डॉ. शंकर सुवन सिंह
बसंत ऋतु नवीनता का प्रतीक है। नवीनता उल्लास को जन्म देती है। उल्लास सुख समृद्धि का द्योतक है। सुख शांति का वास ज्ञान में है। इस ऋतु में प्रकृति अपना नया रूप दिखती है। बसंत पंचमी ज्ञान की देवी सरस्वती को समर्पित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार माता सरस्वती का अवतरण इसी दिन हुआ था। साहित्य, संगीत और कला की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती की पूजा-अर्चना इस दिन की जाती है। साहित्य बिना चिंतन के नहीं लिखा जा सकता। संगीत बिना भावना के असंभव है और कला बिना संवेदना के। साहित्य संगीत और कला क्रमशः चिंतन, भावना और संवेदना की प्रतिमूर्ति हैं। माँ सरस्वती में चिंतन,भावना और संवेदना का समन्वय है। ज्ञान रूपी सरस्वती ने अज्ञान रूपी अन्धकार (राक्षस) को मारने के लिए बसंत रूपी ऋतु को पैदा किया। माँ सरस्वती को अनेकों नामों से जाना जाता है जैसे शारदा, वीणावादिनी, वीणापाणि, वागेश्वरी, वाणी, भारती, महाश्वेता, ब्राह्मणी, ज्ञानदा, प्रज्ञा, वाग्देवी आदि। बसंत पंचमी माघ महीने की शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। चंद्रमा की कला के बढ़ते एवं घटते कलाओं के आधार पर हिन्दी महीने में दो पक्ष (कृष्ण एवं शुक्ल) होते हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्र की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं। चंद्र की बढ़ते कला की पंचमी तिथि को शुक्ल पंचमी कहते हैं। आत्मिक ज्ञान का आयाम अनंत है। आत्मिक ज्ञान की कोई परिसीमा नहीं होती। ज्ञान का अस्तित्व भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान से है। शारीरिक क्रिया द्वारा प्राप्त ज्ञान भौतिक है। आत्मिक क्रिया द्वारा प्राप्त ज्ञान आध्यात्मिक है। भौतिक ज्ञान जीवन यापन का साधन है और आत्मिक ज्ञान इह लौकिक और पार लौकिक शक्तियों के विकास का साधन है। आध्यात्मिक ज्ञान दैवीय शक्तियों से ओतप्रोत होता है। भौतिक ज्ञान सांसारिक शक्तियों से ओतप्रोत होता है। आत्मिक ज्ञान में सूक्ष्मता होती है। सांसारिक ज्ञान में स्थूलता होती है। जो दृश्य है वो स्थूल है और जो अदृश्य है वो सूक्ष्म है। सूक्ष्मता का वास अनुभूति में है। स्थूलता का सम्बन्ध अनुभूति से नहीं है। स्थूलता स्वार्थ से फलित होती है। सूक्ष्मता स्व से फलित होती है। सांसारिक सुख एक दूसरे के स्वार्थ पर टिका है। आत्मिक सुख स्व की चेतना पर टिका है। स्थूलता में दिखावा है। भौतिक आँखों से देखी जाने वाली प्रत्येक वस्तु (सजीव या निर्जीव) स्थूलता का परिचायक है। तीसरी आँख ( पीनियल ग्लैंड) से महसूस की जाने वाली प्रत्येक वस्तु (सजीव या निर्जीव) सूक्ष्मता का परिचायक है। अध्यात्म, उपासना सिखाता है। स्व (ईश्वर) के समीप बैठना ही उपासना है। ध्यान उपासना की एक विधि है। आध्यात्मिक ज्ञान को लेकर जब आप भौतिक ज्ञान की तरफ बढ़ते हैं तब वो भौतिक ज्ञान आपको दुःख न देकर सुख देता है। आत्मिक ज्ञान सांसारिक ज्ञान पर भरी पड़ता है। समाज में व्याप्त बुराइयों को कुचलने में संतो की अहम् भूमिका होती है। संतों से संस्कार का निर्माण होता है। संत, अध्यात्म रूपी मंदिर में देवता रूपी मूर्ति की स्थापना करता है। कहने का तात्पर्य यह है की एक संत अपने आत्मिक ज्ञान से अध्यात्म के द्वारा देवताओं के दर्शन करा सकता है। ऋषि मुनियों का देश कहा जाने वाला भारत इसका उदाहरण है। भारत की धरती पर ऐसे ऋषि मुनि हुए जिनके सामने विज्ञान नतमस्तक हो गया। देवरहा बाबा, नीम करोली बाबा, महाअवतार बाबा, लाहिड़ी महाशय, श्री युक्तेश्वर महाराज एवं परमहंस योगानंदा जी महाराज आदि ऐसे अनेक अद्वितीय छवि के महान संत हुए जिनके चमत्कार और दिव्यता की निशानी आज भी है। एक संत ही वास्तविक गुरु होता है। संतों पर माँ सरस्वती की असीम कृपा होती है। साहित्य, संगीत व कला तीन स्तम्भ हैं जिस पर ज्ञान रूपी मकान खड़ा है। मकान और स्तम्भ दोनों का आधार संत ही है। कहने का अर्थ बिना संत (आध्यात्मिक गुरु) के ज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं। संत संकटों से उबारता है। संतों के अंदर क्षमा करने का गुण होता है। संत आपकी कमजोरियों को दूर कर आपको सफलता के चरम शिखर पर पहुँचाता है। त्रेतायुग में राक्षसों का नाश करने के लिए श्री हरि विष्णु ने श्रीराम के रूप में जन्म लिया था। श्रीराम के कार्य में हाथ बंटाने के लिए भगवान शिव ने वानर रूप में अवतार लिया। जिसे सारी दुनिया हनुमान (बजरंगबली) के नाम से जानती है। हनुमान जी माता अंजनी और केसरी के पुत्र हैं। बजरंगबली को पवन पुत्र भी कहते हैं। बजरंगबली वायु के समान गतिशील हैं। हनुमान जी में आध्यात्मिकता के सारे गुण मौजूद हैं उनका एक विशेष आध्यात्मिक गुण था सेवा। सेवा ही उनकी साधना थी। कहने का तात्पर्य संत (आध्यात्मिक गुरु) की सेवा से ही सफलता के चरम शिखर पर पहुंचा जा सकता है। ऋषि भृतहरि के शब्दों में मनुष्य की पहचान यह है कि वह साहित्य, संगीत व कला का आनंद लेना जनता हो। यदि नहीं जानता तो वह बिना पूंछ-सींग का साक्षात पशु है। भारतीय संस्कृति एक सतत संगीत है। आधुनिक काल में मनुष्य अपने ज्ञान का दुरूपयोग कर रहा है। उसने अपनी सभ्यता तथा संस्कृति को खो दिया है। संस्कृति, संस्कार से बनती है। सभ्यता बनती है नागरिकता से। संस्कृति व सभ्यता ही मानवता का पाठ पढाती है। संस्कृति आशावाद सिखाती है। संस्कृति का दर्शन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। दर्शन जीवन का आधार है। संस्कृति, बौद्धिक व मानसिक विकास में सहायक है। कवि रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार संस्कृति जीवन जीने का तरीका है। भारत का संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा से आया। संस्कृति शब्द का उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है। ऐतरेय, ऋग्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ है। ऋग्वेद संपूर्ण ज्ञान व ऋचाओं (प्रार्थनाओं) का कोष है। ऋग्वेद मानव ऊर्जा का स्रोत है। ऋग्वेद, सनातन धर्म का सबसे आरम्भिक स्रोत है। असतो मा सद्गमय वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है। सूर्य को सम्बोधित “गायत्री मंत्र” ऋग्वेद में उल्लेखित है। गायत्री मंत्र, ऋग्वेद के तीसरे मंडल के बासठवें सूक्त का दसवां मंत्र है (3:62:10)। ऋग्वेद भारतीय संस्कृति व सभ्यता का प्रतीक है। ऋग्वेद भारतीय संस्कृति का मूल है। वेद आज भी हैं जो 2500 ई.पू. से 1500 ई.पू. तक थे। वेद श्रुति कहलाए। वेद ठहरे नहीं। वेद, ठहर गए होते तो सांप्रदायिक हो जाते। वेद मानव जाती की सम्पूर्णता है। संतों में संस्कृति रूपी आत्मा सभ्यता रूपी शरीर धारण किया हुए है। जिसके सत्संग से सारे दुखों का अंत हो जाए वही संत है। अतएव हम कह सकते हैं कि जहां बसे संत वही है बसंत अर्थात बसंत ऋतु संतों की ऋतु है।
लेखक
डॉ. शंकर सुवन सिंह