सुमित्रानंदन पंत एक युगांतकारी साहित्यकार

0
326

सुमित्रानंदन पंत स्मृति दिवस- 28 दिसम्बर 2020 पर विशेष


-ः ललित गर्ग:-
भारतीय संस्कृति, जीवनमूल्य एवं राष्ट्रीय जीवन को निर्मित करने में साहित्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दी साहित्य के आरंभ और विकास में कई महान कवियों और रचनाकारों ने अपना योगदान दिया है, जिनमें से एक हैं छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत। पंत नए युग के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं, वह मुख्यतः भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आदर्शवादिता से प्रेरित थे। जहां तक जीवन की पहुंच है, वहां तक साहित्य का क्षेत्र है। सुमित्रानंदन पंत अपने समय के ही नहीं, इस शताब्दी के प्रख्यात राष्ट्रीय कवि, विचारक, राष्ट्रवादी और मानवतावादी है। उन्होंने साहित्य का जो स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है, उसकी क्रांतवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं, वरन सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन की प्रेरणा भी है। वे राष्ट्रीयता एवं भारतीयता के प्रेरक व्यक्तित्व हैं।
सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक ग्राम में 20 मई 1900 ई. को हुआ। उनका निधन 28 दिसम्बर 1977 को हुआ। सुमित्रानंदन पंत के जन्म के मात्र छ घंटे के भीतर ही उनकी मां का देहांत हो गया और उनका पालन-पोषण दादी के हाथों हुआ। वर्ष 1930 में हुए नमक सत्याग्रह के दौरान वह देश सेवा के प्रति गंभीर हुए। इस दौरान संयोगवश उन्हें कालाकांकर में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके हृदय में अंकित होने लगे उससे उनके भीतर काव्य रचना और जीवन संघर्ष में दिलचस्पी घर करने लगी। उन्होंने सात वर्ष की उम्र में ही कविता लिखना आरंभ कर दिया था। उनकी प्रमुख रचनाओं में उच्छवास, पल्लव, मेघनाद वध, बूढ़ा चांद आदि शामिल हैं।
हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ हैं जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और पंत। जिनमें पंत का संपूर्ण साहित्य सत्यम् शिवम् सुंदरम् के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है। उनके जीवन के सारे सिद्धान्त मानवीयता की गहराई से जुड़े हैं और उस पर वह अटल भी रहते रहे हैं किन्तु किसी भी प्रकार की रूढ़ि या पूर्वाग्रह उन्हें छू तक नहीं पाता। वे हर प्रकार से मुक्त स्वभाव के हैं और यह मुक्त स्वरूप भीतर की मुक्ति का प्रकट रूप है। यह उनके व्यक्ति की बड़ी उपलब्धि है। स्वभाव में एक औलियापन है, फक्कड़पन है और फकीराना अन्दाज है और यह सब नैसर्गिक रूप से उनमें विद्यमान रहा। जहां प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और सौंदर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं वहीं दूसरे चरण की कविताओं में छायावाद की सूक्ष्म कल्पनाओं व कोमल भावनाओं के और अंतिम चरण की कविताओं में प्रगतिवाद, राष्ट्रवाद और विचारशीलता के। उनकी सबसे बाद की कविताएं अरविंद दर्शन और मानव कल्याण की भावनाओं से ओतप्रोत हैं। पंत परंपरावादी आलोचकों और प्रगतिवादी व प्रयोगवादी आलोचकों के सामने कभी नहीं झुके। उन्होंने अपनी कविताओं में पूर्व मान्यताओं को नकारा नहीं। “वीणा” तथा “पल्लव” में संकलित उनके छोटे गीत विराट व्यापक सौंदर्य तथा पवित्रता से साक्षात्कार कराते हैं। “युगांत” की रचनाओं के लेखन तक वे प्रगतिशील विचारधारा से जुडे प्रतीत होते हैं। “युगांत” से “ग्राम्या” तक उनकी काव्ययात्रा प्रगतिवाद के निश्चित व प्रखर स्वरों की उद्घोषणा करती है। उनकी साहित्यिक यात्रा के तीन प्रमुख पडाव हैं- प्रथम में वे छायावादी हैं, दूसरे में समाजवादी आदर्शों से प्रेरित प्रगतिवादी तथा तीसरे में अरविन्द दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी। आपकी प्रमुख कृतियां है वीणा, उच्छावास, पल्लव, ग्रंथी, गुंजन, लोकायतन पल्लवणी, मधु ज्वाला, मानसी, वाणी, युग पथ, सत्यकाम।
सुमित्रानंदन पंत को हिंदी साहित्य में उल्लेखनीय सेवाओं के लिए सन् 1961 में पद्मभूषण, 1968 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। पंत के नाम पर कौसानी में उनके पुराने घर को जिसमें वे बचपन में रहा करते थे, सुमित्रानंदन पंत वीथिका के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।
सुमित्रानंदन पंत का बचपन का नाम गुसाई दत्त था और उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अल्मोड़ा में ही हुई। सन् 1918 में वे अपने मँझले भाई के साथ काशी आ गए। उन्हें अपना नाम पसंद नहीं था, इसलिए उन्होंने अपना नाम बदल कर सुमित्रानंदन पंत कर लिया। यहाँ म्योर कॉलेज में उन्होंने इंटर में प्रवेश लिया। 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के भारतीयों से अंग्रेजी विद्यालयों, महाविद्यालयों, न्यायालयों एवं अन्य सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार करने के आह्वान पर उन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे। उनका जन्म ही बर्फ से आच्छादित पर्वतों की अत्यंत आकर्षक घाटी अल्मोड़ा में हुआ था, जिसका प्राकृतिक सौन्दर्य उनकी आत्मा में आत्मसात हो चुका था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भंवरा गुंजन, उषा किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या-ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।
साहित्यकार किसी भी देश या समाज का निर्माता होता है। वह समाज और देश को वैचारिक पृष्ठभूमि देता है, जिसके आधार पर नया दर्शन विकसित होता है। वह शब्द शिल्पी ही साहित्यकार कहलाने का गौरव प्राप्त करता है, जिसके शब्द मानवजाति के हृदय को स्पंदित करते रहते हैं। यह बात पंत के व्यक्तित्व एवं कृृतित्व पर अक्षरतः सत्य साबित होती है। दो और दो चार होते हैं, यह चिर सत्य है पर साहित्य नहीं है क्योंकि जो मनोवेग तरंगित नहीं करता, परिवर्तन एवं कुछ कर गुजरने की शक्ति नहीं देता, वह साहित्य नहीं हो सकता अतः अभिव्यक्ति जहां आनंद का स्रोत बन जाए, वहीं वह साहित्य बनता है। इस दृष्टि से पंत का सृजन आनन्द के साथ जीवन को एक नयी दिशा देता है।
सुमित्रानंदन पंत की सृजन एवं साहित्य की यात्रा का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं रहा। वे देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं है, बल्कि उनसे भी आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है। उनकी कविताएं मानव-मन, आत्मा की आंतरिक आवाज, जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष, आध्यात्मिक पहलुओं की व्याख्या, नश्वर संसार में मानवता का बोलबाला जैसे अनादि सार्वभौम प्रश्नों से जुड़ी है।
सुमित्रानंदन पंत सच्चे साहित्यकार एवं राष्ट्रवादी कवि थे, उनकी यह अलौकिकता है कि वे स्वयं को विस्मृत कर मस्तिष्क में बुने गये ताने-बाने को कागज पर अंकित कर देते थे। युगीन चेतना की जितनी गहरी एवं व्यापक अनुभूति उनमें थी, उतनी अन्यत्र कहीं भी दिखाई नहीं देती। उनका मानना है कि अनुभूति एवं संवेदना साहित्यकार की तीसरी आंख होती है। इसके अभाव में कोई भी व्यक्ति साहित्य-सृजन में प्रवृत्त नहीं हो सकता क्योंकि केवल कल्पना के बल पर की गयी रचना सत्य से दूर होने के कारण पाठक पर उतना प्रभाव नहीं डाल सकती।
सुमित्रानंदन पंत भारत की एक अमूल्य थाती है, जब तक सूर्य का प्रकाश और मानव का अस्तित्व रहेगा, उनकी उपस्थिति का अहसास होता रहेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,675 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress