मन की भावना और परिस्थितियों की अभिव्यक्ति है “सुवा नृत्य”

0
2038

Community-verified icon

अनिल अनूप

सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य की स्त्रियों का एक प्रमुख है, जो कि समूह में किया जाता है। स्त्री मन की भावना, उनके सुख-दुख की अभिव्यक्ति और उनके अंगों का लावण्य ‘सुवा नृत्य’ या ‘सुवना’ में देखने को मिलता है। ‘सुआ नृत्य’ का आरंभ दीपावली के दिन से ही हो जाता है। इसके बाद यह नृत्य अगहन मास तक चलता है।

सुआ का तात्पर्य तोता नामक पक्षी है और सुआ गीत मूलत: गोंड आदिवासी नारियों का नृत्‍य-गीत है जिसे सिर्फ स्त्रियाँ ही गाती हैं।

नृत्य पद्धति

वृत्ताकार रूप में किया जाने वाला यह नृत्य एक लड़की, जो ‘सुग्गी’ कहलाती है, धान से भरी टोकरी में मिट्टी का सुग्गा रखती है। कहीं-कहीं पर एक तथा कहीं-कहीं पर दो रखे जाते हैं। ये भगवान शिव और पार्वती के प्रतीक होते हैं। टोकरी में रखे सुवे को हरे रंग के नए कपड़े और धान की नई मंजरियों से सजाया जाता है। सुग्गी को घेरकर स्त्रियाँ ताली बजाकर नाचती हैं और साथ ही साथ गीत भी गाये जाते हैं। इन स्त्रियों के दो दल होते हैं।[1] पहला दल जब खड़े होकर ताली बजाते हुए गीत गाता है, तब दूसरा दल अर्द्धवृत्त में झूककर ऐड़ी और अंगूठे की पारी उठाती और अगल-बगल तालियाँ बजाकर नाचतीं और गाती हैं-

‘चंदा के अंजोरी म

जुड़ लागय रतिहा,

न रे सुवना बने लागय

गोरसी अऊ धाम।

अगहन पूस के ये

जाड़ा न रे सुवना

खरही म गंजावत हावय धान।’

सुआ गीत

सुआ गीत की प्रत्येक पंक्तियाँ विभिन्न गुणों से सजी होती है। प्रकृति की हरियाली देखकर किसान का प्रफुल्लित होता मन हो या फिर विरह की आग मे जलती हुई प्रेयसी की व्यथा हो, या फिर ठिठोली करती ग्राम बालाओं की आपसी नोंक-झोंक हो या फिर अतीत की विस्तार गाथा हो, प्रत्येक संदर्भ में सुआ मध्यस्थ का कार्य करता है।जैसे-

‘पइयाँ मै लागौं चंदा सुरज के रे सुअनां

तिरिया जनम झन देय

तिरिया जनम मोर गऊ के बरोबर

जहाँ पठवय तहं जाये।

अंगठित मोरि मोरि घर लिपवायं रे सुअना।

फेर ननद के मन नहि आय

बांह पकड़ के सइयाँ घर लानय रे सुअना।

सुआ का तात्पर्य तोता नामक पक्षी है और सुआ गीत मूलत: गोंड आदिवासी नारियों का नृत्‍य-गीत है जिसे सिर्फ स्त्रियाँ ही गाती हैं। यह संपूर्ण छत्‍तीसगढ़ में दीपावली के पूर्व से गाई जाती है जो देवोत्‍थान (जेठउनी) एकादशी तक अलग-अलग परम्‍पराओं के अनुसार चलता है। सुवा गीत गाने की यह अवधि धान के फसल के खलिहानों में आ जाने से लेकर उन फसलों के परिपक्‍वता के बीच का ऐसा समय होता है जहाँ कृषि कार्य से कृषि प्रधान प्रदेश की जनता को किंचित विश्राम मिलता है। यद्धपि अध्येताओं का मानना है कि यह मूलतः आदिवासियों का नृत्य गीत रहा है किन्तु इसे छत्तीसगढ़ में विगत कई दशकों से हर वर्ग और जाति की महिलाओं इसे ने अपनाया है। वर्ष में इसका आरंभ दीपावली के समय शंकर और पार्वती के विवाह के गौरा पर्व के साथ होता है जो अगहन माह (दिसंबर-जनवरी) के अंत तक चलता है।

सुवा एक ऐसा पालतू प्राणी है जो मनुष्य की भाषा को अतिशीघ्र ग्रहण कर लेता है। वह बड़ी सहजता से मनुष्य की वाणी और भावों को ग्रहण करने की क्षमता रखता है। अल्पज्ञ प्रयास से ही सुवा को सिखाया-पढ़ाया जा सकता है। यह सुंदर और सीधा-साधा तो है ही, नारी मन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, व्यथा-कथा का सहभागी भी बन जाता है। प्राचीन काल से सुआ का वास मनुष्य के साथ उसके घर में और परिवार के मध्य रहा है। निरंतर मनुष्य के संपर्क के कारण वह मानवीय संवेदनाओं का साथी और अभ्यर्थी तथा सहभागी बन जाता है।

यह गीत कितने प्राचीन हैं यह किसको मालूम? किंतु इतना तो निश्चित है कि यह गीत उतने ही प्राचीन हैं जितने उन में व्याप्त भावनाएँ प्राचीन हैं। यह भी संभव है कि कालिदास और जायसी ने इन गीतों से प्रेरणा ली हो। यह गीत तो आज भी अलिखित ही हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक ही चले आ रहे हैं। रायगढ़ से कांकेर और सराईपाली से डोंगरगढ़ तक सुवा गीत अपने विभिन्न स्वरूपों में बिखरा चला आ रहा है।

पारम्‍परिक भारतीय संस्कृत-हिन्दी साहित्य में प्रेमी-प्रेमिका के बीच संदेश लाने ले जाने वाले वाहक के रूप में शुक (तोता) का मुख्‍य स्‍थान रहा है। मानवों की बोलियों का हूबहू नकल करने के गुण के कारण एवं सदियों से घर में पाले जाने वाला यह जीव ख़ासकर कन्‍याओं व नारियों का प्रिय माना जाता है। मनुष्‍य की बोली की नक़ल उतारने में सिद्धस्‍त इस पक्षी को साक्षी मानकर उसे अपने मन की बात ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना, कहि आते पिया ला संदेस’ कहकर वियोगिनी नारी इन लोकगीतों के अनुसार यह संतोष करती रही कि उनका संदेशा उनके पति-प्रेमी तक पहुँच रहा है। कालान्‍तर में सुआ के माध्‍यम से नारियों के संदेश गीतों के रूप में गाये जाने लगे और प्रतीकात्‍मक रूप में सुआ का रूप मिट्टी से निर्मित हरे रंग के तोते ने ले लिया, साथ ही इसकी लयात्‍मकता के साथ नृत्‍य भी जुड़ गया।

सुआ नृत्य गीत कुमारी कन्याओं तथा विवाहित स्त्रियों द्वारा समूह में गाया और नाचा जाता है। इस नृत्य गीत के परंपरा के अनुसार बाँस की बनी टोकरी में धान रखकर उस पर मिट्टी का बना, सजाया हुआ सुवा रखा जाता है। लोक मान्यता है कि टोकरी में विराजित यह सुवा की जोड़ी शंकर और पार्वती के प्रतीक होते हैं।

सुवा नृत्य सामान्यतया सँध्या को आरंभ किया जाता है। गाँव के किसी निश्चित स्थान पर महिलाएँ एकत्रित होती हैं जहाँ इस टोकरी को लाल रंग के कपड़े से ढँक दिया जाता है। टोकरी को सिर में उठाकर दल की कोई एक महिला चलती है और किसानों के घर के आँगन के बीच में उसको रख देती हैं। दल की महिलाएँ उसके चारों ओर गोलाकार खड़ी हो जाती हैं। टोकरी से कपड़ा हटा लिया जाता है और दीपक जलाकर नृत्य किया जाता है। छत्तीसगढ़ में इस गीत नृत्य में कोई वाद्ययंत्र उपयोग में नहीं लाया जाता। महिलाओं के द्वारा गीत में तालियों से ताल दिया जाता है। कुछ गाँवों में महिलाएँ ताली के स्वर को तेज करने के लिए हाथों में लकड़ी का गुटका रख लेती हैं। छत्तीसगढ़ से सौ साल पहले असम गए असमवासी छत्तीसगढ़िया भी इस नृत्य गीत परंपरा को अपनाए हुये हैं, हालाँकि वे सुवा नृत्य गीत में मांदर वाद्य का प्रयोग करते हैं जिसे पुरुष वादक बजाता है।

प्राचीन परंपरा में सुवा गीत नृत्य करने महिलाएँ जब गाँव में किसानों के घर-घर जाती थीं तब उन्हें उस नृत्य के उपहार स्‍वरूप पैसे या अनाज दिया जाता था जिसका उपयोग है वे गौरा-गौरी के विवाह उत्‍सव में करती थी। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तब सुवा नृत्य से उपहार स्‍वरूप एकत्र राशि से गौरा-गौरी का विवाह किया जाता था जिससे यह स्पष्ट है कि सुवा नृत्य का आरंभ दीपावली के पहले से ही हो जाता है। पारम्परिक रूप से सुवा नृत्‍य करने वाली नारियाँ हरी साड़ी पहनती हैं जो पिंडलियों तक आती है, आभूषणों में छत्‍तीसगढ़ के पारंपरिक आभूषण करधन, कड़ा, पुतरी होते हैं। इन परम्‍पराओं में बदलाव के संबंध में सुधा वर्मा कहती हैं,  ‘आज सुआ नृत्य और गीत का स्वरूप बदल गया है। छत्तीसगढ़ का पहनावा साड़ी और करधन, कड़ा, पुतरी भी अब देखने में नहीं आता है। गीतों के बोल आधुनिक हो रहे हैं फिल्मीकरण हो रहा है। सुआ नृत्य में लड़कियाँ अब आधुनिक परिधान पहन रही हैं’।

गीत का आरम्‍भ ‘तरी नरी नहा ना री नहना, रे सुवा ना ….’ से एक दो नारियाँ करती हैं जिसे गीत उठाना कहते हैं। उनके द्वारा पदों को गाने के तुरन्‍त बाद पूरी टोली उस पद को दुहराती हैं। तालियों की थप-थप एवं गीतों का मधुर संयोजन इतना कर्णप्रिय होता है कि किसी भी वाद्य यंत्र की आवश्‍यकता महसूस ही नहीं होती। सुवा गीत के पहली और तीसरी पंक्ति के अंत में ‘रे सुवा’ या ‘रे मोरे सुवा’ जो सुवा के संबोधन के लिए प्रयोग में लाया जाता है। यह मान सकते हैं कि, सुवा को समझाने-सिखाने के लिए उसकी स्मृति में बातों को बार-बार डालने के लिए पंक्तियों की पुनरावृत्ति होती रहती है। गीतों में विरह के मूल भाव के साथ ही दाम्‍पत्‍य बोध, प्रश्‍नोत्‍तर, कथोपकथन, मान्‍यताओं को स्‍वीकारने का सहज भाव पिरोया जाता है जिसमें कि नारियों के बीच परस्‍पर परम्‍परा व मान्‍यताओं की शिक्षा सहज रूप में गीतों के द्वारा पहुँचाई जा सके। अपने स्‍वप्‍न प्रेमी के प्रेम में खोई अविवाहित बालायें, नवव्‍याही वधुयें, व्‍यापार के लिए विदेश गए पति का इंतजार करती ब्याहता स्त्रियों के साथ जीवन के अनुभव से परिपूर्ण वयस्‍क महिलायें सभी वय की नारियाँ सुवा गीतों को गाने और नाचने को सदैव उत्‍सुक रहती हैं। इसमें सम्मिलित होने किशोरवय की छत्‍तीसगढ़ी कन्‍या अपने संगी-सहेलियों को सुवा नृत्‍य हेतु जाते देखकर अपनी माँ से अनुनय करती है कि उसे भी सुवा नाचने जाना है इसलिए वह माँ से उसके श्रृंगार की वस्‍तुएँ मांगती है- ‘देतो दाई देतो तोर गोड के पैरी, सुवा नाचे बर जाहूँ’ यह गीत प्रदर्शित करता है कि सुवा गीत-नृत्‍य में नारियाँ संपूर्ण श्रृंगार के साथ प्रस्‍तुत होती थीं ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,053 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress