स्वदेशी हेतु प्रथम बलिदानी बाबू गेनू

अशोक “प्रवृद्ध”

हजारों वर्षों की परतन्त्रता के पश्चात महर्षि दयानन्द सरस्वती ने देश को सर्वप्रथम स्वदेशी, स्वराज्य व स्वतन्त्रता का मन्त्र देते हुए  कहा कि कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। स्वदेश में स्वदेशी लोगों का व्यवहार अथवा शासन उत्तम होता है और परदेशी स्वदेश में व्यवहार वा राज्य करें तो बिना दारिद्रय और दुःख के दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता। तत्पश्चात महर्षि दयानन्द के स्वदेशी सम्बन्धी इन्हीं विचारों से प्रभावित होकर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दो धाराओं क्रान्तिकारी  और अहिंसात्मक आन्दोलनों के प्रणेता कहे जाने वाले उनके दो शिष्य एवं अनुयायी क्रमशः पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा एवं महादेव गोविन्द रानाडे ने उनके देशभक्ति एवं स्वराज्य के विचारों को आगे बढाते हुए देश में स्वदेशी और स्वाधीनता आन्दोलन की अलख जगाये रखी । पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा के शिष्यों में एक अद्वितीय देशभक्त व क्रान्तिकारी वीरसावरकर और महादेव गोविन्द रानाडे के शिष्य गोपालकृष्ण गोखले के साथ ही लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानन्द, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद, बिस्मिल और शहीद भगत सिंह आदि आर्यसमाजी और महर्षि दयानन्द के अनुयायियों ने भी दयानन्द के स्वदेशी और स्वाधीनता के विचारों को आगे बढाया और देश में स्वाधीनता की ज्योति जलाई ।कांग्रेस की स्थापना के दशकों बाद उसके नेताओं ने भी स्वामी दयानन्द के स्वदेशी और स्वाधीनता सम्बन्धी विचारों को अपनाने में ही अपनी भलाई समझी, परन्तु देशप्रेम की भावना के वशीभूत होकर स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आन्दोलन में  बाईस वर्षीय बाबू गेनू ने 12 दिसम्बर, 1930 को विदेशी वस्तुओं से भरी लॉरी अर्थात ट्रक को रोकते हुए अपना बलिदान देकर स्वदेशी आह्वान के लिए प्रथम बलिदानी होने का गौरव प्राप्त किया। 12 दिसम्बर, 1930 को स्वदेशी के लिए बाबू गेनू के द्वारा स्वयं का बलिदान कर लिए जाने के कारण उस समय से 12 दिसम्बर को स्वदेशी दिवस के रूप में स्मरण किया और मनाया जाता है।

 

स्वदेशी हेतु प्रथम बलिदानी बाबू गेनू का जन्म 1908 ईस्वी में हिन्दू कुल गौरव छत्रपति शिवाजी महाराज के जन्म स्थल शिवनेरी किला से कुछ ही दूरी पर अवस्थित महाराष्ट्र के पुणे जिले के ग्राम महालुंगे पडवल में हुआ था। इनके पिता का नाम ज्ञानबा और माता का नाम कोंडाबाई था। गेनू के पिता-माता खून-पसीना एक करके खेती किया करते थे। गाँव की जमीन बंजर होने से उपज कम होने के कारण परिवार में भोजन की समस्या सदैव ही बनी रहती थी। दुर्भाग्यवश बाबू गेनू के पिता इलाज के अभाव में चल बसे। बचपन से ही कुशाग्र बुध्दि के बाबू गेनू को एक बार पढ़ते ही उन्हें सारी बातें समझ में आ जाती थीं। परन्तु पढ़ाई में बालक गेनू की बिलकुल रुचि नहीं थी। गेनू बचपन में बहुत आलसी बालक था तथा देर तक सोना और फिर दिन भर खेलना ही उसे पसन्द था । बचपन में ही गेनू पिता की स्नेहछाया से वंचित होकर अपने भाई भीम के साथ रहने लगा । भीम स्वभाव से बहुत कठोर थे । उनकी आज्ञानुसार वह जानवरों को चराने लगे । इस प्रकार गेनू का समय कटने लगा । परन्तु यहाँ भी उसका दुर्भाग्य से पीछा नहीं छूटा और एक बार उसका एक बैल दूसरे बैल से लड़ते-लड़ते पहाड़ी से गिर कर मर गया । इस पर बड़े भाई ने उसे बहुत डांटा और काफी खरी-खोटी सुनाई ।इस घटना के बाद घर की सभी गायें और बकरियाँ बेंच दी गईं। इससे दुखित और नाराज होकर गेनू अपनी माँ के साथ मुम्बई आकर एक कपड़ा मिल में काम करने लगा । उसी मिल में उसकी माँ कोंडाबाई भी मजदूरी करती थी । बाबू के बचपन का मित्र प्रह्लाद तत्कालीन सामाजिक राष्ट्रीय विचारधारा व परिस्थितियों से पूरी तरह परिचित था। वह बाबू से स्‍नेह रखता था और देश की राजनैतिक गतिविधियों से गेनू को अवगत कराता रहता था ।उन दिनों देश में स्वतन्त्रता-संग्राम छिड़ा हुआ था और स्वदेशी वस्तु ओं का प्रयोग तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन जोरों पर था । लाला लापत राय के साथ गाँधी आम जनता से अंग्रेजों के साथ असहयोग करने और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की अपील कर रहे थे। स्वदेशी और विदेशी वस्तु के बहिष्कार का सत्याग्रह देश की अस्मिता का प्रतीक बन गया था। 22 वर्षीय बाबू गेनू भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे । मिल के अपने साथियों को एकत्र कर वह स्वाधीनता और स्वदेशी का महत्व बताया करते थे ।

बाबू गेनू 1926-27 में कांग्रेस को चार आने देने वाले एक मामूली सदस्य अर्थात कांग्रेस के वालण्टियर बन गये । मुम्बई तत्कालीन बम्बई में 1927 के मई-जून में जातीय दंगों में 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे और लगभग इतने ही लोग घायल भी हुए थे। कई जगह कर्फ्यू लगा। कर्फ्यूग्रस्त इलाकों में भी बाबू और उनके मित्र प्रहलाद ने स्वदेशी का प्रचार किया। बाबू ने अपनी स्वतंत्र वाहिनी बनाई और तानाजी पथक संगठित किया तथा कुछ धन संग्रह करके चरखा बनवाया, जहाँ बाबू व उनके समस्त मित्रगण प्रतिदिन चरखा काटने अवश्य जाया करते थे। 1928 में साइमन कमीशन विरोधी आन्दोलन में अपने संगठन तानाजी पथक के साथ बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हुए 3 फरवरी, 1928 को बाबू ने एक बड़ा जूलुस आयोजित किया। उस दिन पूरे मुम्बई सहित दिल्ली, कलकत्ता, पटना, चेन्न्ई आदि शहरों में भी जोरदार प्रदर्शन हुए। लाहौर के प्रदर्शनों में पुलिस लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय घायल हो गये और उनकी मृत्यु हो गई। 26 जनवरी, 1930 को सम्पूर्ण स्वराज्य माँग दिवस आन्दोलन में बाबू  गेनू की सक्रियता देखकर उन्हें तीन महीने के लिए जेल भेज दिया, पर इससे बाबू के मन में स्वतन्त्रता प्राप्ति की इच्छा  और तीव्र हो गयी । जेल में ही उन्हें अपनी माता के निधन का समाचार मिला। माँ के निधन के पश्चात् पारिवारिक चिंता से पूर्णतः मुक्त होकर भारत माता को परतन्त्रता के बेड़ी से मुक्त कराने के लिए हर-संभव प्रयास करने की प्रतिज्ञा कर अक्टूबर 1830 में बाबू गेनू, प्रहलाद और शंकर के साथ जेल से बाहर आए और घर-घर जाकर स्वदेशी का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ कर दिया। दीपावली, 1930 के बाद विदेशी माल के बहिष्कार का आन्दोलन पूरे देश में फैल गया।

 

12 दिसम्बर, 1930 को मुम्बई के कालबादेवी क्षेत्र में मैनचेस्टर मिल से आया विदेशी माल शहर में भेजे जाने की तैयारी हो रही थी। जब बाबू गेनू को यह पता लगा, तो उनका राष्ट्रप्रेमी मन विचलित हो उठा । उन्होंने अपने साथियों को एकत्र कर हर कीमत पर इसका विरोध करने और विदेशी माल ला रहे ट्रकों को रोकने का निश्चय कर लिया और दिन के 11 बजे वे कालबादेवी स्थित मिल के द्वार पर आ गये । धीरे-धीरे पूरे शहर में यह खबर फैल गयी और हजारों लोग वहाँ एकत्र हो गये । खबर पाकर पुलिस भी वहाँ आ गयी ।कुछ ही देर में विदेशी कपड़े से लदा ट्रक अर्थात लोरी  मिल से बाहर आया । उसे सशस्त्र पुलिस ने घेर रखा था । गेनू के संकेत पर घोण्डू रेवणकर ट्रक के आगे लेट गया । इससे ट्रक चला रहा चालक अचकचा गया और उसने तेजी से ब्रेक लगाए। इससे ट्रक रुक गया । यह देख जनता ने वन्दे मातरम् और भारत माता की जय के नारे लगाये । पुलिस ने घोण्डू रेवणकर को घसीट कर हटा दिया, पर उसके हटते ही दूसरा कार्यकर्ता वहाँ लेट गया । भीमा घोंई से तुकाराम मोहिते तक यह क्रम बहुत देर तक चलता रहा । इससे खीझ कर अंग्रेज पुलिस सार्जेण्ट ने चिल्ला कर आन्दोलनकारियों पर ट्रक चढ़ाने को कहा, पर ट्रक का भारतीय चालक बलवीर सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुआ । इस पर पुलिस सार्जेण्ट चालाक को हटाकर स्वयं उसके स्थान पर जा बैठा । यह देखकर बाबू गेनू स्वयं ही ट्रक के आगे लेट गया । सार्जेण्ट की आँखों में खून उतर आया । उसने ट्रक चालू किया और ट्रक चलानी प्रारम्भ कर दी। बाबू गेनू को रौंदते हुए ट्रक गेनू के ऊपर से गुजर जाने के कारण वह गम्भीर रूप से घायल हो गया। पूरी सड़क बलिदानी खून से लाल हो गई। अन्तिम साँसें  ले रहे बाबू को निकट के अस्पताल में भर्ती करवाया गया जहाँ सायंकाल उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार स्वदेशी के लिए बलिदान देने वालों की सूची में अपना पहला नाम दर्ज कर बाबू गेनू ने स्वयं को अमर कर लिया । तभी से 12 दिसम्बर को बाबू गेनू की स्मृति में स्वदेशी दिवस के रूप में मनाया जाता है।babu genu

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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