भारत में जीन संवर्धित (जीएम) फसलों पर किये जाने वाले प्रयोग को लेकर शुरु से ही विवाद रहा है। कुछ लोग इस तरह के प्रयोग के पक्ष में हैं, तो वहीं कुछ विरोध में। इस बाबत फसलों पर केनिद्रत भारतीय जैव प्रौधोगिकी नियामक प्राधिकरण विधेयक (बीआरएआर्इ), 2009 को लेकर पहले भी काफी हो-हल्ला मच चुका है। दरअसल, इस विधेयक के कुछ प्रावधान बेहद ही विवादास्पद हैं। उदाहरण के तौर पर इस विधेयक के आलोक में सूचना के अधिकार के तहत फसलों पर किये जा रहे वैज्ञानिक परीक्षण के बारे में सूचना नहीं प्राप्त की जा सकती है, परीक्षण के बारे में गलत प्रचार-प्रसार करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवार्इ भी की जा सकती है, इसके तहत दी जाने वाली सजा के कुछ प्रावधान टाडा एवं पोटा से भी ज्यादा सख्त हैं, विधेयक के अनुच्छेद 81, 86 व 87.2 के मुताबिक पूर्व के समान कानूनों के ऊपर स्वत: ही इस कानून का प्रभावशाली होना इत्यादि। उल्लेखनीय है कि बीआरएआर्इ कोर्इ नया कानून नहीं है। पुराने विधेयक एनबीआरए को संषोधित करके इस कानून को अमलीजामा पहनाया गया है। नये विधेयक की तरह पुराने बिल का भी जबर्दस्त विरोध किया गया था। इसके विरोध में जानकारों, वैज्ञानिकों एवं विविध सामाजिक संगठनों सहित देश के 11 राज्य थे।
पूर्व में बीटी बैंगन को लेकर एक जबर्दस्त देशव्यापी आंदोलन हो चुका है। यह एक संवर्धित जीन वाली प्रजाति का नाम है। मूलत: इस प्रजाति के उपभोग से स्वास्थ पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को लेकर आम लोगों के मन शंका थी, जिसके कारण किसान इसकी खेती करने से परहेज कर रहे थे। यहाँ पर यह बताना समीचीन होगा कि जीन संवर्धन वाले बीजों के इस्तेमाल का दुष्परिणाम तुरंत सामने नहीं आता है। नकारात्मक प्रभाव के सामने आने में कुछ वक्त लगता है। बहरहाल, इस प्रजाति के विकास से जुड़े वैज्ञानिक आम लोगों के डर को दूर नहीं कर सके। साथ ही, इससे संबंधित अन्य प्रावधान भी किसान व जनविरोधी थे, मसलन, जीन संवर्धित फसल को पुन: बीज के रुप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वैज्ञानिक परीक्षण से उसकी जनन क्षमता खत्म हो जाती है।
विरोध में धरने-प्रदर्शन होने के बावजूद बीटी बैंगन की खेती करने के लिए सरकार द्वारा सिफारिश की गर्इ। कालांतर में पुन: उग्र विरोध का सामना करने के कारण उसपर प्रतिबंध लगाया गया। तब जाकर पूरा मामला शांत हुआ। बीटी कपास के विरोध में भले ही व्यापक स्तर पर कोर्इ बड़ा जनांदोलन नहीं हुआ, पर इसके दुष्परिणाम से पूरा देश अवगत है। इसका नकारात्मक प्रभाव विशेष तौर पर महाराष्ट्र, गुजरात और पंजाब में देखने को मिला है।
इसी क्रम में कृषि मंत्री शरद पवार ने अपने एक हालिया बयान में जीन सवंर्धित फसलों पर खेतों में किए जा रहे परीक्षण को जारी रखने की वकालत करके इस विवाद को फिर से जन्म दे दिया है। श्री पवार के इस बयान को इस लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि माकपा सांसद वासुदेव आचार्य की अगुआर्इ वाली कृषि मामले की संसद की स्थायी समिति ने सरकार को ट्रांसजेनिक फसलों का परीक्षण तब तक प्रतिबंधित करने की सिफारिष की है, जब तक कि भारत में बेहतर निगरानी और देख-रेख की प्रणाली न विकसित हो जाए। इस समिति ने वर्ष, 2009 में बीटी बैंगन की खेती को अनुमति देने की सिफारिष की जाँच कराने के लिए भी कहा है। बावजूद इसके श्री पवार समिति की सिफारिषों से इत्तिफाक नहीं रखते हैं। उन्होंने कहा कि जीएम फसलों पर शोध और खेतों में परीक्षण जारी रहना चाहिए। हाँ, उसकी वाणिजियक खेती में जरुर सतर्कता बरती जानी चाहिए। श्री पवार की राय में जीएम फसलों के परीक्षण पर प्रतिबंध के परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जीएम फसलों के परीक्षण को रोकना भारतीय विज्ञान के लिए घातक होगा। इससे भारत जीएम फसल को विकसित करने वाले ब्राजील और चीन जैसे देषों से बहुत ज्यादा पिछड़ सकता है। गौरतलब है कि इस मामले में कृषि मंत्रालय की कार्रवार्इ रिपोर्ट संसद के आगामी सत्र में पेष की जा सकती है। फिलहाल सरकार ने बीटी कपास की वाणिजियक खेती की अनुमति दी है, जबकि बीटी बैंगन पर रोक है। निजी कंपनियों को कपास एवं मक्का जैसे जीएम फसलों का पंजाब, हरियाणा, आंध्रप्रदेश और गुजरात में खेतों में परीक्षण करने की अनुमति दी गर्इ है।
जीएम फसलों की संकल्पना बहुत पुरानी नहीं है। सबसे पहले वर्ष, 1990 में मल्टीनेशनल कंपनी मोनसेन्टो की सहायक कंपनी कालजेन की अगुआर्इ में टमाटर के जीन को परिवर्धित किया गया था। फसलों के जीन संवर्धन के पीछे तर्क है कि इससे फसलों की उत्पादकता एवं गुणवत्ता में इजाफा होगा।
उल्लेखनीय है कि जानवरों के जीन का भी संवर्धन किया जा सकता है। जानवरों के जीन पर इसतरह का परीक्षण सबसे पहले सूअरों पर किया गया था, पर उसके परिणाम उत्साहवर्धक नहीं रहे थे। परीक्षित कुछ सूअरों में आगे जाकर बांझपन के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे थे। इसके बरक्स फसलों पर किये गये अब तक के प्रयोग को भी पूरी तरह से सफल नहीं कहा जा सकता। विष्व के अनेकानेक देषों में इस तरह के परीक्षण पर पाबंदी लगार्इ जा चुकी है। स्वंय अमेरिका में भी इस मुद्दे पर जानकारों की एक राय नहीं है।
भले ही भारत सरकार फसलों पर किये जा रहे परीक्षण को लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित है, लेकिन स्वंय सरकार के दो मंत्रालयों (पर्यावरण एवं विज्ञान और प्रौधोगिकी मंत्रालय का जैव तकनीक विभाग) के बीच इस मुद्दे को लेकर जबर्दस्त मतभेद है। जैव तकनीक विभाग फसलों पर किये जा रहे परीक्षण को सही मान रहा है, वहीं पर्यावरण मंत्रालय का मत इस मामले में भिन्न है। जैव तकनीक विभाग का कहना है कि भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में सभी का पेट भरने के लिए फसलों का जीन संवर्धन करना जरुरी है, अन्यथा आने वाले दिनों में देश की आधी आबादी भूख से मर जाएगी।
इस संदर्भ में एक गैर सरकारी संगठन ‘पैरवी द्वारा किये गये पड़ताल में यह पाया गया है कि फसलों का जीन संवर्धन स्वास्थ के लिए घातक है। परीक्षण में प्रयुक्त रसायनों से विविध तरह की बीमारी होने की संभावना रहती है। जीन सवंर्धित फसलों के उपभोग से कर्इ तरह की बीमारियों के फैलने के मामले विभिन्न देषों में पहले ही प्रकाश में आ चुके हैं। उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय के अवकाष प्राप्त न्यायधीषों के संघ ने भी फसलों के जीन संवर्धन पर गहरी चिंता जतार्इ है। केरल सरकार का मानना है कि भारत को अगले 50 सालों तक फसलों के जीन संवर्धन से बचना चाहिए। यह बहुत जरुरी है कि किसी तकनीक को अपनाने से पहले हम उसके साइड इफेक्ट से अवगत हो जायें।
ज्ञातव्य है कि बीते दिनों मोनसेन्टो कंपनी ने ‘गोल्डन राइस के जीन को बेटा केरोटीन नामक रसायन की मदद से सवंर्धित करके चावल की एक नर्इ किस्म को विकसित किया था। कहा जा रहा था कि इस नर्इ किस्म से बच्चों में होनेवाले अंधेपन में कमी आयेगी, जबकि हुआ ठीक इसके उल्टा। इसी कंपनी के द्वारा वियतनाम में संतरे के जीन को सवंर्धित करके एक नर्इ किस्म ‘एजेंट संतरा को विकसित किया गया, लेकिन उसको खाने से तकरीबन 4 लाख लोगों की मौत हो गर्इ और बड़ी संख्या में लोग विकलांग भी हुए। विषेषज्ञों के अनुसार उसके सेवन से कैंसर के होने की भी संभावना थी।
अमेरिका में भी जीन सवंर्धित सोयाबीन खाने से लोगों के बड़ी आंत में संक्रमण हो गया और उसे ठीक करने के लिए डाक्टरों को संक्रमित अंग को शरीर से अलग करना पड़ा। बि्रटिश मेडिकल एसोसिएशन ने भी अपने एक बयान में फसलों के जीन पर किये जा रहे प्रयोग के खतरों के प्रति लोगों को आगाह किया है। एसोसिएशन का मानना है कि भविष्य में इससे और भी समस्याएँ बढ़ेगी। जानकारों का मानना है कि फसलों पर किये जा रहे लगातार परीक्षणों से प्रर्यावरण भी प्रदूषित होगा। रसायनिक तत्व टाकिसन और इसतरह के अन्य खतरनाक रसायनिक तत्वों के कारण इंसान का सांस लेना भी दुर्भर हो जाएगा। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक बार खतरनाक रसायनिक तत्वों के वायुमंडल में फैलने के बाद उसको रोकना या कम करना आसान नहीं होगा।
जाहिर है विकासशील देश विकसित देषों के लिए महज प्रयोगशाला बनकर रह गये हैं। भारत की सिथति भी इस मामले में अलग नहीं है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (सप्रंग) सरकार महज अमेरिकी आकाओं को खुश करने के लिए फसलों के जीन को संवर्धित करने की कवायद में मल्टीनेषनल कंपनियों को सहयोग दे रही है। आम लोगों की जान को जोखिम में डालकर अमेरिका के साथ गलबहियाँ करना समझ से परे है। वालमार्ट के भारत में स्टोर खुलवाने के लिए अमेरिका में जिस तरह से लाबीइंग की आड़ में पैसों का लेन-देन हुआ है, उसमें सप्रंग सरकार के शामिल होने का भले ही कोर्इ प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिला है, लेकिन मामले में सप्रंग सरकार की किरकरी जरुर हुर्इ है।
फसलों के जीन संवर्धन के संबंध में सरकार का पक्ष संदेहास्पद है और उसके द्वारा अपने को सही साबित करने के लिए दिया जा रहा बयान हर दृष्टिकोण से गलत हैै, क्योंकि संवर्धित फसलों के उपभोग से होने वाले दुष्परिणाम तुरंत सामने नहीं आते हैं। अस्तु सरकार को इस मामले में तुरत-फुरत किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से बचना चाहिए।
सतीश सिंह