 40 साल पुराना जमाना याद है जब श्रीमती श्रीमावो बंदारनायक और विरोधी नेता प्रेमदास के बीच कटुतम सार्वजनिक वार्तालाप हुआ करता था लेकिन तब भी श्रीलंका की संवैधानिक मर्यादा का पालन किया जाता था लेकिन आज तो उसकी हर संवैधानिक संस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है। अब जबकि श्रीलंका की संसद ने महिंद राजपक्ष के विरोध में अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया है, तब भी वे अपने पद पर टिके हुए हैं। यह तथ्य राष्ट्रपति श्रीसेन के मुंह पर कालिख पोत देता है। उन्होंने ही संविधान की धारा का दुरुपयोग करके प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ को बर्खास्त कर दिया था और संसद को इसलिए भंग कर दिया था, क्योंकि राजपक्ष के पक्ष में वे पर्याप्त सांसदों को नहीं जुटा पाए थे। लेकिन श्रीलंका के सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के इस कदम को गैर-कानूनी बताया और संसद फिर जी उठी। अब इस पुनर्जीवित संसद ने राजपक्ष को हरा दिया। यदि राजपक्ष को श्रीसेन अब भी घर नहीं बिठाएंगे तो उन्हें खुद जाना पड़ेगा। उनके खिलाफ श्रीलंका में भयंकर जनमत खड़ा हो गया है। राजपक्ष खुद इतने बड़े उस्ताद हैं कि उन्होंने श्रीसेन को छोड़कर अपनी अलग पार्टी खड़ी कर ली है। गनीमत है कि इस मौके पर श्रीलंका की फौज तख्ता-पलट की नहीं सोच रही है। यदि फौज राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों को गिरफ्तार कर ले तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। इस सारे घटना-क्रम में श्रीलंका के सांसदों और जजों ने जिस ऊंचे चरित्र का परिचय दिया है, वह दक्षिण एशिया के सभी देशों के लिए अनुकरणीय है। राष्ट्रपति श्रीसेन के पास इस समय सिर्फ एक ही विकल्प है कि अपने क्रोध पर काबू करें और रनिल विक्रमसिंघ को दुबारा प्रधानमंत्री पद लेने दें। यह कितने दुर्भाग्य का विषय है कि श्रीलंका में कई दशकों से चला आ रहा सिंहल-तमिल संग्राम बंद हुआ तो अब सिंहल-सिंहल संग्राम शुरु हो गया है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,710 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress