लोकतंत्र के मंदिर से टूटती आस

3
193

–पंकज चतुर्वेदी

पिछले कुछ दिनों से भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत में जो कुछ हो रहा है, वो सीधे –सीधे इस देश की भोली-भाली जनता से छल है । आम जनता के कल्याण और विकास का दावा और वादा करके सत्ता सुन्दरी का सुख भोगने वाले हमारे जन प्रतिनिधि ऐसे होंगे ये हमने कभी सोचा भी ना था।

देश की संसद के दोनों सदनों में इस सत्र की एक दिन की कार्यवाहीभी नहीं हो सकी है ।घोटालों और नियुक्तियों को लेकर चल रहा विवाद ,देश की संसद में जनहित पर होने वाले सार्थक संवाद पर भारी पड़ रहा है। आदर्श सोसाइटी से जान छूटी तो अब राजा और थामस इस देश की एक अरब से अधिक आबादी से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए है ।

देश की सर्वोच्च लोकतान्त्रिक संस्था का प्रति दिन संचालन बहुत महंगा है ,इस संचालन में लगभग साढ़े सात करोड़ प्रतिदिन खर्च होतें है ,इस भारी राशि के अतिरिक्त सांसदों का दिल्ली आना-जाना, रहना–खाना,वेतन भत्ते ,हमारे भाग्य-विधाता इन जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा के व्यय, लोकसभा –राज्यसभा के लिए पूर्व से मुद्रित सामग्री, टेलीफोन और इन्टरनेट आदि सब खर्चे हम सब से वसूले गए कर से लिए जाते और और इन सब पर खर्च किये जाते है ।

और ये सब कर हम आम जनता की मेहनत की कमाई पर लिए जाते है ,ना कि किसी राडिया या राजा की अवैध कमाई से ।

इस सब के बाद भी भारत का आम आदमी असहाय होकर यह सब देख और सहन कर रहा है क्योकि इस लोकतंत्र में लोक मजबूर और तंत्र मजबूत है ।

परिस्थितियों से ऐसा लग रहा है कि कही सदन सुचारू चले इसके लिए भी सुप्रीम कोर्ट में याचना न करनी पड़े ।

इस सब के लिए हम किसी दल विशेष को दोषी नहीं मन सकते ,आज भाजपा और उसके सहयोगी विपक्ष में है तो कारगिल के समय कांग्रेस और उसके साथी विपक्ष में थे और तब उन्होंने भी जे.पी.सी. की मांग को लेकर ही सदन नहीं चलने दी थी। दुखद यह है कि अपने चुनाव घोषणापत्र और सभाओं में जनहित की कसमें खाने वाले देश के बड़े-बड़े राजनीतिक दल ऐसा कर रहे है और उनके प्रमुख राज नेता भी मूक दर्शक बन हुए है। अब तो ऐसा लगता है कि इस पर भी संविधान संशोधन हो कि देश कि सदन सुचारू चले नहीं तो नेता उसका दंड भुगते तब शायद ये राज नेता होश में आये ।

आलेख का आशय बिलकुल भी नहीं है कि “राजाबाबू” ने टू-जी स्पेक्ट्रम में कुछ गलत नहीं किया है,यह पूरी प्रक्रिया ही घोटाले में घुटी हुई है। प्रश्‍न यह है कि ‘राजा’ की गलती की सजा ‘प्रजा’ क्यों भुगते? भुगते ‘राजा’, ‘राडिया’ और राजा के महाराजा जिनकी सिफारिश से पहले राजा मंत्री बने और प्रधानमंत्री के निर्देशों को अनदेखा किया और फिर इन्ही महाराजा के दवाब और दम पर निर्लज्जता पूर्वक मंत्री मंडल में डटे रहें, जब तक कि बाहर जाना मजबूरी नहीं हो गया। गठबंधन में ऐसा ही होता है सहयोगियों के पाप का घड़ा जब फूटता है ,तो छींटे सब पर आते है।

यह भी विचारणीय है कि आजादी के बाद हुए आजतक के तमाम घोटालों में कौन दण्डित हुआ है? ना जाने कितने आयोग और समितिया बनी लेकिन सब अयोग्य साबित हुए और महज कागज बर्बाद कर अपने -अपने रस्ते चल दिए ।

राजनीतिक दलों का लचर और बेकार हो चूका आंतरिक लोकतंत्र भी इन हालतों का एक बड़ा कारण है। .जहा हर छोटा-बड़ा निर्णय कथित रूप से उस दल का हाई कमान ही करता है।हमारे द्वारा चुने हुए जन प्रतिनिधि की व्यक्तिगत सोच और राय पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के आगे कुछ भी नहीं है है भले वो सोच कितनी भी अच्छी क्यों ना हो ।

वर्त्तमान समय में इन दलों के अधिवेशन और सम्मलेन सिर्फ चुनाव आयोग की खानापूर्ति के लिए होते है जहा लोकतंत्र का दिखावा कर आतंरिक निर्वाचन की प्रक्रिया सम्पन हो जाती है ।

पहले ऐसे आयोजनों में जनता से जुड़े आम कार्याकर्ता की बात और सोच को सुना जाता था और फिर उसकी कल्पना पर सरकारी नीतियां बनाने का प्रयास होता था। इस सब से सरकार जनता की सरकार लगती थी। अब समय बदल गया, भ्रष्टाचारी अफसरशाही ने राजनेताओं को पंगु बना दिया है। नेता अब धन के लालच में अपनी गरिमा और दायित्व दोनों ही भूल चुके है।

आज के लोकतंत्र में क्या कोई गरीब और इमानदार क्या चुनाव लड़ सकता है? निश्चित ही नहीं। फिर कैसे तस्वीर बदले इस ओर विशेष ध्यान देने की आवशकता है एवं इस दिशा में आज से ही कुछ सार्थक पहल करनी होगी क्योकि इस विषय पर पर्याप्त विलम्ब हो चुका है। जिसकी परिणिती हम सदन में देखा रहें जहाँ सदस्य स्कूली बच्चे से भी बदतर आचरण प्रदर्शित कर रहे है।

3 COMMENTS

  1. संसद न चलने का मतलब शायद आप के समझ में नहीं आया . संसद किसके पैसे से चलती है ?संसद किसी के बाप की बपोदी नहीं है जब मन किया चलने दिया नही तो ठप कर दिया संसद चलने के लिए रोज लगभग १० करोड़ खर्च होते है ये पैसा जनता का है

  2. जनाब ,हर चीज को ना जाने राजनीतिक विचारधारा से क्यों देखा जाता है ,मैंने आलेख में कांग्रेस सहित सभी राज.दलों की बात करी है ,शायद आपने ध्यान से पढ़ा नहीं |आलेख भारतीय जनता पार्टी सही या कांग्रेस गलत है इस पर नहीं है ,अपितु इस बात पर है की आम जनता का पैसा लुट रहा है और हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहें

  3. विपक्ष के सदन न चलने देने में कुछ भी गलत नहीं है. क्या विपक्ष जनता की आवाज़ नहीं उठा रहा. अन्याय क्यों सहा जाय, जब हम १०० रुपये से सामान के लिए गारंटी चाहते हैं, और कुछ भी गलत होने पर दुकानदार से लड़ते हैं, तो क्या विपक्ष पुरे मामले पर लीपापोती करने में सरकार का सहयोग करें. क्षमा करें, आज सदन के न चलने से कष्ट सिर्फ कांग्रेसियों को हो रहा है, आम जनता दोषियों को कठघरे में खड़ा करना चाहती है, इसमे कुछ गलत भी नहीं, आम आदमी की सरकार चलने वाले लोग कैसे हैं, इसका सत्य जनता के सामने आना ही चाहिए.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here