बिहार की गर्म जलवायु में भी सेब की सफल खेती

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रिंकु कुमारी
मुजफ्फरपुर, बिहार

जब भी हम सेब की बात करते हैं तो हमारे सामने जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश का नाम सामने आता है. माना जाता है कि इन दोनों राज्यों की ठंडी आबोहवा सेब की खेती के लिए मुफीद है. लेकिन क्या आप यकीन करेंगे कि बिहार जैसे गर्म जलवायु वाले प्रदेश में भी कोई किसान सेब की सफलतापूर्वक खेती कर सकता है? सुनने में यह थोड़ा आश्चर्य हो सकता है, लेकिन इसे मुमकिन कर दिखाया है एक प्रगतिशील किसान राजकिशोर सिंह कुशवाहा ने. लीची के लिए मशहूर मुजफ्फरपुर की धरती पर सेब की खेती कर राजकिशोर सिंह कुशवाहा ने यहां के किसानों को एक नयी दिशा दी है. ज़िले के मुशहरी प्रखंड स्थित नरौली गांव के इस किसान के खेत में वर्तमान में सेब के 250 पेड़ फलों से लहलहा रहे हैं.

दरअसल स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद राजकिशोर राजस्थान घुमने गये थे. जहां सीकर जिले के एक किसान से उनकी मुलाकात हुई, जिनके पास सेब के बगान थे. उसी किसान से प्रेरित होकर राजकिशोर भी हिमाचल प्रदेश जाकर सेब के 50 पौधे लाए और अपने खेत में लगाया. राजकिशोर कहते हैं कि मेरे पास दस एकड़ जमीन है, जिसमें पुश्तों से परंपरागत खेती होती आ रही थी. मैंने खेती में कुछ नया करने के ख्याल से 2018 में 12 कट्ठा जमीन में सेब के पौधे लगा कर किए. अनुभव की कमी के कारण दो साल बाद लगभग सभी पौधे सूख गये, लेकिन मैंने हार नहीं मानी और हिमाचल प्रदेश व कश्मीर के सेब किसानों से प्रशिक्षण लेकर दोबारा सेब की खेती शुरू की. जिसके बाद फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. राजकिशोर कुशवाहा से प्रेरित होकर आसपास के कई किसानों ने भी अब सेब की खेती करने की इच्छा जताई है. किसानों की मांग पर उन्होंने सेब की नर्सरी भी शुरू की है, जिसमें करीब सेब के 5000 पौधे हैं.

सिर्फ सेब के पौधे बेचकर ही राजकिशोर प्रति वर्ष करीब दो लाख रुपए कमाते हैं. वे कहते हैं कि एक एकड़ खेत में 435 पौधे लगते हैं. उचित देखभाल करने पर उन्नत किस्म के पौधे से किसान तीसरे साल से प्रति पौधा एक क्विंटल सेब की उपज कर सकते हैं. राजकिशोर का दावा है कि दस कट्ठा जमीन में सेब की खेती से 10 लाख रुपए की आमदनी की जा सकती है. राजकिशोर की नर्सरी से न केवल बिहार बल्कि दक्षिण भारत के कई राज्यों के किसानों ने भी सेब के पौधे मंगा कर अपने खेतों में लगाए हैं. उनके बगीचे में तिरहुत प्रक्षेत्र के आयुक्त से लेकर पूसा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक तक आकर खेती का मुआयना कर चुके हैं. आज वह बिहार में ‘एप्पल मैन’ के नाम से मशहूर हो चुके हैं.

इसके अतिरिक्त अब पूर्णिया के बनमनखी प्रखंड स्थित धरहरा पंचायत में भी कृषि विभाग की पहल पर सेब की खेती शुरू हुई है. किसान राजेंद्र प्रसाद साह ने करीब सात एकड़ जमीन पर 1000 सेब के पौधे लगाए हैं. इसके अलावा 1000 अमरूद एवं 500 नींबू के पौधे भी लगाए हैं. कृषि विभाग ने 90 फीसदी अनुदान पर ड्रिप सिंचाई पद्धति का लाभ मुहैया कराया है. जैविक खाद के उत्पादन के लिए कंपोस्ट यूनिट भी लगाया गया है. राजेंद्र प्रसाद साह कहते हैं कि मुझे देखकर अब आसपास के कई किसान भी सेब की खेती के लिए आगे आए हैं. उधर, कटिहार के युवा किसान मंजीत मंडल, पूर्णिया के किसान खुर्शीद आलम, औरंगाबाद के किसान श्रीकांत सिंह समेत प्रदेश के कई किसान इस बात को नकारने में लगे हैं कि बिहार की जलवायु में सेब की खेती नहीं हो सकती है. इन सब किसानों ने सेब के उत्पादन में सिरमौर कश्मीर व हिमाचल प्रदेश के वर्चस्व को तोड़ने के लिए कमर कस लिया है.

लीची, आम, केले व अमरूद की खेती से आगे बढ़ते हुए किसानों ने सेब की सफलतम खेती करके सरकार का भी ध्यान अपनी ओर खींचा है. यही कारण है कि अब सेब की खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकारी कवायद भी शुरू हो गयी है. उद्यान विभाग राज्य के चिन्ह्ति जिलों में विशेष उद्यानिकी फसल योजना के तहत सेब के क्षेत्र विस्तार करने की पहल शुरू की है. विभाग प्रति इकाई लागत पर किसानों को 50 फीसदी अनुदान देगा. किसानों को इकाई लागत 2,46,250 प्रति हेक्टेयर पर भी अनुदान का लाभ मिलेगा. पायलट प्रोजेक्ट के तहत मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, बेगूसराय, कटिहार, औरंगाबाद एवं भागलपुर जिलों का चयन किया है. इस संबंध में डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के उद्यान विभाग में कार्यरत कृषि वैज्ञानिक डाॅ नीरज बताते हैं कि सेब के पौधे की कुछ किस्में हैं, जो 40 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले जलवायु क्षेत्र में भी उगाये जा सकते हैं.

बिहार में शुरुआती दौर में उत्साहजनक परिणाम दिख रहा है. फल-फूल भी आ रहे हैं, लेकिन अब देखना होगा कि ग्राहकों में हिमाचल व कश्मीर के सेब की तुलना में यहां उपजने वाले सेब की स्वीकार्यता कितनी होती है? साथ ही आर्थिक पहलू को भी अभी देखना-परखना बाकी है. गर्म प्रदेशों में सेब के पौधे में जो फल आते हैं, उसका रंग हरा होता है. रंग, मिठास व उत्पादन को भी परखा जा रहा है. कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि गर्म प्रदेशों के लिए हरमन 99, अन्ना एवं डोरसेट गोल्डन प्रजाति के पौधे ही अनुकूल हैं. जिसकी खेती कर बिहार के कई किसान अच्छी आमदनी कर रहे हैं. उद्यान विभाग के अधिकारी बताते हैं कि सिर्फ परंपरागत खेती से किसानों की आमदनी नहीं बढ़ेगी बल्कि यहां के किसानों को वैज्ञानिक तकनीक की मदद से बागवानी फसलों को भी लगाना होगा, तभी उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी.

दरअसल, झारखंड के अलग होने के बाद बिहार की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से कृषि पर निर्भर हो गयी थी. अकूत खनिज संपदा, कल-कारखाने झारखंड के हिस्से चले गये. बिहार के पास बचा सिर्फ खेत-खलिहान, नदी-तालाब, बाढ़ और सुखा की स्थिति. ऐसे में यहां के लोगों के पास किसानी, पशुपालन और स्वरोजगार के अलावा कुछ खास नहीं बचा था. खेतविहीन लोग जहां दूसरे प्रदेशों की ओर पलायन कर अपनी रोजी-रोटी की तलाश में लगे, वहीं कुछ बेरोजगार लोग असंगठित क्षेत्रों में कामगार बनकर, ठेला-रेहड़ी लगाकर एवं गृह निमार्ण-कार्य में लग कर अपने परिवार का भरण-पोषण करने लगे. जिनके पास खेतीयोग्य जमीन थी, वे किसानी करके अपने जीवन की गाड़ी को खींच रहे हैं.

बिहार के अधिकतर किसान परंपरागत खेती करते हैं. धान, गेहूं, मक्के, सब्जी की खेती के अलावा कुछ हिस्सों में मखाना, मसाले की भी खेती होती है. हालांकि महंगे बिजली, पानी, खाद-खल्ली एवं खेतिहर मजदूरों की कमी के कारण परंपरागत खेती करना उतना फायदेमंद नहीं रहा कि किसान अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला सकें. ऐसे हालात में सूबे के कई जिलों के किसान परंपरागत खेती के साथ-साथ कुछ नकदी फसल उगा रहे हैं, तो कुछ राजकिशोर कुशवाहा जैसे किसान भी हैं, जो नये-नये व वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग कर खेती में सफलता के नए आयाम गढ़ रहे हैं. 

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