पिछले दिनों छत्तीसगढ़ से संबंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मान.न्यायाधीश ने शायद पहली बार स्टिंग आपरेशन को जायज ठहराया है। कोर्ट के फैसले पर बिना किसी तरह की राय देते हुए भी स्टिंग आपरेशन के गुण दोषों पर विचार किया जाना प्रासंगिक है। बात बहुत पुरानी नहीं है, जब तहलका के द्वारा सांसदों से संबंधित एक अभियान के बाद बड़े स्तर पर स्टिंग आपरेशन की शुरूआत हुई थी। निश्चित ही भ्रष्टाचार से आहत एवं कराहते इस लोकतंत्र में पहली नजर में हर वो चीज जायज लगता है, या लगनी भी चाहिए, जिसके द्वारा किसी भी तरह के कदाचार का पर्दाफाश हो। लेकिन किसी भी तरह की खुफिया कार्रवाई करते हुए ऐसा जरूर दिखना चाहिए कि वे प्रायोजित नहीं है। सरल शब्दों में कहें तो कोई गैर कानूनी काम हो रहा है उसे दिखाने के लिए की जाने वाली कार्रवाई तो जायज है, मगर कोई कार्रवाई इसलिए प्रायोजित किया जाय कि लोगों को फंसाकर खुफिया फिल्म बनायी जा सके, यह निश्चय ही अनैतिक और व्यक्ति विशेष के निजत्व के अधिकार का हनन होने के कारण गैरकानूनी भी है।
पिछली सरकार में नोट फॉर वोट से संबंधित ऑपरेशन को छोड़ दें तो ज्यादातर बड़े अभियान ऐसे थे जिसमें भ्रष्टाचार का पर्दाफाश नहीं किया गया था बल्कि भ्रष्टाचार का आयोजन किया गया था। सवाल ये है कि यदि अपराध करना जुर्म है तो अपराध के लिए प्रेरित या लोभित करना जुर्म नहीं है? भारतीय समाज में हर समय इस बात पर जोर दिया गया है कि साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता भी होनी उतनी ही जरूरी है। आखिर आप किसी के हम्माम में चोरी-छुपे घुसकर या नये तरह का हम्माम पैदा कर सामने वाले को नंगा साबित नहीं कर सकते। किसी भी फैसले पर पहुँचने से पहले व्यक्ति एवं समाज के गुण उनकी कमजोरियाँ, पृष्ठभूमि, संबंधित पक्ष खासकर मीडिया की भूमिका आदि पर विमर्श कर नयी स्थिति के अनुकूल स्टिंग ऑपरेशन के लिए एक आचारसंहिता या दिशा निर्देश बनाना समय की जरूरत है। शायद सबसे कम बुरी या ठीक ठाक व्यवस्था यही की जा सकती है कि किसी वास्तविक घटना या अनाचार का फिल्मांकन कोई बेशक करे, लेकिन घटना को अपने किसी स्वार्थ के कारण जन्म नहीं दिया जाए। पिछली ढेर सारी कार्रवाई इसी तरह की थी जिसमें एक फर्जी कंपनी द्वारा फर्जी नाम से फर्जी लोगों की टीम बनाकर, वेश्याओं का सहारा लेकर घटनाओं को अंजाम दिया गया था। अत: मीडिया को भी बराबर का दोषी मानना उचित है और आगे इस तरह की हिमाकत कोई नहीं करे इसकी व्यवस्था की जानी चाहिए। कम से कम भारतीय समाज तो इसी बात की गवाही देते हैं कि अपराध करने वाले से उसके लिए प्रेरित करने वाला ज्यादा दोषी है।
मोटे तौर पर कोई भी भ्रष्टाचार मुख्यतया दो बातों के लिए होती है। कंचन और कामिनी। और इन दोनों के लिए प्रेरित करने वाला दो उदाहरण प्रासंगिक है। पहला, रामायण की बात करें जिसमें सीता ने स्वर्ण मृग की चाहत की थी, फलत: इन्हें ढेर सारी कठिनाइयों का समाना करना पड़ा। दूसरा कामदेव के द्वारा भगवान शंकर की तपस्या भंग करने के प्रयास की कथा है। एक धन के लिए था तो दूसरा स्त्री के लिए। दोनों ही प्रसंग में लक्ष्मणरेखा का उल्लंघन करने वाले दंड या प्रायश्चित के भागी हुए। लेकिन इन दोनों कथाओं में सामानता यह है कि घटना के लिए कृत्रिम तौर पर प्रेरित करने वाला पहले दण्ड का भागी बना, मर्यादा उल्लंघन करने वाले बाद में। जहाँ सोने के हिरण का रूप धरा मारीच तत्क्षण राम के बाण द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ वहीं ऐसी कथा है कि भगवान शंकर ने अपने तीसरे नेत्र के द्वारा कामदेव को भस्म कर दिया। आशय यह की भारतीय मनीषा यह मानता है कि हर इंसान ढेर सारी कमजोरियों का पुतला होता है, और ऐसी हर कार्रवाई जो व्यक्ति को गलत करने को प्रेरित करे वह अपराध करने वालों से भी ज्यादा दण्डनीय है।
जहां तक मीडिया की भूमिका का सवाल है तो आजादी के 62 बरस बाद दुख के साथ यह कहना पड़ेगा कि उसने समग्र रूप से कोई सामाजिक सरोकार नहीं, दिखाया है। उसे ऐसा कोई भी विशेष दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए जो दुर्भाग्य से उसे आज अनायास ही प्राप्त है। बात चाहे किसी स्टिंग आपरेशन जैसे अभियान का हो या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके दुरूपयोग की। बाजारवाद की आंधी में बहकर केवल उपभोक्तावाद को प्रोत्साहन देने की हो या नग्नता, हिंसा परोसने की। हर बार मीडिया के स्वयंभू मुगल, समाचार माध्यमों के लिए स्व-नियंत्रण का राग अलापना शुरू कर देते हैं। सवाल यह है कि आपने ऐसा कौन सा तीर मार लिया है, कौन सा समाजोद्धार का कार्य कर दिया है कि आपको (देवताओं को भी अनुपलब्ध) स्व-नियंत्रण और उसके दुरुपयोग की आजादी चाहिए। आखिर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री समेत समाज के सभी अनुषंग कई तरह की बंदिशों एवं जिम्मेदारियों से बंधे हैं तो आपके लिए केवल टीआरपी ही मानदंड क्यूं ? जब विशुद्ध काल्पनिक स्तर पर कहानी गढऩे वाले रचनात्मक माध्यम ‘सिनेमा` को प्री-सेंसरशिप से गुजरने की और कई बार अपनी ऐसी तैसी करवा लेने की मजबूरी हो तब इलेक्ट्रोनिक समाचार माध्यमों को कुछ भी तो दिखाते रहने की आजादी क्यूं? कहावत है कि जब आपके पास विकल्प हो तो आप हमेशा बुरा ही चुनेंगे। तो आखिर क्यों न एक आचार-संहिता या कानून अलग से बनाकर मीडिया द्वारा बुरा विकल्प चुन सकने के आजादी पर युक्ति-युक्त निबंध लगाया जाय। भू मंडलीकरण के बाद खासकर तकनीकी क्रांति के इस जमाने में सूचनाओं के विस्फोट को रोकना ना तो संभव है और ना ही उचित। परंतु यह आवश्यक है कि मीडिया को भी स्वच्छंदता से परहेज रखने को कानूनी प्रावधान द्वारा विवश किया जाय? जहां तक स्टिंग आपरेशन जैसे अपेक्षाकृत नये हथियार का सवाल है तो उसको बंदर के हाथ का उस्तरा बनने से कैसे बचाया जाय, लोगों के निजत्व का अधिकार और प्रेस की स्वतंत्रता कैसे एक दूसरे का विलोम ना हो, इसकी चिंता किये जाने की जरूरत है। फिलहाल इतना तो किया ही जाना चाहिए कि केवल स्टिंग आपरेशन के लिए कोई घटना प्रायोजित किया जाना, किसी को लुभाकर या दबाकर कोई फिल्म बनाना प्रतिबंधित हो। शायद माननीय न्यायाधीश का भी ऐसा ही सोचना रहा होगा।
-जयराम दास
जयराम दादा एक बात तो बिल्कुल सही है कि मीड़िया स्वरूप लगातार बदल रहा है…जिस सिंद्धात औऱ विश्वास को लेकर मैने पत्रकारिता को अपना कैरियर चुना था पिछले 4 सालों के अनुभव के बाद कहना पड़ा रहा है कि पिताजी के सामने अब मैं उस फर्क के साथ नहीं बैठ सकता जिसके लिए मैने उनके सरकारी नौकरी के सिंद्धातों को पुरानी पीढ़ी की सोच बताया था……इस दौर में यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि अब पत्रकार मिलते नहीं बना दिये जाते हैं….एक नई टरमीनोलोजी का चलन हो रहा है…अब SLP टाइप के ये पत्रकार चैनल की आई ड़ी लेकर आते हैं अब इनके लिए वे चुने नहीं जाते…..आई ड़ी लेते ही इनका पहला शब्द होता है…मैं फलां चैनल की आई ड़ी ले लाया या फलां चैनल चला रहा हूँ……फिलहाल इतना ही…
आपका
केशव आचार्य
मैं डा.शाहिद अली जी से अत्यन्त सहमत हूं। पहले के मीडिया और आज के मीडिया में बहुत बडा फर्क यही है कि आज का पत्रकार खुद को प्रोफेशन कहलवाना अच्छा समझता है और उसके लिए वह खुद भी भ्रष्टाचारियों का साथ देने से हिचकिचाता नहीं है क्योंकि उसे वहां से अच्छा पैसा जो मिल जाता है। बस पैसे के पीछे दौड लगी हुई है बडे से बडा लेखक, कवि भी नाम के साथ साथ हद से ज्यादा पैसा कमाना चाहता है। क्या ऐसा नहीं है?
आलेख पढ़ा। अच्छा लगा। राजनीति ने जिस तरह समाज को राजनीतिक समाज बना दिया है वहां किसी भी तरह नैतिक मूल्यों की रक्षा करना नामुमकिन जैसा हो गया है। मीडिया को हम आज भी पुराने चश्मे से देखना पसन्द करते हैं जबकि मीडिया भी इसी राजनीतिक समाज का हिस्सा है। स्टिंग आपरेशन की पत्रकारिता भी इसका शिकार है। आज के मीडिया को जरुरत है प्रतिबद्ध और नैतिक मूल्यबोध से जुडे पत्रकारों की न कि प्रोफेशनल्स पत्रकारों की।
डा.शाहिद अली
विभागाध्यक्ष
जनसंचार विभाग
कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय
रायपुर छ.ग.
9907918977