कहानी काफी पुरानी और वास्तविक घटना पर आधारित है। इसकी समानता किसी भी तरह से अन्य लोगों से नहीं हो सकती क्योंकि यह मेरी अपनी कहानी है। इसके पात्र काल्पनिक न होकर मेरे अपने ही करीबी परिवारी जन हैं। अब तो मैंने अपनी इस कहानी का जिसे आगे लिख रहा हूँ के बारे में स्पष्टीकरण दे दिया है, बस आप पढ़िए और यदि आपके मन में कोई विचार आए तो झट से कमेण्ट पोस्ट कर दीजिए। मेरा बचपना था। 50-60 के दशक की बात है। मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ठेठ गँवई हैं। खेती-किसानी अच्छी होती थी, लेकिन शिक्षा से परिजनों को परहेज था, शायद स्कूल कालेज दूर-दराज थें इसलिए हमारे पूर्वज शिक्षा नहीं ग्रहण कर सके थे।
गाँव का हमारा ही एक परिवार ऐसा था, जिसका बड़ा बेटा परदेस रहकर नौकरी करता था, और वह थें हमारे पिता जी, जो अब इस संसार में नहीं हैं। हमारा गाँव पिछड़ा माना जाता था इस वजह से तत्समय हमारे गाँव के युवकों की शादियाँ नहीं होती थीं। हमारे बाबू जी चूँकि परदेस में रहकर पैसा कमाते थे, इसलिए उनकी शादी अच्छे घराने की लड़की (मेरी माता जी) से हो गया था। हमारे पिता जी और माता जी की शादी के बारे में हमने बुजुर्गों से बड़ी रोचक बातें सुनी थीं। वह लोग कहते थे कि मन्नू के बाबूजी ने (मेरे पिता जी के बारे में) परदेस में जाकर रूपया छापने वाली मशीन ले रखा है यही कारण है कि उनका मिट्टी का घर पक्का भवन बन गया, साथ ही खेती-बारी भी अव्वल होने लगी है।
पहले कन्या पक्ष के हिमायती दलाली/बिचौलियों का रोल प्ले करते थे। इसी तरह के किसी तत्कालीन बिचौलिए ने पिता जी और माता जी की शादी कराया था। चूँकि मेरी माता जी एक अच्छे और बड़े घराने की थीं इसलिए उनका रहन-सहन अन्य लोगों विशेष कर तत्कालीन महिलाओं की तुलना में सर्वथा हटकर था। मेरी माता जी आजादी के पूर्व की प्राइमरी पास हैं। और आज भी बी.ए./एम.ए. पास उनसे बात करके आगे नहीं जा सकते। माता जी देहात और शहरी वातावरण में पली-बढ़ी थीं, इसलिए उनके अन्दर का प्राणी काफी हद तक तत्समय आधुनिक हुआ करता था। हम छोटे थे, गाँव में लोगों के बच्चे शरारत करते थे, तब उनकी माताएँ देहाती गालियाँ देकर उन्हें शरारत करने से मना करती थीं, लेकिन जब हम शरारत करते थे तब हमें हरामजादा, कुत्ता, कमीना कहकर अम्मा अपना प्रभुत्व अपढ़ समाज में कायम करती थीं।
शायद वह तब यह भूल जाया करती थीं, कि हरामजादा का मतलब क्या होता है? हम सब छोट थे, लेकिन अम्मा द्वारा दी जाने वाली गाली का अर्थ समझते थे। क्या कहें अम्मा का क्रोध बेकाबू रहता था, वह जब गालियाँ बकने लगतीं थीं तब यह नहीं सोच-समझ पाती थीं कि इसका हम पर कैसा असर पड़ेगा। कहते हैं कि माँ बच्चे की पहली पाठशाला होती है जहाँ हर तरह की शिक्षा और संस्कार दिए जाते हैं, यह तो ऊपर वाले का शुक्र रहा कि माँ द्वारा क्रोधावेश में दी जाने वाली गालियों ने हम पर अपना प्रभाव नहीं डाला। समय बीतता गया। हम सब बड़े होकर स्कूल/कालेजों में पढ़ने लगे।
अम्मा ने हरामजादा कहना कब छोड़ा यह तो ठीक से नहीं मालूम, लेकिन अब जब वह अपने जीवन का 85 वर्ष पूरा कर रही हैं, और अपना ज्यादा समय पूजा-पाठ में ही लगाती हैं तब हम यह सोचने पर विवश होते हैं कि काश! माता जी पहले भी ऐसा ही करतीं जैसा कि अब कर रही हैं। अब जब उनको याद दिलाया जाता है तो वह डांटती हैं और कहती हैं कि तब की बात और थी अब तो उनके सामने चार पीढ़ियाँ हैं यदि वह अपने मुँह से अपशब्द निकालेंगी, तब बच्चों पर उसका कुप्रभाव पड़ेगा।
बुढ़ापे में अम्मा के मुँह से ऐसे वचन सुनकर आश्चर्य होता है। काफी अर्सा हो गया मैंने उनके मुँह से गाली नहीं सुना है। काश! समय विपरीत चक्र में घूमता और मैं फिर से दस व मेरी माता जी 30 वर्ष की हो जाती और अम्मा के मुँह से ‘हरामजादा’, कमीना, कुत्ता जैसे शब्दों से अलंकृत होता तो कितना अच्छा रहता। एक राज की बात बताएँ शहरी परिवारों में वर्तमान में इस तरह की गालियाँ देने का प्रचलन जोरों पर है। मैंने कई घरों के आँगन में अपने बच्चों को डाँटती हुई माताओं के मुँह से सुना है कुत्ता, कुतिया, कमीने, कमीनी और ‘हरामजादा‘। खैर! यह रही गालियों की बात कृपाकर आप अपने बच्चों को सुसंस्कृत बनाएँ और इस तरह की गालियों के उच्चारण से बचें।
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हमारा पेशा: सत्ता पाने का मानक
हमारा पेशा है लाशें ढोने का। उन लाशों को जिन्हें हमीं ने कत्ल किया है। पेशा-पेशा होता है, चाहे लाश ढोएँ या कत्ल करें। किसी की हत्या करना भी एक पेशा है। इसी धन्धे के तहत हम कत्ल करते हैं रोज और इन्हीं लाशों को ढोकर ले जाते हैं।
हमारा पेशा है लोगों के भाग्य बदलने का इसीलिए हम भाग्य बदलते हैं उनके जो हमें अपना भाग्य विधाता मानते हैं। हमारा पेशा है लोगों का विकास करना, हम विकास करते हैं एक नेता के रूप में। नेता बनकर हम वायदे करते हैं, सब्जबाग दिखाते हैं, लोगों को दिग्भ्रमित करते हैं।
लाशें ढोने से लेकर कत्ल करने तक और भाग्य विधाता से नेता बनने तक हम हमारे तरकस के हर तीर आजमाते हैं। परम्परा के तहत हम सब कुछ करते हैं। सबकी अपेक्षाओं के अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास करते हैं। संविधान की आड़ लेकर हम सभी कार्य करते हैं।
विशुद्ध नेता गिरी के अन्दाज में समाज के विकास व सुधार का दावा करते हैं। धर्म के नाम पर भी हम अपने पेशे को नया रूप देते हैं, फिर इसके बलबूते पर अपने पेशे का विस्तार करने की योजना बनाते हैं। धर्म को हाई लाइट करके हमें आशातीत सफलता मिलती है। हमें आजमाने की गरज से लोग अवसर देते हैं और फिर हम इस मौके का भरपूर लाभ लेकर विस्तार करते हैं अपने पारम्परिक पेशे का।
क्या वास्तव में लोग अज्ञानी हैं? लोगों को सत्य की जानकारी नहीं? वह लोग हमें अपना नेता मान बैठते हैं, हमें मानते हैं अपना भाग्य-विधाता। यद्यपि सत्य यह है कि न कोई किसी का नेता है और न ही भाग्य विधाता। धर्म के नाम पर हम पाखण्ड करते हैं।
धर्म पाखण्ड का अन्तकर्ता भी है (यही सच्चाई भी है)। धर्म ही सृजन करता है लेकिन हम धर्म के नाम पर सृजन की जगह विनाश करते हैं। हमारी परिभाषा में धर्म जड़ सत्ता है। मानवता की समग्रशक्ति है जड़सत्ता जिसमें आनन्द की अनुभूति होती है। हमने मुर्दघट्टों को प्रतीक बनाया है धर्म का। पुराने खण्डहरों को धर्म का अभीष्ट कहकर लोगों में उन्माद भी भरा है।
हमने लोगों में वर्ग, जाति का बीजारोपण भी किया है, जहर के बीज अंकुरित किए हैं। सर्वोच्च सत्ता के शासक को हमने अपने अन्दर स्थान नहीं दिया है। हमारे अन्दर है तो मात्र स्वार्थ के लिए जगह। धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, सम्प्रदाय के नाम पर, वर्ग के नाम पर हम करते हैं व्यवसाय। यही हमारा पेशा है। स्वार्थ के सांचे में सजाकर हमने धर्म, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग को धन कमाने का साधन बनाया है, सत्ता पाने का मानक माना है इन सबको।
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अंग्रेजी तालीम : दैट व्हिच आल ग्लिटर्स इज नाट गोल्ड
नन्हे-मुन्नों के विद्यालय खुल गये। हमारे ऊपर नन्हे-मुन्नों की किताबों से भरे झोलों से कई गुना बोझ लद गया, क्योंकि हम सरकार की नीतियोें के सख्त विरोधी जो ठहरे। घर में बच्चों की फौज तैयार कर लिया है। आज वही बच्चे हमारे लिये सिर दर्द हो गये है। काश! हमने अपने पड़ोसी पट्टीदार से भविष्य में मुकाबला करने की बात न सोची होती तो सरकार की नीति को मानकर जनसंख्या वृद्धि न करते।
खैर, अब तो जो होना था, हो गया। छोटा किड जो मात्र 3 वर्ष का है, वह भी किसी अंग्रेजी स्कूल में पढ़कर ‘तालीम‘ लेना चाहता है। इस बार पाँचो बच्चों को स्कूल जाते देखकर अपनी तोतली बोली में बोला- ‘पापा हम भी स्कूल जायेंगे। हमारे लिये टाई सहित स्कूल की ड्रेस बनवा दीजिये और अमुक स्कूल में पढ़ने भेजिए।‘ उसकी जिद ने हमारी कमर पतली कर दी और पैण्ट खिसक कर नीचे चली गयी, लेकिन पिता जो ठहरे, इसीलिए उसे अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में भर्ती कराने हेतु ले ही जाना पड़ा। अंग्रेजी स्कूलों की इस बाढ़ में पहले तो हम बच्चे को लिए तैरकर एक तथाकथित इंग्लिश मीडियम के स्कूल में पहुँच गए। उस स्कूल की प्रधानाचार्या के कार्यालय में पहुँचे और आवेदन पत्र भरकर जेबें खाली कर दी। बच्चे की नाप-तौल करायी गयी। बच्चा नापतोल में ठीक-ठाक निकला। यह सब कार्य संपादित कराकर हम विद्यालय के गेस्ट रूम में थोड़ा ‘सुस्ताने‘ के लिए बैठ गए। उसी बीच एक ‘मैडम‘, जो उस स्कूल की अध्यापिका थी, ने प्रधानाचार्य के कक्ष में प्रवेश किया। हमने अपना कान उधर ही लगा दिया और ‘अपश्रव्य ध्वनि‘ को भी सुन पाने की पुरजोर कोशिश की। सफल भी हुआ। उक्त ‘मैडम‘ ने अपनी बड़ी मैडम से जो बातें की, उन्हें सुनकर हमें ऐसा लगा कि हमारी जेब नन्हें बच्चे की जिद ने पूर्णरूपेण कटवा दी।
बात कुछ यों थी कि प्रधानाचार्या के आफिस में उक्त ‘मैडम‘ ने जो बात की उसने हमें चौकन्ना कर दिया। मैडम ने कहा था ‘बड़ी मैडम, मेरे बच्चे ने कल से कुछ खाया-पिया नहीं‘। इस पर बड़ी मैम ने सहानुभूति दिखाते हुये कहा कि क्या हुआ, तबीयत खराब है क्या? यदि ऐसी बात हो तो किसी अच्छे डाक्टर को दिखाकर इलाज करवा लीजिए, वर्ना बच्चा स्कूल में गैरहाजिर होकर पढ़ायी नहीं कर पायेगा। बड़ी मैडम की बात सुनकर सहायक अध्यापिका ने कहा कि ऐसी बात नहीं हैं। बात यह है कि मुहल्ले की लाइब्रेरी बन्द हो जाने से हमारा बच्चा ‘कामिक्स‘ पढ़ नहीं पा रहा है और ‘कामिक्स‘ का ‘एडिक्ट‘ होने के कारण उसने खाना-पीना छोड़ दिया। बड़ी मैडम ने उनकी बात सुनकर कहा कि देखिए, मैडम हमारा स्कूल बच्चों को शिक्षा देने के लिए अवश्य हैं, लेकिन यहां कामिक्स, फिल्में एवं उपन्यास आदि पढ़ने-देखने की शिक्षा नहीं दी जाती। कृपा करके अब अपनी बातें समाप्त करें वर्ना कोई ‘गार्जियन‘ यह बातें सुन लेगा तो हमारे विद्यालय पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बड़ी मैडम की बातें सुनकर सहायक अध्यापिका ने बातें आगे नहीं बढ़ायी, लेकिन हम सचेत हो गए। इसी बीच प्रधानाचार्या के कमरे से जब सहायक अध्यापिका निकल गयीं तो फिर हमने किसी बहाने उनके आफिस में प्रवेश किया। हमारे घुसते ही प्रधानाचार्या की प्रश्नवाचक दृष्टि हम पर उठी। हमने कहा बड़ी मैडम हम थकान मिटाने के लिए आप के आफिस के बाहर ‘गार्जियन कक्ष‘ के सोफे पर बैठे थे, लेकिन क्षमा करें, हमने आप-दोनों लोगों की बातों को सुनने की धृष्टता की है।
जब प्रधानाचार्या महोदया को यह मालूम हो गया कि विद्यालय की ‘पोल‘ खुल गयी हैं तो उन्होनें कहा कि देखिए जनाब, हमारा विद्यालय आदर्श विद्यालयों मे गिना जाता हैं और ऐसी सह अध्यापिकाओें को हम आज ही नोटिस देकर आदत सुधारने के लिए निर्देश देंगे। आप निश्चिन्त रहें, आपका बच्चा अब आपसे अंग्रेजी में ही बातें करेगा, यह हमारा दावा है। अनुभवी प्रधानाचार्या की बातों के प्रभाव में हमने अपने ‘नन्हें‘ को स्कूल में डाल तो दिया है और प्रतिदिन सुबह ‘ड्रेस‘ पहनाकर‘ साइकिल से पहंुचाते भी हैं लेकिन ‘फीस‘ अधिक होने की वजह से लग रहा है कि ‘नन्हें‘ को दो-एक माह में इस स्कूल से निकाल लेना पड़ेगा। अंग्रेजी मीडियम स्कूल में दाखिला दिलाने के बाद ‘नन्हें‘ को पढ़ाई के नाम पर कुछ भी तो अभी तक नहीं आया।
हमें यह भय बना रहता है कि यदि पढ़ाने वाली उक्त अध्यापिकाओं के बच्चे ‘कॉमिक्स‘ एवं ‘फिल्म स्टोरी‘ की तरफ ध्यान दे रहें हैं, तो क्या हमारे ‘नन्हें‘ में वे आदतेें नहीं आ जायेंगी। फिलहाल, नन्हें की जिद के आगे ‘धनुषबाण‘ रखकर ‘सरेण्डर‘ किए हुए हैं, लेकिन यदि ‘नन्हें‘ में ‘परिवर्तन‘ नहीं आया तो किसी हिन्दी माध्यम के स्कूल में डाल देंगे। जहाँ फीस भी कम लगेगी। पता किया तो हिन्दी माध्यम के स्कूलों में भी हालात बद्तर हैं। परिषदीय स्कूलों में भी यदि पढ़ाने का मूड बने तो मानक व गुणवत्ता विहीन मिलावटी एम.डी.एम. बच्चों को परोसने की खबर सुनकर रूह कांप जाती है। साथ ही अड़ोसी-पड़ोसी, हित-मित्रों, रिश्तेदारों की तुलना में अपनी हैसियत भी कम आँकी जाने लगेगी। यही सब सोंच कर कथित कान्वेण्ट (अंग्रेजी माध्यम) स्कूल में लाडले की पढ़ाई जारी रखा हूँ। जिस विद्यालय में वह पढ़ रहा है वहाँ के प्रबन्धतन्त्र के तुगलकी फरमानों से हमारी हालत बद्तर हो गई है। और अब जो हम पर बीत रही है वह आप के साथ शेयर कर रहा हूँ ताकि मेरे दिल पर पड़ा बोझ कुछ हल्का हो सकेगा।
वैसे मुझे मालूम है कि आप भी कान्वेण्ट टाइप के स्कूलों मे अपने पाल्यों को पढ़ाने में गर्व महसूस करते होंगे, यदि ऐसा नहीं करेंगे तो आप की ‘स्टेटस’ सोसाइटी में नगण्य ही कही जाएगी। बहरहाल! कान्वेण्ट स्कूल प्रबन्धन हमारे किड्स की पढ़ाई पर कम ध्यान देकर अपनी तिजोरियाँ भरने में ज्यादा रूचि ले रहा है। हर माह किसी न किसी बहाने ‘डे’/पर्वों का हवाला देकर हमारे ऊपर आर्थिक बोझ डालने से नहीं चूक रहा है। कॉपी-किताब अपनी सेट दुकानों से ही परचेज करने को बाध्य किया जाता है। प्रत्येक शिक्षा-सत्र में बुक पब्लिकेशन बदल दिए जाते है, इससे कई गुना मुनाफा होता है। हफ्ते में दो-तीन तरह/रंग के स्कूली ड्रेस, टाई, बेल्ट आदि पहनने पड़ते हैं, ये ड्रेस भी स्कूल के अगल-बगल की दुकानों पर महंगी कीमतों पर ही मिलते हैं।
क्या किया जाए- जब बच्चे को अंग्रेज बनाना है तो दीगर है कि इस सब में पैसा खर्च करके मुझ जैसे ‘गार्जियन’ की स्थिति निकट भविष्य में एक ‘बेगर’ (अंग्रेजी में) और हिन्दी में भिखमंगे की तरह जल्द ही होने वाली है। क्या करें- अंग्रेज बनाने, अंग्रेजी बोलने अंग्रेजों जैसा दिखने के लिए मिशनरी के स्कूलों के हर नियम जो हमेशा परिवर्तनशील होते हैं को मानना जरूरी है। पड़ोसी के बच्चे फिरंगी बन रहे हैं, इसी प्रतिस्पर्धा के चलते मैंने भी अंग्रेज बनाने के लिए अपने बच्चों को कान्वेण्ट स्कूल में एडमिशन दिलाने की सोचा था। कहते हैं कि जिसे अपने व्यक्तित्व को निखारना हो उसे अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा। अब जब परसनैलिटी निखार की बात हो तो पैसे खर्च करने में संकोच किस बात की। वैसे देश से 1947 में ही अंग्रेज अपने मुल्क वापस हो गए थे। नारों में कहा जाता है कि ‘बी इण्डियन एण्ड बाई इण्डियन।’ हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी है, लेकिन अब भी बगैर अंग्रेजी के कोई कार्य ही नहीं होता है। बट मेरा अपना मानना है कि ‘दैट व्हिच आल ग्लिटर्स इज नाट गोल्ड’ यानि हर चमकरने वाली वस्तु सोना नहीं होती है। आप पर थोप नहीं रहा, आपकी अपनी मर्जी मानें या न मानें।
अंग्रेजी का मतलब-पैण्ट-शर्ट, कोट-बूट और टाई, सिर पर हैट, मुँह में श्वेत धूम्रदण्डिका (सिगरेट) भोजन में जो मिले सब कुछ (सर्वाहारी)। सुना था ग्रेट ब्रिटेन विकसित देश है जहाँ लोग भीख नहीं मांगते हैं, परन्तु एक फिल्म देखी थी, जिसमें लोग अंग्रेजी तरीके से बेगिंग कर रहे थे। जब अपने यहाँ (विकासशील देश) के भिखारी पैसे दस पैसे माँगा करते थे, तब अंग्रेज बेगर पाउण्ड, 10 पाउण्ड भीख में दिए जाने की डिमाण्ड करते थे। मतलब यह कि चाहे अंग्रेज हों या फिर इण्डियन जो भी काम (वर्क) नहीं करेगा वही भीख मांगेगा। हाँ तरीके अलग-अलग हो सकते है। बहरहाल कुछ भी हो मुझे और मुझ जैसे गार्जियन्स को मिशनरी स्कूलों के प्रबन्धकों/प्रबन्धतन्त्रों ने भिखारी बनाने की ठान लिया है। पहले गार्जियन्स इण्डियन बेगर्स बनेंगे बाद में इन स्कूलों में अंग्रेजी की तालीम हासिल करके हमारे पाल्यों (बच्चे) अंग्रेजों की तरह परिधान पहनकर, अंग्रेजी बोल कर ‘भिक्षाटन’ करेंगे। मेरी बात अभी अटपटी लग सकती है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब हमारे जैसे भारतीयों के बच्चे अंग्रेजी पढ़ लिखकर बेरोजगार हो जाएँगे और बेगिंग करें
जिसकी बीवी मोटी उसका ही बड़ा नाम हैं…
महिला सशक्तीकरण को लेकर महिलाएँ भले ही न चिन्तित हों, लेकिन पुरूषों का ध्यान इस तरफ कुछ ज्यादा होने लगा है। जिसे मैं अच्छी तरह महसूस करता हूँ। मुझे देश-दुनिया की अधिक जानकारी तो नहीं है, कि ‘वुमेन इम्पावरमेन्ट’ को लेकर कौन-कौन से मुल्क और उसके वासिन्दे ‘कम्पेन’ चला रहे हैं, फिर भी मुझे अपने परिवार की हालत देखकर प्रतीत होने लगा है कि अ बवह दिन कत्तई दूर नहीं जब महिलाएँ सशक्त हो जाएँ।
मेरे अपने परिवार की महिलाएँ हर मामले में सशक्त हैं। मसलन बुजुर्ग सदस्यों की अनदेखी करना, अपना-पराया का ज्ञान रखना इनके नेचर में शामिल है। साथ ही दिन-रात जब भी जागती हैं पौष्टिक आहार लेते हुए सेहत विकास हेतु मुँह में हमेशा सुखे ‘मावा’ डालकर भैंस की तरह जुगाली करती रहती हैं। नतीजतन इन घरेलू महिलाओं (गृहणियों/हाउस लेडीज) की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बनने लगी है फिर भी इनके पतिदेवों को यह शिकायत रहती है कि मेवा, फल एवं विटामिन्स की गोलियों का अपेक्षानुरूप असर नहीं हो रहा है और इनकी पत्नियों के शरीर पर अपेक्षाकृत कम चर्बी चढ़ रही है। यह तो आदर्श पति की निशानी है, मुझे आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यद्यपि मैंने सुन रखा था कि सिनेमा जगत और समाज की महिलाएँ अपने शरीर के भूगोल का ज्यादा ख्याल रखती हैं, इसीलिए वह जीरो फिगर की बॉडी मेनटेन रखने में विश्वास रखती हैं। यह तो रही फिल्मी और कमाऊ महिलाओं की बात।
मेरे परिवार/फेमिली/कुनबे की बात ही दीगर है। पतियों की सेहत को तो घुन लगा है और उनकी बीबियाँ हैं कि ‘टुनटुन’ सी नजर आती हैं। परिवार के सदस्य जो पतियों का दर्जा हासिल कर चुके हैं। वह बेचारे प्रख्यात फिल्मी गीतकार मरहूम गुलशन बावरा की शक्ल अख्तियार करने लगे हैं। और उनके सापेक्ष महिलाओं का शरीर इतना हेल्दी होने लगा है जिसे ‘मोटापा’ (ओबेसिटी) कहते हैं। यानि मियाँ-बीबी दोनों के शरीर का भूगोल देखकर पति-पत्नी नहीं माँ-बेटा जैसा लगता है। यह तो रही मेरे परिवार की बात। सच मानिए मैं काफी चिन्तित होने लगा हूँ। वह इसलिए कि 30-35 वर्ष की ये महिलाएँ बेडौल शरीर की हो रही हैं, और इनके पतिदेवों को उनके मोटे थुलथुल शरीर की परवाह ही नहीं।
मैं चिन्तित हूँ इसलिए इस बात को अपने डियर फ्रेन्ड सुलेमान भाई से शेयर करना चाहता हूँ। यही सब सोच रहा था तभी मियाँ सुलेमान आ ही टपके। मुझे देखते ही वह बोल पड़े मियाँ कलमघसीट आज किस सब्जेक्ट पर डीप थिंकिंग कर रहे हो। कहना पड़ा डियर फ्रेन्ड कीप पेशेंस यानि ठण्ड रख बैठो अभी बताऊँगा। मुझे तेरी ही याद आ रही थी और तुम आ गए। सुलेमान कहते हैं कि चलो अच्छा रहा वरना मैं डर रहा था कि कहीं यह न कह बैठो कि शैतान को याद किया और शैतान हाजिर हो गया। अल्लाह का शुक्र है कि तुम्हारी जिह्वा ने इस मुहावरे का प्रयोग नहीं किया। ठीक है मैं तब तक हलक से पानी उतार लूँ और खैनी खा लूँ तुम अपनी प्रॉब्लम का जिक्र करना। मैंने कहा ओ.के. डियर।
कुछ क्षणोपरान्त मियाँ सुलेमान मेरे सामने की कुर्सी पर विराजते हुए बोले- हाँ तो कलमघसीट अब बताओ आज कौन सी बात मुझसे शेयर करने के मूड में हो? मैंने कहा डियर सुलेमान वो क्या है कि मेरे घर की महिलाएँ काफी सेहतमन्द होने लगी हैं, जब कि इनकी उम्र कोई ज्यादा नहीं है और ‘हम दो हमारे दो’ सिद्धान्त पर भी चल रही हैं। यही नहीं ये सेहतमन्द-बेडौल वीमेन बच्चों को लेकर आपस में विवाद उत्पन्न करके वाकयुद्ध से शुरू होकर मल्लयुद्ध करने लगती हैं। तब मुझे कोफ्त होती है कि ऐसी फेमिली का वरिष्ठ पुरूष सदस्य मैं क्यों हूँ। न लाज न लिहाज। शर्म हया ताक पर रखकर चश्माधारी की माता जी जैसी तेज आवाज में शुरू हो जाती हैं।
डिन्डू को ही देखो खुद तो सींकिया पहलवान बनते जा रहे हैं, और उनकी बीवी जो अभी दो बच्चों की माँ ही है शरीर के भूगोल का नित्य निश-दिन परिसीमम करके क्षेत्रफल ही बढ़ाने पर तुली है। मैंने कहा सिन्धी मिठाई वाले की लुगाई को देखो आधा दर्जन 5 माह से 15 वर्ष तक के बच्चों की माँ है लेकिन बॉडी फिगर जीरो है। एकदम ‘लपचा मछली’ तो उन्होंने यानि डिन्डू ने किसी से बात करते हुए मुझे सुनाया कि उन्होंने अपना आदर्श पुराने पड़ोसी वकील अंकल को माना है। अंकल स्लिम हैं और आन्टी मोटी हैं। भले ही चल फिर पाने में तकलीफ होती हो, लेकिन हमारे लिए यह दम्पत्ति आदर्श है।
मैं कुछ और बोलता सुलेमान ने जोरदार आवाज में कहा बस करो यार। तुम्हारी यह बात मुझे कत्तई पसन्द नहीं है। आगे कुछ और भी जुबान से निकला तो मेरा भेजा फट जाएगा। मैंने अपनी वाणी पर विराम लगाया तो सुलेमान फिर बोल उठा डियर कलमघसीट बुरा मत मानना। मेरी फेमिली के हालात भी ठीक उसी तरह हैं जैसा कि तुमने अपने बारे में जिक्र किया था। मैं तो आजिज होकर रह गया हूँ। इस उम्र में तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ ‘टाइम पास’ कर रहा हूँ। कहने का मतलब यह कि ‘जवन गति तोहरी, उहै गति हमरी’’ यानि….।
डियर कलमघसीट अब फिरंगी भाषा में लो सुनो। इतना कहकर सुलेमान भाई ने कहा डियर मिस्टर कलमघसीट डोन्ट थिंक मच मोर बिकाज द कंडीशन ऑफ बोथ आवर फेमिलीज इज सेम। नाव लीव दिस चैप्टर कमऑन एण्ड टेक इट इजी। आँग्ल भाषा प्रयोग उपरान्त वह बोले चलो उठो राम भरोस चाय पिलाने के लिए बेताब है। तुम्हारे यहाँ आते वक्त ही मैंने कहा था कि वह आज सेपरेटा (सेपरेटेड मिल्क) की नहीं बल्कि दूध की चाय वह भी मलाई मार के पिलाए। मैं और मियाँ सुलेमान राम भरोस चाय वाले की दुकान की तरफ चल पड़ते हैं। लावारिस फिल्म में अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया गाना दूर कहीं सुनाई पड़ता है कि- ‘‘जिस की बीवी मोटी उसका भी बड़ा नाम है, बिस्तर पर लिटा दो गद्दे का क्या काम है।’’