सशक्त प्राचीन लोककला है कठपुलियों का संसार

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विश्व कठपुतली दिवस- 21 मार्च 2023 पर विशेष
– ललित गर्ग –
कठपुतली विश्व के प्राचीनतम रंगमंच पर खेला जाने वाले मनोरंजक, शिक्षाप्रद एवं कला-संस्कृतिमूलक कार्यक्रम है। कठपुतलियों को विभिन्न प्रकार की गुड्डे गुड़ियों, जोकर आदि पात्रों के रूप में बनाया जाता है और अनेक प्राचीन कथाओं को इसमें मंचित किया जाता है। लकड़ी अर्थात काष्ठ से इन पात्रों को निर्मित किये जाने के कारण अर्थात् काष्ठ से बनी पुतली का नाम कठपुतली पड़ा। प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस भी मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य इस प्राचीन लोक कला को जन-जन तक पहुंचना तथा आने वाली पीढ़ी को इससे अवगत कराना है। पुतली कला कई कलाओं का मिश्रण है, जिसमें-लेखन, नाट्य कला, चित्रकला, वेशभूषा, मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्र-निर्माण कला, रूप-सज्जा, संगीत, नृत्य आदि। भारत में यह कला प्राचीन समय से प्रचलित है, जिसमें पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब सामाजिक विषयों के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य तथा ज्ञान संबंधी अन्य मनोरंजक कार्यक्रम भी दिखाए जाने लगे हैं। पुतलियों के निर्माण तथा उनके माध्यम से विचारों के संप्रेषण में जो आनंद मिलता है, वह बच्चों के व्यक्तित्व के चहुँमुखी विकास में सहायक तो होता ही है, लेकिन यह अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक विषयों के सम्प्रेषण का भी प्रभावी माध्यम है। भारत में सभी प्रकार की पुतलियाँ पाई जाती हैं, यथा-धागा पुतली, छाया पुतली, छड़ पुतली, दस्ताना पुतली आदि।
कठपुतली के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाकवि पाणिनी के अष्टाध्याई ग्रंथ में पुतला नाटक का उल्लेख मिलता है। इसके जन्म को लेकर कुछ पौराणिक मत इस प्रकार भी मिलते हैं कि भगवान शिवजी ने काठ की मूर्ति में प्रवेश कर माता पार्वती का मन बहला कर इस कला को प्रारंभ किया, इसी प्रकार उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य के सिंहासन में जड़ित 32 पुतलियों का उल्लेख सिंहासन बत्तीसी नामक कथा में भी मिलता है। कठपुतली दिवस पर दुनिया भर में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं ताकि इस कला को लुप्त होने से बचाया जा सके एवं इसके कलाकारों से जुड़ी समस्याओं के समाधान का वातावरण निर्मित हो सके।
राजस्थान में कठपुतली कला का समृद्ध इतिहास है। कठपुतलियों को खेल माना जाता है जो कि मध्ययुग में भाट समुदाय से शुरू हुआ था। भाट समुदाय के लोग गांव-गांव जाकर कठपुतली का खेल दिखाते थे। पहले इसमें ज्यादातर राजाओं की वीरता व पराक्रम की कहानियां होती थीं। भाट समुदाय इसी खेली से अपनी आजीविका चलाता था। लोग खेल देखने के बाद उन्हें अपने घर से अनाज या कुछ धन बदले में देते थे। कठपुतली कलाकार राजाओं की बहादुरी के किस्से बनाकर सबको दिखाते थे। अमर सिंह की कहानी में किस तरह से मुगल शासन में उनके साथ छल-कपट हुआ इस पर आधारित थी। इसी में अनाकरली नाम की कठपुतली भी है जिसका नृत्य काफी प्रसिद्ध था।  
कठपुतलियों की देश और विदेश में लोकप्रियता और प्रसिद्धि दिलाने हेतु स्व. देवीलाल सामर ने बहुत काम किया। उन्होंने पारम्परिक खेलों के अलावा नवीन कथा कृतियों, नाटकों, कहानियों को कठपुतलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनके द्वारा स्थापित उदयपुर का भारतीय लोक कला मण्डल आज भी परम्परागत और नवीन कठपुतलियां तथा उनके समाज शास्त्रीय अध्ययन पर काफी काम कर रहा है। पुतलियां चाहे पुरातन हों अथवा नवीन, सैद्धान्तिक दृष्टि से एक ही नियम में बंधी हैं, और किन्हीं वास्तविक प्राणियों की नकल नहीं हो सकती। न्यूनतम अंग भंगिमाओं से अधिकतम भंगिमाओं का भ्रम उत्पन्न करना पारम्परिक एवं आधुनिक पुतलियों का परम धर्म है। चित्रकला की तरह भारतीय पुतलियां अनुकृति मूलकता से हटकर आभासिक रही है। आन्ध्र, राजस्थान एवं उड़ीसा की पुतलियां इसी क्रम में आती हैं। राजस्थान के पारम्परिक पुतलीकार अमरसिंह राठौर या राणा प्रताप के खेल से आगे नहीं बढ़ना चाहते। उड़ीसा के पुतलीकार गोपीकृष्ण के कथानक को नहीं छोडते। आन्ध्र के छाया कठपुतलीकार रामायण एवं महाभारत के ही खेल करते हैं। यही कारण है कि यह परम्परा अब मृतप्रायः सी हो चुकी है। लेकिन पुतली कला के विषय अब प्रमुख रूप से शिक्षा, मनोरंजन, सामाजिक विसंगतियों आदि से सम्बन्धित होते हैं। वसीला नामक कठपुतली नाटक ने भारत व सोवियत समाज को नजदीक लाने में मदद की।
चीन, जापान, मलेशिया, इन्डोनेशिया, बर्मा आदि देशों में कठपुतलियों का विवरण वहां के प्राचीन साहित्य में मिलता है। पुतलियां अपने विकास के समय से ही मानवीय नाटक से जुड़ गयी। विश्व के पुतली विशेषज्ञ इस बात पर एक मत हैं कि मानवीय नाटक के रंगमंचीय अवतरण से पूर्व ही पुतलियां विकास पर थीं। पुतलियां मूल रूप मनुष्य की धार्मिक भावनाओं को ही विकसित करती रहीं। यही कारण है कि पुतलियां प्रकृति से जुड़ गयी और धार्मिक व पारम्परिक प्रसंगों को पुतलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाने लगा। पुतली नाट्य लोक शैली का ही एक नाटक था जो लोक नाट्यों के रूप से विकसित हुआ। पुरातन शैली में प्रस्तुत करने वाले अधिसंख्य पात्र आज भी मुखौटा लगाते हैं। अफ्रीका, जावा, बाली, श्रीलंका, बर्मा में ऐसे नाट्य आज भी बहुत प्रचलित हैं। भारत में भी यही स्थिाति है। मेवाड का गवरी, दक्षिण का यक्ष नाट्य आदि में मुखौटों का बड़ा महत्व है। दक्षिण भारत के प्रायः सभी लोक नाट्यों की अंग भंगिमाएं, वेशभूषा आदि पुतलियों की तरह ही हैं।
यूरोपीय देशों में पुतली परम्परा 300 वर्ष की मानी गयी है। भारत में यह आदि मानव से जुड़ी है। सांस्कृतिक कार्याें में पुतली का प्रयोग और प्रतीकों का महत्व सर्वविदित है। यूनान, मिस्र आदि देशों में पुरातन समाधियों की खुदाई में अनेक ऐसे पुतले मिलें हैं जो मृतात्माओं की शांति के लिए गाड़े जाते हैं। भारत में भी इसके प्रमाण उपलब्ध हैं कि पुतलियों से ही नाटकों की उत्पत्ति हुई है। पुराणों में कहीं कहीं पुतलियों का उल्लेख मिलता है। रामायण, महाभारत, पंच तंत्र आदि में भी इनका उल्लेख है। इन ग्रन्थों में पुतलियों से सन्देशवाहक का काम लिया जाता है। महाभारत में वृहन्नला द्वारा पुतलियां सिखलाने का उल्लेख है। इसी प्रकार चमड़े, कागज और कपड़े की पुतलियों का भी वर्णन है। सातवीं शताब्दी में नीलकंठ के भाष्य मे छाया पुतलियों का वर्णन है। कथासरित सागर में एक दस्तकार का उल्लेख है जो बच्चों के मनोंरंजन के लिए पुतलियां बनाता है।
आज भी राजस्थान के पुतली कलाकार नट भाट, राव और भांडों की तरह भांभी, बलाई एवं रेबारी जाति मे पाये जाते हैं। जयपुर, उदयपुर व पश्चिमी राजस्थान में ये जातियां पाई जाती हैं। जयपुर में सैकडों परिवार कठ पुतलियां बनाते हैं, बेचते है और नाट्यों का प्रदर्शन करते हैं। इसी प्रकार पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात में भी भाट व नट जातियां कठपुतलियां के खेल करती हैं। राजस्थान के भवाई, भोपों, मंगलिये, काबडिये, खरगडे, तेजोर आदि भी पुतलियों का खेल दिखाते हैं। जयपुर के कठपुतली बनाने वालों ने अपनी एक कालोनी भी बनायी है, जहां पर कठपुतलियों के निर्माण, रंगाई, पुताई आदि का काम होता है। यहां से कठपुतलियां दुकानों, एम्पोरियमों तथा विदेशों को भेजी जाती है।
झीलों की नगरी उदयपुर अपनी खूबसूरती के साथ-साथ कठपुतली कला के लिये देश ही नही बल्कि विदेशों में अपनी छाप छोड़े हुए है। यहां की बागोर की हवेली में कठपुतली संसार संग्रहालय विदेशी पर्यटकों का मुख्य आकर्षण केन्द्र है। यहां दस या पांच नही बल्कि 163 के करीब कठपुतली से पूरा संसार लोक-कलाकारों ने बसा रखा है। जिसे देख पर्यटक काफी गद्गद् होते हैं और अपनी यादें इनके साथ सहेजते हुए अपने देश में लेकर जाते हैं। इस कठपुतली संसार में घोड़े पर युद्ध करता सैनिक, गोखड़ों के पास बैठी महारानियां भी किसी शाही महल से कम नहीं लग रही है। राजस्थान के गांवों में कोई भी मेला, धार्मिक त्योहार या सामाजिक मेलजोल कठपुतली नाच के बिना अधूरा है। कठपुतली नाच की शुरुआत ढोलक की थाप से होती है और आमतौर पर महिला मंडली की ओर से कथा के माध्यम से सुनायी जाती है। यहां पर कठपुतली नाच न केवल मनोरंजन का स्रोत है, बल्कि इस लोक कला के जरिये नैतिक और सामाजिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार का जरिया है जिसमें सामाजिक मुद्ददों और कुरीतियों को उज़ागर किया जाता है। इस दृष्टि से कठपुतली-संस्कृति को जीवंतता देना प्रासंगिक है। 

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