स्वच्छ सुन्दर पथ सँवारे,
गा रही हिम रागिनी;
छा रही आल्ह्वादिनी उर,
छिटकती है चाँदनी !
वन तड़ागों बृक्ष ऊपर,
राजती सज रजत सी;
घास की शैया विराजी,
लग रही है विदूषी !
रैन आए दिवस जाए,
रूप ना वह बदलती;
रूपसी पर धूप चखके,
मन मसोसे पिघलती !
वारिशों में रिस रसा कर,
धूलि से तन तरजती;
त्राण को तैयार बैठी,
प्राण को नित धारती !
धवलता से जग सजाए,
सहजता प्रतिपालती;
‘मधु’ को मोहित किए वह,
वारती मन योगिनी !
स्वर स्वप्न की गति को तके
स्वर स्वप्न की गति को तके,
उर दहन की ज्वाला लखे;
सुर हृदय की भाषा पढ़े,
त्वर गति चले मन बढ़ चले !
लखके विपिन पृथ्वी नयन,
ज्यों यान से भास्वर मनन;
करि कल्पना निज अल्पना,
हृद भाव से चखते सुमन !
जो गगन की वीरानगी,
मधु मेघ की वह वानगी;
स्वर दे चले प्रभु यामिनी,
शुभ मन बसे ज्यों दामिनी !
जग स्वप्न को दे चाँदनी,
पग हर तके सौदामिनी;
हर कल्पना को रंग दे,
हर अल्पना को ढंग दे !
बढती चले संकल्प ले,
चढती चले सोपान ले;
नभ की थिरन मन में रखे,
‘मधु’ विहग को नव पँख दे !
आज अद्भुत स्वप्न समझा !
आज अद्भुत स्वप्न समझा,
जगत की जादूगरी का;
नहीं कोई रहा अपना,
पात्र था हर कोई उसी का !
स्वार्थ लिपटे व्यर्थ चिपटे,
चिकने चुपड़े रहे चेहरे;
बने मुहरे बिना ठहरे,
घूमते निज लाभ हेरे !
अल्प बुद्धि अर्थ सिद्धि,
पिपासा ना आत्म शुद्धि;
पहन सेहरे रहे सिहरे,
परम पद कब वे निहारे !
रहे गति वे नित बदलती,
स्थिति बनती बिगड़ती;
चित की चेतनता सुघड़ती,
चिर नियन्ता तान सुनती !
मुक्ति पा जग समझ आता,
शून्य वत सब नज़र आता;
कहाँ ‘मधु’ नाता लुभाता,
जागरण जब आत्म भाता !