उम्मीद किया जा रहा था कि रुस के प्रमुख शहर सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन के सदस्य देश ऐसे किसी ठोस आर्थिक नतीजे पर पहुंचेगें जिससे वैश्विक आर्थिक अफरातफरी का माहौल खत्म होगा और विकासशील देशों को मंदी से निपटने और अपनी मुद्रा की साख बढ़ाने में मदद मिलेगी। लेकिन सीरिया संकट पर माथापच्ची और अमेरिका और रुस की खेमाबंदी ने शिखर सम्मेलन के मूल मकसद को पीछे ढकेल दिया। जबकि इन दोनों वैश्विक आर्थिक महाशकितयों की जिम्मेदारी बनती थी कि वे आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए बेहतरीन रोडमैप तैयार करें ताकि अर्थव्यवस्था को गति मिले और वैश्विक बाजार में चहल-पहल बढ़े। लेकिन वे अपनी जिम्मेदारियों को निभाने के बजाए आपस में उलझते देखे गए। बावजूद इसके अच्छी बात यह है कि सेंट पीटर्सबर्ग शिखर सम्मेलन में कुछ मसलों पर जरुर सहमति बनी है जो सभी सदस्य देशों के हित में है। मसलन जी-20 के सभी सदस्य देशों ने वैश्विक व्यापार और निवेश रास्ते में आने वाली अड़चनों और रुकावटों को दूर करने का संकल्प पुन: दोहराया है। सदस्य देशों के बीच इस बात पर भी सहमति बनी है कि उन्हें नीतिगत समन्वय और सहयोग की दिशा में मिलकर काम करना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी सहमति जतायी है कि वैश्विक वित्तीय बाजार की स्थिरता के लिए मुद्रानीति को और भी प्रभावी बनाया जाने की जरुरत है ताकि वैश्विक बाजार में ज्यादा उथल-पुथल न मचे। सम्मेलन की समापित पर जारी 27 पृष्ठ के घोषणापत्र में सभी सदस्य देशों ने नए संरक्षणवादी उपायों को वापस लेने के साथ ही कर नियमों को बेहतर बनाने का भी संकल्प ।निश्चित रुप से अगर इस पर अमल हुआ तो कर्इ देशों में काम करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने मुनाफे को ट्रांसफर प्राइसिंग के जरिए कम कर वाले देशों में ले जाने का मौका नहीं मिलेगा और इसका फायदा विकासशील देशों को मिलेगा। इसलिए कि मुनाफे पर कर उसी जगह लगाना होगा जहां आर्थिक गतिविधियां, मुनाफा और कारोबार हुआ है। जी-20 सदस्य देशों ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के समक्ष जिन 8 मुख्य चुनौतियों पर फोकस डाला है उनमें प्रमुख रुप से कमजोर वृद्धि, उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में रोजगार संकट, धीमी वृद्धि के अलावा यूरोप में वित्तीय बाजार के बिखराव के मददेनजर बैंकिंग यूनियन को निर्णायक ढंग से लागू करने की चुनौती है। पूंजी प्रवाह में व्यापक उतार-चढ़ाव, कठिन वित्तीय हालात और उपभोक्ता वस्तुओं के दाम में घट-बढ़ को भी चुनौती के तौर पर स्वीकारा गया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि आंतरिक जटिलताओं और बाजार में अनिषिचतता के कारण ने केवल विकासशील देशों बलिक विकसित देशों में भी निजी निवेश कम हुए हैं। जी-20 में इस बात पर भी सहमति बनी है कि उन देशों में जहां जीडीपी के समक्ष अनुमानित और वास्तविक ऋण काफी ऊंचा है वहां आर्थिक सुधारों का समर्थन दिया जाना चाहिए। लेकिन सवाल यह कि क्या जी-20 में गिनायी गयी चुनौतियों से निपटने की दिशा में ठोस पहल होगा? कहना अभी कठिन है। इसलिए कि इस तरह के विचार हर शिखर सम्मेलन में व्यक्त किए जाते रहे हैं लेकिन विकसित देश उन्हीं आर्थिक नीतियों को अंगीकार करते हैं जिसमें उनका व्यापक फायदा निहित होता है। याद करना होगा कि 19-20 जून 2012 को मैकिसको के लास काबोस के सम्मेलन में ढे़रों आर्थिक नीतिगत निर्णय लिए गए। वर्तमान आर्थिक मंदी से बाहर निकलने और विश्व में रोजगारोन्मुख माहौल निर्मित करने के लिए सरकारी खर्च और वित्तीय अनुशासन के मध्य संतुलन स्थापित करने पर जोर दिया गया। लेकिन सच्चार्इ है कि जी-20 के सदस्य देशों ने इस नीति पर अमल नहीं किए। ग्रीस द्वारा तो वित्तीय अनुशासन के लिए कठोर निर्णय भी लिए गए लेकिन हालात में बदलाव नहीं दिखा। इस सम्मेलन में यह विचार व्यक्त किया गया कि इंट्रीगेशन बैंकिंग के अभाव में प्रत्येक देश अनुमान आधारित मौद्रकि नीति तय करते हैं जिससे आर्थिक हालात डावांडोल हो जाते हैं। लेकिन आज तक इस पर अमल नहीं हुआ। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश ने कोटा अधिकार बढ़ाने एवं संगठन में संस्थागत सुधार करने की मांग पूरा करने की भी प्रतिबद्धता जतार्इ। लेकिन यह एक कड़वी सच्चार्इ है कि वह इस दिशा में दो कदम भी आगे नहीं बढ़ा है। भारत के जोर दिए जाने के बाद भी अवसंरचना के क्षेत्र में निवेश को शामिल किया गया और विकासशील देशों को इसके लिए चुना गया। लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम अभी तक देखने को नहीं मिले हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सेंट पीटर्सबर्ग में जी-20 शिखर सम्मेलन में जिन मुददों पर सहमति बनी है या घोशणापत्र में जिन बिंदुओं का उल्लेख किया गया है उसका अनुपालन होगा? क्या सदस्य देश भविश्य में विकास व रोजगार के लिए एकीकृत वैश्विक आर्थिक नीतियों पर आगे बढ़ेंगे? क्या वे वित्तीय और श्रम बाजार पर एमजेजे।ईझ म्यनुब्न्नवअजजी हपना सकारात्मक दृशिटकोण दिखाएंगे? यह कहना कठिन है। विकासशील देशों को लेकर विकसित देशों की नीयत कभी भी अच्छी नहीं रही है। विकासशील देश एक अरसे से दबाव बना रहे हैं कि विकसित देश अपनी आर्थिक नीतियों को बनाते वक्त उनके हितों का भी ध्यान रखें। लेकिन वे स्वार्थपूर्ण आर्थिक नीतियों का मोह त्यागने को तैयार नहीं हैं। लेकिन उन्हें समझना होगा कि जी-20 देशों की उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों की आर्थिक हालात में सुधार किए बगैर वैश्विक अर्थव्यवस्था में सकारात्मक बदलाव नहीं आने वाला। जब विकसित देश इस बात को महसूस करेंगे कि उदारीकरण के इस दौर में सभी देशों की आर्थिक हालात और समस्याएं भले ही अलग-अलग हों लेकिन अर्थव्यवस्थाएं आपस में जुड़ी हुर्इ हैं तभी जाकर बात बनेगी। और सच भी यही है कि इन्हीं उददेष्यों को हासिल करने के लिए जी-20 समूह का गठन हुआ। गौरतलब है कि जी-20 औधोगिक एवं उभरती अर्थव्यवस्था वाले विश्व के 19 बड़ी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं और यूरोपिय संघ के वित्त मंत्रियों और केंद्रयि बैंकों के गवर्नरों का समूह है जो वैश्विक आर्थिक स्थिरता से जुड़े प्रमुख मुददों पर रचनात्मक बहस को प्रोत्साहित करता है। इसका गठन 1997-99 के आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि में हुआ। इस संगठन में कुछ प्रमुख संस्थाएं भी शामिल हैं, जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश, विश्व बैंक, इंटरनेशनल मानेटरी एंड फाइनेंसियल कमेटी और डवलपमेंट कमेटी आन आइएसएफ आदि-इत्यादि। यह विश्व व्यापार के 80 फीसद हिस्से एवं वैश्विक सकल राष्ट्रीय उत्पाद के 90 फीसद हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है। दुनिया की दो-तिहार्इ आबादी यही रहती है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी कि 2007-08 की वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद जी-20 की बैठक को और अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए इसे शिखर बैठक का रुप दिया गया। लेकिन एक दशक बाद भी जी-20 अपने लक्ष्यों से काफी दूर है। इसलिए कि जी-20 उददेष्यों के प्रति सदस्य देश र्इमानदार नहीं हैं। जब तक विकसित राष्ट्र विकासशील देशों की आर्थिक मजबूरियों को ध्यान में रख अपनी आर्थिक नीतियां तय नहीं करेंगे तब तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्थिरता संभव नहीं है। पिछले दिनों देखा भी गया कि ज्यों ही अमेरिका ने अपनी आर्थिक नीतियों में तब्दीली लायी भारत समेत कर्इ विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी। भारतीय रुपया डालर के मुकाबले रसातल में चला गया। षेयर बाजार गोता लगाने लगा। विदेशी निवेशक धड़ाघड़ बाजार से अपना पैसा खींचने लगे। भारतीय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने रुस रवाना होने से पहले यह इजहार किया था कि वे जी-20 सम्मेलन के समक्ष इस बात को दृढ़ता से रखेंगे कि विकसित देशों की आर्थिक नीतियों के कारण विकासशील देशों की मुश्किलें बढ़ रही है। लेकिन वे विकसित देशों से यह कबूलवा पाने में समर्थ नहीं हुए। अब देखना दिलचस्प होगा कि जी-20 शिखर सम्मेलन में आर्थिक नीतियों को लेकर बनी सहमति अस्थिर और कमजोर वैश्विक अर्थव्यवस्था में कितना संजीवनी साबित होती है। उचित होगा कि जी-20 के सदस्य देश विशेष रुप से विकसित देश विकासशील देशों में विकास और रोजगार की गति को आगे बढ़ाने में मदद करें। मांग में वृद्धि और असमानता की खार्इ को कम करने के लिए अपनी आर्थिक नीतियां तय करते समय विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था का ख्याल रखें। बहरहाल जी-20 शिखर सम्मेलन पर भले ही सीरिया का मसला छाया रहा हो लेकिन इसके बावजूद भी वैश्विक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लौटने की उम्मीद जरुर जगी है।