चैतन्य प्रकाश
शाम के धुंधलके में घोंसले की ओर लौटते पंछियों की व्यग्रता, भीतर से उठती उदासी और पत्तों की हल्की-हल्की सरसराहट के बीच फलक पर कभी इन्द्रधनुष दिख जाता है तो आत्मा के तल पर एक नैसर्गिक आनंद की अनुभूति होती है।
रंगों का प्राकृतिक वैविध्य सौन्दर्य रचता है। संसार को रंगमंच कहकर पुकारा गया है। दिल और दिमागों के खूबसूरत ख्वाबों से रंगीन होती जाती दुनिया की चमक से हमारी आंखें सर्वथा परिचित हैं। प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों की अभिव्यक्तियों में रंगों की भूमिका लाजवाब है। नीला आकाश काले सफेद बादलों को जिस तरह अपने विराट अंक में आंख-मिचौली खेलने की आजादी देता है, ठीक वैसे ही गहरी नीलिमा से भरा सागर लहरों के धवल फेनों को भरपूर मचलने का मौका देता है।
सपाट मैदानों में बिछी हरी घास की खूबसूरत चादरें सुंदरता के प्रतिमान रचती हैं, वहीं पहाड़ की तलहटियों में पत्थर और चट्टानों की संगति में खिलखिलाते छोटे-बड़े फूलों की रूप ज्योति आंखों को पल भर ठहर कर रूप रस पान करने का सहसा न्यौता देती है। प्रकृति के सौन्दर्य में गहराई और सहजता दोनों हैं। शायद, इसीलिए प्राकृतिक सौन्दर्य अनुपम और अद्भुत होते हुए भी चित्त को शांत करता है।
प्रवृत्ति जनित सौन्दर्य राहों, चौराहों और बाजारों के अलावा दीवारों और रूपहले पर्दों पर अनेकविध तकनीकों के जरिए रात-दिन प्रदर्शित, प्रसारित और विज्ञापित किया जाता है। कला और विज्ञान में कोई एक समान बिंदु खोजा जाए तो वह शायद ‘प्रदर्शन’ होगा। अब तो अर्थव्यवस्था, राजनीति और सामाजिकता तीनों के प्राण भी प्रदर्शन रूपी तोते में ही अटके नजर आते हैं।
दुनिया भर के खेलों के उत्साह और उन्माद में भी प्रदर्शन एक सर्वोपरि प्रेरक शक्ति की तरह समाया प्रतीत होता है। अगर संसार रंगमंच है तो प्रदर्शन तो होगा ही, फिर प्रदर्शन से परहेज क्यों? प्रदर्शन की निंदा क्यों? नीति, मूल्यों और आदर्शों के पैरोकार प्रकृति की अभिव्यक्ति (प्राकृतिक सौंदर्य) से रोमांचित होते हैं मगर प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति (प्रवृत्तिजनित सौन्दर्य) पर नाराज नजर आते हैं। अश्लीलता कहकर वे उसकी निन्दा करते हैं। आखिर वह प्रदर्शन के सिवा और क्या है?
आखिर आंखों को रूचिकर लगने वाले नैसर्गिक दृश्यों की तरह सांसारिक दृश्यों की दृग-रोचकता भी स्वीकार की जानी चाहिए। पुरूष और स्त्री की देह का सौंदर्य भी तो निसर्ग प्रदत्त है जैसे-वृक्षों, पौधें, घास, फूल-पत्तों, आकाश और सागर का सौंदर्य निसर्गजनित है। शायद इसीलिए भारतीय कला और संस्कृति का मूल भाव शारीरिक सौंदर्य के प्रति सहजता एवं स्वीकार्यतापरक है।
अध्यात्म के उदात्त साधक भी इस सौंदर्य के प्रति नकार और निंदा का भाव नहीं रखते बल्कि, मिट्टी के पात्रों के मोहक सौंदर्य की तरह देह रूपी मिट्टी के सौंदर्य के क्षण-भंगुर होने के सत्य की वे घोषणा जरूर करते हैं। चर्च के शुद्धतावादी दर्शन और शाही सल्तनत के हरमों में पर्दापरस्ती का बड़ा जोर रहा है। विक्टोरियन युग के लंबे लटकते हुए नारी पहनावे और बेगमों, रानियों की पोशाकों में एक मनोवृत्तिगत समानता है जो आधुनिक बाजारवादी व्यवस्था तक गहरे में पैठी नजर आती है।
यह मनुष्य देह को वस्तु की तरह जानने, मानने की मनोवृत्ति है। साम्राज्यवादी एवं एकाधिकारवादी व्यवस्थाओं में दार्शनिक और चिंतकों ने दास प्रथा को सैद्धांतिक मान्यता भी दी थी। उन व्यवस्थाओं में पुरूषों का दासत्त्व घोषित, औपचारिक और मान्यता प्राप्त था। किन्तु, स्त्री दासता अघोषित एवं अनौपचारिक थी। औपचारिक और घोषित दासत्व समाप्त हो गया लेकिन अघोषित दासत्व ‘प्रदर्शन’ के बहाने इक्कीसवीं सदी के बाजारों की शोभा बना हुआ है।
प्रकृति अपनी स्वतंत्रता से खिलती है। अपनी मर्यादा से सजती है। मगर सदा अपने स्रोत से अविच्छिन्न रहती है। प्राकृतिक सौंदर्य सहज है। प्रायोजन और आयोजन से परे है। प्रवृत्तिजनित सौन्दर्य स्वार्थमूलक है, शोषणमूलक है, सतही है। प्रायोजन एवं आयोजन के दबावों से घिरा और दबा है। इसीलिए वह असहज है, अभिनयपरक है।
प्राकृतिक सौंदर्य शांतिदायी है, वहीं प्रवृत्तिजनित सौंदर्य मोहक, मादक, उत्तेजक और अशांतिपरक है। फूल को तोड़कर बाजार में बेचने से वह सुषमा एवं सुगंध दोनों खो बैठता है, वैसे ही बाजारों में बिकने को तैयार सौंदर्य अपनी सुषमा और सुगंध बीत जाने के खतरों से आक्रांत है। आखिर स्रोतों से विच्छिन्न जीवन कब तक खिला रह सकता है?