देशतोड़क राजनीति से सावधान होने की जरूरत
– संजय द्विवेदी
दिल्ली में क्या इससे कमजोर सरकार कभी आएगी ? कमजोर इसलिए क्योंकि इस सरकार के लिए देश के सम्मान, देश की जनता के जान-माल और हमारे सेना-सुरक्षा बलों की जान की कोई कीमत नहीं है। हो सकता है कि हालात इससे भी बुरे हों। किंतु अब यह कहने में कोई संकोच नहीं कि दिल्ली में इतनी बेचारी, लाचार और कमजोर सरकार आज तक नहीं आयी। थोपे गए नेतृत्व और स्वाभाविक नेतृत्व का अंतर भी इसी परिघटना में उजागर होता है। दिल्ली में एक ऐसे आदमी को देश की कमान दी गयी है जो आर्थिक मामलों पर जब बोलता है तो दुनिया सुनती है (बकौल बराक ओबामा)। किंतु उसके अपने देश में पिछले छः सालों से उसके राज में महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर रखा है किंतु वह आदमी अपने देश की महंगाई पर कुछ नहीं बोलता। परमाणु करार विधेयक पास कराने के लिए अपनी सरकार तक गिराने की हद तक जाने वाले हठी प्रधानमंत्री को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनकी सरकार के कार्यकाल में लोगों का जिंदगी बसर करना कितना मुश्किल है और कितने किसान उनके राज में आत्महत्या कर चुके हैं। यह एक ऐसी सरकार है जिसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता नहीं पिछले पांच सालों में अकेले नक्सली आतंकवाद में ग्यारह हजार लोग मारे जा चुके हैं। वह इस बात पर विमर्श में लगी है कि सेना का इस्तेमाल हो या न हो। क्या ऐसा इसलिए कि नक्सली आतंक एक ऐसे इलाके में है जहां आम आदिवासी रहते हैं जिन्हें मिटाने और समाप्त करने का साझा अभियान नक्सली नेताओं और सरकार ने मिलकर चला रखा है। झारखंड से लेकर बस्तर तक की जमीन जहां उसके असली मालिक वनपुत्र और आदिवासी रहते हैं, एक युद्ध भूमि में तब्दील हो गयी है। जहां विदेशी विचार(माओवाद) और विदेशी हथियारों से लैस लोग 2050 तक भारतीय गणतंत्र पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। फिर भी हमारी सरकार को इस इलाके में सेना नहीं चाहिए। भले नक्सली तीन माह में सौ से ज्यादा सीआरपीएफ जवानों को अकेले बस्तर में ही न मार डालें। वे हजारों करोड़ की लेवी वसूलते हुए इन जंगलों में लैंड माइंस बिछाते रहें और हमारा राज्य रोम के जलने पर नीरो की तरह बांसुरी बजाता रहे।
अब थोड़ा देश के मस्तक पर नजर डाल लें। यह जम्मू कश्मीर का इलाका है जो कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था। आज इस क्षेत्र को हमारी सरकारों की घुटनाटेक और कायर नीतियों ने घरती के नरक में बदल दिया है। हमारी सेना के अलावा इस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कोई नहीं बचा है। कश्मीर के पंडितों के विस्थापन के बाद इस पूरे इलाके में पाकपरस्त आतंकी संगठनों का हस्तक्षेप है। उनके रास्ते में सबसे बड़ी बाधक भारतीय सेना है। हमारी महान सरकार अब सेना के हाथ से भी कवच-कुंडल छीनने पर आमादा है ताकि कश्मीर में भारतीय राज्य की एक और पराजय सुनिश्चित की जा सके। इस काम में दिल्ली की सरकार बराबर की भागीदार है। कश्मीर के मुख्यमंत्री और उनके पिता का सर्वाधिक दबाव इस बात पर है कि आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव किया जाए। यह बदलाव क्यों किया जाए इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। किंतु बदलाव होने जा रहा है और प्रधानमंत्री ने उसे मंजूरी भी दे दी है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने जा रही है। यह एक ऐसी सूचना है जो हर भारतीय को हतप्रभ करने के लिए काफी है। देश के साठ सालों बाद भी हमारी सरकार अपनी ही सेना के खिलाफ खड़ी है। क्या भारतीय की राजनीति इतनी दिशाहारा और थकाहारा हो चुकी है? क्या हमारी सरकारें अपना विवेक खो चुकी हैं? वे सेना को मानवता और संवेदनशीलता सिखा रही है। नए बदलाव में सेना शत्रु को पकड़ने और गोली चलाने का अधिकार खो देगी। फिर सेना की जरूरत ही क्या है। ऐसे हालात में कहीं यह कश्मीर को पाक को सौंप देनी की एक लाचार कवायद तो नहीं है। आतंकवाद के खिलाफ जब हमें कड़े संदेश देने की जरूरत है तब हम अपनी सेना को ही कमजोर बनाना चाहते हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारी सेना ने अनेक अवसरों पर अपने अप्रतिम साहस के प्रदर्शन से भारत के मान को बचाया है।जबकि राजनैतिक नेतृत्व सदा जमीनें छोड़ता, युद्धबंदियों को छोड़ता और समझौते करता आया है। इन्हीं समझौतों और वोट की कथित लालच ने हमारे नेताओं को इतना बेचारा बना दिया है कि हमारे नेता ही कहते हैं कि अगर अफजल गुरू को फांसी दी गयी तो कश्मीर सुलग जाएगा। तो आप बताएं इस समय कश्मीर क्यों सुलग रहा है। किसे फांसी दी गयी है। कश्मीर के नेता भारत के साथ रहने की कीमत वसूल रहे हैं। उन्हें इस देश से कोई लेना-देना नहीं है। नहीं तो वे विस्थापित हिंदुओं की वापसी की बात क्यों नहीं करते, पर उन्हें तो सेना की वापसी चाहिए ताकि वे आराम से पाकिस्तानी हुक्मरानों की गोद में जा बैठें। जो अब्दुला परिवार सालों से कश्मीरी राजनीति का सिरमौर बना है, भारत ने उनका इतना सम्मान किया पर वे आज अफजल गुरू की फांसी रोकने की अपीलें कर रहे हैं। दूसरा मुफ्ती परिवार भारतीय संविधान की शपथ लेकर देश का गृहमंत्री बनता है तो अपनी ही बेटी का अपहरण करवाकर आतंकियों की रिहाई का नाटक रचता है। दुर्भाग्य से ऐसे ही लोग भारत भाग्य विधाता बनकर बैठे हैं। इसी तरह पूर्वांचल के सात राज्यों का बुरा हाल है। असम से लेकर मणिपुर तक बुरी खबरें हैं। बांग्लादेशी घुसपैठियों ने असम से लेकर पश्चिम बंगाल तक हालात बदतर कर रखें हैं। हमारी सरकारें उनकी मिजाजपुर्सी में लगी हैं। राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं को सिर्फ पांच साल और वोट बैंक दिखता है। सो वे घुसपैठियों के राशन कार्ड बनवाने, मतदाता परिचय पत्र बनवाने और अवैध बस्तियां बसाने में सहयोगी बनते हैं। जाहिर तौर पर इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बहुत विकराल स्वरूप ले चुका है।
हम अपनी सेना और सुरक्षा बलों को लाचार बना कर पहले से तैयार बैठे शत्रुओं को अवसर सुलभ करा रहे हैं। अभी पाक प्रेरित आतंकवाद के लिए भी हमारी अपनी ताकत क्या है। हमारी सरकार को हर शिकायत लेकर अमरीका के दरबार में जाना पड़ता है। कल अगर सेना का भी मनोबल टूट गया तो उस दृश्य की कल्पना करना भी मुश्किल है कि हमारा क्या होगा। देश इस देश के लोगों का है, जो इसे बेबस निगाहों से देख रहे हैं। यह देश अगर दलित, मुस्लिम और ईसाई जैसी राजनीतिक बोलियों से चलाया जाएगा तो इसे कोई बचा नहीं सकता। शायद इसीलिए हम देश का तेजी से विघटन होता देख रहे है। यह विघटन चरित्र का है, नैतिकता का है, देशभक्ति का भी है। देश का राजनीतिक नेतृत्व किसी भी प्रकार का आर्दश प्रस्तुत कर पाने में विफल है। सारे संकटों में मौन ही हमारे राजनैतिक नेतृत्व का आर्दश बन गया है। आप देखें तो हाल के तीन बड़े संकटों भोपाल गैस त्रासदी, कश्मीर संकट और महंगाई पर देश की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी का कोई बयान नहीं आया है। ऐसा नेतृत्व क्या आपको संकटों से निजात दिला सकता है या आपकी जिंदगी के अँधेरों से मुक्ति दिला सकता है। प्रधानमंत्री से कोई उम्मीद करना तो व्यर्थ ही है क्योंकि उनकी नजर में हम भारत के लोगों का कोई मतलब नहीं है। ऐसे घने अंधेरे में आशा की कोई किरण नजर आती है तो वह शक्ति जनता के पास ही है कि वह अपने राजनीतिक नेतृत्व पर कोई ऐसा दबाव बनाए जिससे वह कम से कम देश के हितों, सुरक्षा के साथ सौदेबाजी न कर सके। देश में एक ऐसा अराजनैतिक अभियान शुरू हो जहां देश सर्वोपरि है, इस भावना का विस्तार हो सके। वरना हमारी राजनीति हमें यूं ही बांटती,तोड़ती और कमजोर करती रहेगी।
“वह इस बात पर विमर्श में लगी है कि सेना का इस्तेमाल हो या न हो”
सेना भी इसी राग में बोल रही है या उससे बुलवाया जा रहा है की नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सेना नहीं जाएगी ?
पूरी पृष्ठभूमि तैयार है इस देश को तोड़ने की जिसकी तैयारी भाषायी राज्य बनाकर बहुत पहले की जा चुकी .
बहुत सुन्दर आलेख है संजय जी का, जैसी चतुराई से इन्होने ब्राहमणों के पलायन के उपरांत कश्मीर को लेकर उदासी और असंतोष दिखाया है वह इनके बौद्धिक कौशल का सरोकार जरुर है पर सच्चाई नहीं ‘नेहरू’ कश्मीरी थे क्योंकि उनके पूर्वज कश्मीर से निकले थे और इलाहबाद में आकर बड़े वकील के रूप में अपनी जगह बनाये थे, सहज है उनके लिए कश्मीर में जगह नहीं थी, और उनको निकलना था निकले इलाहबाद ने उन्हें स्वीकार ही नहीं किया उनको देश संभालने का गौरव दिया, डॉ.कर्ण सिंह जैसे कश्मीरी समझदार और बुद्धिमान तो हो सकते है पर न तो उन्हें कश्मीर और न ही उनकी देश को जरुरत महशूश हुई मुझे ही नहीं हर आदमी को आशा थी की अच्छे कांग्रेसी को दुबारा कांग्रेस में मौका मिलेगा पर हुआ ठीक इसके उल्टा ‘सोनिया जी इस देश को कितना समझती है, राहुल उनके पुत्र है नौकरशाह प्रधानमंत्री के उपरांत उनके राजतिलक की तैयारी चल रही है,
आपके सारे तथाकथित नेता इनके इंतजामात में लगे है, इनका गुडगान करिए, दुन्दुभी बजाईये कहाँ आप सच लिखने की फजीहत मोल ले रहे है.
बेईमानी ईमानदारी से करने की आदत इस देश का संस्कार निगलने में कामयाब हो रही इसके लिए पटेल नहीं “नेहरू और उनकी सल्तनत जिम्मेदार है” देश बचाना है तो उन्हें रोकिये कश्मीर भी बचेगा और जंगल भी उत्तर भी और दक्षिण भी. बिहार छत्तीसगढ़ एम् पी और झारखण्ड के चप्पे पर कोई भी बस सकता है पर कश्मीर केवल कश्मीरियों के लिए ही रहेगा किसकी निति है,भेजिए बिहारियों को या खोलिए उत्तर प्रदेश के दलितों के लिए न पंडित भागेगा और न ही आतंकी घुसेगा. पर औरों के लिए जगह भी तो होनी चाहिए, स्वर्गीय प्रभाष जी ‘जोशी’ को शायद आपने पढ़ा होगा सिलिकोन बैल्ली के पंडितों के बारे में ?
हर बार की तरह श्री संजय जी की चिंता जायज है. वाकई हमारी सेना बहेड ताकतवर है, लोग बेबस है और सरकार कामजोर नहीं बल्कि मौका परस्त है. आज भी अंग्रजो की प्रतिनिधि बही हुई है. जिनकी शिक्षा विदेशी होती है, विदेशी नितीओं पर होती है उसकी सोच भी गुलामी की मानसिकता प्रदर्शित करती है. हमें अत्याचार सहने की सेकड़ो सालो से आदत है.
इस देश में सच्चे अर्थो में बदलाब तभी आ सकता है जब हमें हमारा सच्चा इतिहास बताया / पढाया जायेगा. स्कूल सिक्षा में नेतिकता पर जोर दिया जाय. स्कूल को समाज से जोड़ा जायेगा. जितना ध्यान सेना पर दिया जाता है उतना ही धन और ध्यान सिक्षा (देशी सिक्षा) पर दिया जय तो कुछ सालो में ही हम अपना पुराना गौरव वापस पा सकते है.