सुनिल आम्बेकर की पुस्तक से संघ के प्रति बढती ललक

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                                 मनोज ज्वाला
     

      राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अब तक अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं । कुछ इसी के स्वयंसेवकों-समर्थकों द्वारा लिखी गई हैं, तो कुछ इसके विरोधियों द्वारा भी ।  कुछ पुस्तकें इसके विचार-दर्शन पर हैं , तो कुछ  इसके विविध कार्यक्रमों पर । किन्तु सर्वांगपूर्ण लेखन कम ही हुआ है । इसका कारण यह है कि संघ को जानने समझने के लिए संघ में समाहित होना तो अपरिहार्य है ही, इसके विविध कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में निहित इसके विचार-दर्शन का सम्यक ज्ञान होना भी आवश्यक है । सुनिल आम्बेकर , जो कोई घोषित समाज शास्त्री अथवा पेशेवर साहित्यकार तो नहीं हैं ; बल्कि प्राणिशास्त्र में स्नातकोत्तर हैं सो इन दोनों शर्तों को पूरा करते हैं । वे संघ के स्वयंसेवक-प्रचारक  भी हैं और संघ में बडे-बडे उच्च दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन करते रहने के कारण  इसके  विचार-दर्शन के मर्मज्ञ भी हैं । “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ; स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र”  नामक इनकी पुस्तक में जो तथ्य और सत्य हुए वर्णित हैं, उन्हें पढने से पाठकों में संघ के प्रति ललक बढ जाती है । दस अध्यायों और २७२ पृष्ठों की इस पुस्तक में संघ की स्थापना से ले कर सन २०२० तक के उसके क्रमिक आकार-विस्तार सहित उसके विविध क्रिया-कलापों, उद्देश्यों, योजनाओं एवं सांगठनिक व्याप्ति और कार्य-पद्धति तक सब कुछ वर्णित है । पुस्तक की प्रस्तावना संघ के राष्ट्रीय प्रमुख मोहन भागवत जी ने लिखी है । प्रस्तावना भी ऐसी है कि उससे संघ की विचारणा-धारणा एवं उसकी सांगठनिक संरचना का बोध हो जाता है सहज ही; जबकि आगे लेखक ने तो संघ की कार्य-पद्धति को भी बोधगम्य तरीके से उजागर कर दिया है ।

     प्रायः सभी अध्यायों में अनेक शीर्षकों-उपशीर्षकों से धीर-गम्भीर तथ्यों का समायोजन हुआ है, जो ज्ञानवर्द्धक भी हैं और प्रेरक व उत्साहवर्द्धक भी । ‘संघ की भावभूमि’ नामक प्रथम अध्याय में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के संघर्ष-काल की उन परिस्थितियों का वर्णन है जिनके कारण कांग्रेसी स्वतंत्रता सेनानी डॉ० केशव बलिराम हेडगेवार को कांग्रेस की नीतियों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करनी पडी । दूसरा अध्याय ‘संघ की कार्यप्रणाली- शाखा-पद्धति व संरचना’ शीर्षक से है , जिसमें संघ के प्रारम्भिक स्वरुप, उसके विस्तार , प्रारम्भिक प्रार्थना, जयघोष, स्वयंसेवकों के गणवेश आदि में समयानुकूल होते रहे परिवर्तनों की जानकारी दी गई है । बहुत कम लोगों इस पुस्तक में उद्घाटित यह सत्य मालूम है , कि संघ के दैनिक-नियमित कार्यक्रमों में प्रार्थना के पश्चात एक नारा लगता था- ‘राष्ट्रगुरु समर्थ रामदास की जय’ ; जिसे सन १९४० में बदल कर ‘भारत माता की जय’ सुनिश्चित किया गया । अगला अध्याय ‘भारत का इतिहास’ है , जिसमें लेखक ने यह बताया-समझाया है कि भारत के वास्तविक इतिहास को अंग्रेजों द्वारा किस तरह से विकृत किया गया तथा संघ उसके पुनर्लेखन के निमित्त प्राचीन पाण्डुलिपियों के संकलन संरक्षण-अन्वेषण और विभिन्न स्थानों-शहरों के वास्तविक नामकरण की दिशा में किस तरह से सक्रिय व सफल रहा है । ‘हिन्दुत्व का पुनरोदय’ नामक पांचवें अध्याय में भारतीय राष्ट्रीयता पर विशद विमर्श हुआ है और यह समझाया गया है कि ‘भारत- एक हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा संघ का कोई राजनीतिक वाद नहीं है ; बल्कि सांस्कृतिक पुनरुत्थान का एक आयाम है और यही भारत की वास्तविकता, मौलिकता व पहचान है । इस अध्याय में प्राचीन पद-दलित मन्दिरों के पुनरोद्धार , संस्कृत भाषा के प्रसार एवं गौ-रक्षा की महत्ता-अवश्यकता और भारत की राष्ट्रीय एकात्मता-अखण्डता व भौगोलिक सीमा-सुरक्षा के लिए समान नागरिक संहिता की अपरिहार्यता स्थापित-प्रमाणित करते हुए इन मुद्दों पर संघ के विचारों की स्पष्टता के साथ पर्याप्त व्याख्या हुई है । पुस्तक में छठा अध्याय ‘जाति-प्रथा और सामाजिक न्याय’ शीर्षक से है; जिसमें प्राचीन भारतीय समाज की वर्ण-व्यवस्था के उद्भव-पराभव से ले कर वर्तमान जाति-व्यवस्था की अस्पृश्यताजनित अवांछनीयताओं  के  दुष्प्रभाव तक समस्त सामाजिक उतार-चढाव के वैज्ञानिक-शास्त्रीय विश्लेषण तथा सामाजिक समरसता के सर्वमान्य सांस्कृतिक सूत्र-समीकरण और वनवासी कल्याण केन्द्र व अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सरिखे संघ-प्रेरित विभिन्न संगठनों के तत्सम्बन्धी विविध कार्यक्रमों के अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं । इसी तरह से ‘संघ परिवार’ नामक सातवें अध्याय में उन तमाम संगठनों की विविध विषयक गतिविधियों का व्योरा प्रस्तुत किया गया है, जिनका सूत्र-संचालन संघ के स्वयंसेवकों द्वारा होता है । बताया गया है कि राष्ट्र-जीवन का कोई भी ऐसा अंग और समाज का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें ततसम्बन्धी संगठनों के माध्यम से संघ सक्रिय नहीं हो । स्त्रियों, विद्यार्थियों, शोधार्थियों, किसानों, श्रमिकों, साहित्यकारों, अधिवक्ताओं, शिक्षकों, व्यवसायियों, ग्राहकों, उद्यमियों, चिकित्सकों सहित दिव्यांग व्यक्तियों, सेवा-निवृत सैनिकों-शासकीय अधिकारियों, उद्योगपतियों तक सब के बीच विविध संज्ञाओं से कायम है संघ । पुस्तक में आम्बेकर जी ने संघ के इन तमाम स्वरुपों की गतिविधियों का ऐसा व्योरा प्रस्तुत किया कि उसे पढ कर कोई भी व्यक्ति  स्वयंसेवक बने बिना कतई नहीं रह सकता । और तो और सुदूर पीछडे क्षेत्रों में वंचितों-बेरोजगारों, युवाओं-महिलाओं के आर्थिक उन्नयन हेतु ‘माइक्रों फिनांसिंग’ बैंकों व सहकारी समितियों के क्रियान्वयन एवं समेकित ग्राम्य प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण के लिए भी संघ भिन्न-भिन्न तरह की परियोजनायें संचालित कर रहा है ; यह सब इस पुस्तक से जान कर संघ के प्रति व्याप्त आम धारणा बिल्कुल बदल जाती है । इतना ही नहीं , इस पुस्तक में इस तथ्य का भी विस्तार से वर्णन है कि संघ-परिवारी संगठन राष्ट्रीय हितों के विभिन्न मुद्दों को ले कर समय-समय पर सरकार से संवाद भी करते रहे हैं और आवश्यकतानुसार सरकार के विरुद्ध संघर्ष भी । आपात शासन के दौरान लोकतंत्र की पुनर्बहाली हेतु हुए संघर्ष एवं रामजन्मभूमि की मुक्ति और कश्मीर से धारा-३७० की छुट्टी के आन्दोलन इसके उदाहरण हैं, जिनके बावत अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं । पुस्तक का आठवां अध्याय ‘भूमण्डलीकरण के दौर में’ है ; जिसमें विश्व भर के हिन्दुओं को संगठित करने , प्रवासी भारतीयों के बीच भारत के प्रति कृतज्ञता-भाव जगाने और विभिन्न देशों के साथ भारत के ऐतिहासिक सांस्कृतिक सम्बन्धों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विकसित करने  व तदनुकूल सरकार की वैदेशिक नीतियों को निर्देशित करने के निमित्त संघ की विविध गतिविधियों और तत्सम्बन्धी वैचारिक मान्यताओं पर प्रकाश डाला गया है । इस अध्याय में दुनिया भर के हिन्दुओं को एक ही केन्द्रीय मंच पर लाने की आवश्यकता के साथ विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना-विचारणा तथा युरोपीय-अमेरिकी देशों के बीच सक्रिय हिन्दू स्वयंसेवक संघ एवं एशियायी-अफ्रीकी देशों में कार्यरत विश्व हिन्दू महासभा के प्रति संघ की सहयोगिता-सहभागिता से सम्बन्धित अनेक ऐसी जानकारियां मिलती हैं, जिनके बावत मीडिया में कहीं कोई चर्चा ही नहीं पढी-सुनी गई कभी । मसलन यह कि विश्व भर में कायम विभिन्न संस्कृतियों के बीच भारतीय संस्कृति की जडें तलाशने व समन्वय स्थापित करने के लिए संघ ने ‘अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद’ नामक एक संस्था कायम कर रखी है , तो दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं के मौके पर राहत कार्यों के लिए ‘सेवा इण्टरनेशनल’ नाम से पूरा सरंजाम ही खडा किया हुआ है । इसी तरह से विश्व की विभिन्न प्राचीन संस्कृतियों को विलुप्ति से बचाने के लिए उनके संरक्षण और उनमें विद्यमान भारतीय संस्कृति के मौलिक तत्वों की पहचान के निमित्त ‘अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक अध्ययन केन्द्र’ (इण्टरनेशनल सेन्टर फॉर कल्चरल स्टडीज) कार्यरत है , जो ‘युरोपियन कांग्रेस ऑफ एथनिक रिलीजन’ एवं ‘चिल्ड्रेन फॉर मदर अर्थ’ नामक वैदेशिक संस्थाओं को भी वैचारिक सहयोग प्रदान करता है । इस अध्याय में आतंकवाद व विश्वशान्ति एवं पर्यावरण-प्रदूषण जैसे मुद्दों पर संघ के दृष्टिकोण स्पष्ट किये गए हैं । संघ सिर्फ राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों-मसलों पर ही मुखर नहीं है , बल्कि राष्ट्रवादी सोच से सम्पन्न व्यक्ति का निर्माण भी उसकी प्राथमिकताओं में शामिल है , जिसकी पुष्टि इस पुस्तक में ‘आधुनिकता एवं पारिवारिक संबंधों का सातत्य’ नामक इसके नौवें अध्याय से होती है ।

       इस पुस्तक से ही यह ज्ञात होता है कि संघ की छह प्रमुख गतिविधियां हैं- ग्राम-विकास, गौ-रक्षण, धर्म-जागरण, सामाजिक समरसता निर्माण तथा पर्यारवण-संरक्षण और कुटुम्ब प्रबोधन । यह कुटुम्ब प्रबोधन वस्तुतः संवाद-आधारित जन-जागरुकता का कार्य है जिससे राष्ट्रवादी सोच के व्यक्ति व परिवार का निर्माण होता है और इसके लिए संघ स्त्री-पुरुष-समानता व संयुक्त परिवार की महत्ता से युक्त पारम्परिक भारतीय जीवन-मूल्यों की वकालत करता है तथा विवाह-व्यवस्था को समृद्ध व प्रोत्साहित करता है एवं विवाह-विच्छेद (तलाक) को हतोत्साहित और विवाह-रहित अथवा विवाहेत्तर सहवास (लिव इन रिलेसन) की मुखालफत  करता रहा है । पुस्तक में अन्तिम- दसवां अध्याय ‘महिला आन्दोलन’  का है, जिसमें राष्ट्र सेविका समिति के गठन, उसके क्रिया-कलाप और राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय व्याप का ज्ञानवर्द्धक वर्णन है । महिलाओं के प्रति संघ की धरणा एवं महिला-सशक्तिकरण की संघी विचारणा, पश्चिमी देशों और वामपंथी संगठनों की अवधारणा से सर्वथा भिन्न है । जाहिर है- जो संघ सम्पूर्ण विदेह भारत के भूगोल को ही जीवन्त मातृ-स्वरुप मान उसकी आराधना करता है, वह सदेह महिलाओं को रिलीजियस-मजाबी मान्यताओं की तरह महज देह नहीं; बल्कि परिवार व समाज की धुरी एवं उससे भी बढ कर पूजनीया शक्तिस्वरुपा ही मान सकता है और उनके प्रति सभी प्रकार के भेद-भावों को दूर करने तथा उन्हें राष्ट्र-जीवन की मुख्य धारा में समान रुप से सहभागी बनाने की न केवल वकालत करता रहा है; बल्कि तत्सम्बन्धी सेवा-सहयोग-स्वावलम्बन०-उद्यम-पशिक्षण के विविध-विषयक प्रकल्प भी संचालित करता है- राष्ट्र सेविका समिति के माध्यम से । पुस्तक में इस तथ्य  का सत्य विस्तार से व्याख्यायित हुआ है और तत्सम्बन्धी कर्यक्रमों-योजनाओं का खुलासा भी ।

     पुस्तक में उपसंहार के बाद ‘स्पष्ट संवाद’ नाम से एक परिशिष्ट भी है, जिसमें संघ पर लगाये जा रहे विभिन्न आरोपों को मुनासिब तर्कों-तथ्यों से ऐसे खण्डित किया गया है कि विरोधी अगर उसे पढ लें तो न केवल नुरुत्तर हो जाएंगे, अपितु उसकी शाखाओं में जाना अर्थात स्वयंसेवक बनना भी स्वीकार कर लें ; इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता । कुल मिला कर सुनिल आम्बेकर जी की यह पुस्तक आज की युवा पिढी में संघ के प्रति ललक बढाने वाली प्रतीत होती है । यह पुस्तक मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित “The RSS; Roadmaps for the 21st Century) नामक पुस्तक का हिन्दी-अनुवाद है ; जिसके अनुवादक हैं- डॉ जितेन्द्र वीर कालरा । प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित इसके इस अनुवाद की भाषा में यद्यपि सम्पादन व परिशोधन की आवश्यकता अवश्य है ; तथापि यह बोधगम्यता से युक्त है ।  


•       मनोज ज्वाला 

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