मै बाँहें फैला कर करता हूँ,
आग़ोश मे लेलूँ सूरज को,
महसूस कभी ये करता हूँ।
उदित भास्कर की किरणे,
जब मेरे तन पर पड़ती हैं,
स्फूर्ति सी तन मे आती है,
जब सूर्य नमन मै करता हूँ।
स्वर्णिम आरुषि मे नहाकर मै,
भानु को जल-अर्घ भी देता हूँ,
फिर प्रणायाम कर मै अपना,
मन शीतल व शाँत करता हूँ।
इस अद्भुत आधात्मिक पल मे
कुछ ऐसी अनुभूति होती है,
जो नहीं मिला मंदिर मे कभी,
उसके दर्शन मै करता हूँ ।
बीनू जी को उनकी उम्दा कविता के लिए बधाई .