–लाला लाजपत राय

स्वामी दयानन्द जी अभी बालक थे, जब उनको यह बोध हुआ कि मूर्तिपूजा ईश्वर उपासना का सच्चा मार्ग नहीं, वरन बहुत बुरा और भ्रष्टाचार है। यह विचार दृढ़ता से उनके हृदय में जम गया और सारी आयु उनके हृदय से यह विचार कम न हुआ। बालकपन में ही अपने माता-पिता के सामने मूर्तिपूजा का निषेध किया और अपने पिता के बड़े क्रोध करने पर भी जो एक बालक के लिये अतीव भयजनक होता है, उन्होंने उस अपने विश्वास को छिपा न रखा। ब्रह्मचर्य और उसके पीछे संन्यास अवस्था में भी कभी अपने विश्वास को नहीं छिपाया। न किसी मंडली से डरा और न किसी मंडली वाले से। न किसी राजा से डरा और न किसी पंडित से। जब तक जीते रहे अपनी सिंह ध्वनि को मूर्तिपूजा के खंडन में गर्जाते रहे। संसार को मूर्तिपूजा से हटाकर निराकार ईश्वर की उपासना की ओर प्रेरणा करना उनके जीवन का बड़ा उद्देश्य था और प्रत्येक मनुष्य को विदित है कि किस दिलेरी और हिम्मत से उन्होंने उस प्रकाश को बुझने नहीं दिया जो उनको बाल्यावस्था में हुआ था।
हर एक हिन्दू जानता है कि जैसे स्वामी दयानन्द मूर्तिपूजा का बड़ा शत्रु था, उपनिषदों के जमाने के पीछे भारतवर्ष में ऐसा साहसी, निर्भय, कठोर और प्रत्यक्ष शत्रु मूर्तिपूजा का कोई नहीं पैदा हुआ। सारी दुनिया क्या ईसाई, क्या मुसलमान, क्या पौराणिक, क्या वेदान्ती और क्या बौद्ध सब इस बात को जानते हैं कि मूर्तिपूजा उन विषयों में था जिनके मानने का विचार उनके हृदय में कभी पैदा नहीं हुआ था। के खंडन में उनके सजातीय, एक भाषा वाले और एक धर्म वाले मनुष्यों, साधारण मनुष्यों ने ही नहीं परन्तु विद्वानों ने भी, उसे ‘नास्तिक’ कहा है। किसी ने उन्हें पादरियों का वैतनिक सेवक कहा, किसी ने धर्म का शत्रु बतलाया। परन्तु इस पुरुष सिंह ने किसी एक की भी परवाह नहीं की। कई बार उसके सजातीय पंडितों ने छिपकर और कई बार प्रकट होकर रुदन करके उनसे यह प्रार्थना की कि वह मूर्तिपूजा का खंडन छोड़ दें, तो वह उसको अवतार बनाकर पूजने को तैयार हैं। परन्तु उस महापुरुष के हृदय में न उनके रोने-पीटने का और न उनकी रिश्वत का असर हुआ। वह एक दृढ़ आसन पर बैठा था जिससे उसको कोई हिला नहीं सकता था। बहुत से ठाकुरों, राजा, महाराजाओं ने पौशीदा और प्रकट होकर यह सम्मति दी कि वह मूर्तिपूजा का खंडन छोड़ दें। उसको अनेक प्रकार का लोभ दिया गया, कभी-कभी धमकियां भी दी गईं। प्राणों का भय, बदनामी का डर और धिक्कारों की बुझाड़ क्रमशः उनके सामने आये परन्तु उसके दृढ़ हृदय पर कुछ भी असर न कर सके। मूर्तिपूजा को जिस रीति, जिस स्थान और जिस दशा में देखा वहीं उसका बड़ी निडरता से खंडन कर दिया। यह विषय उसके हृदय में पाषाण रेखा के समान अंकित था जिसे कोई वस्तु मिटा नही सकती थी। यह एक ऐसा विषय था जिस पर वह सारे संसार की परवाह नहीं करता था। काशी के 300 पंडित, कलकत्ते के विद्वान् और दुनिया के दार्शनिक कोई उसको इस आसन से नहीं हिला सके। महाराजा जयपुर, महाराणा उदयपुर, महाराजा जोधपुर, महाराजा इन्दौर और महाराजा काशी सबके प्रयत्न व्यर्थ हुए। मुसलमान और ईसाई प्रकट रीति से मूर्तिपूजा के शत्रु हैं परन्तु उनमें भी जितना अंश उसने मूर्तिपूजा का देखा उसका बड़े साहस से खंडन किया।
स्वामी दयानन्द का विश्वास था कि केवल बुद्धि के अनुसार ही मूर्तिपूजा भ्रष्टाचार (मिथ्याचार) नहीं है, वरंच वेदों में भी उसकी मनाही है और ईश्वरीय ज्ञान के भी विरुद्ध है। स्वामी जी का यह दृढ़ विश्वास था कि मूर्तिपूजा समस्त धर्म और शिष्टाचार सम्बन्धी बुराईयों की माता है और पुलीटीकल दासभाव और अप्रतिष्ठा उसका आवश्यक फल है। वह समझता था कि हिन्दुवंश कभी धर्म के सत्पथ पर नहीं चल सकता ओर न सोशिअल या पुलीटीकल उन्नति कर सकता है जब तक कि वह मूर्तिपूजा को न छोड़ दे। इसलिये अपनी आत्मा का समस्त बल उसने मूर्तिपूजा के खंडन में व उसको वेद विरुद्ध और बुद्धि के विरुद्ध करने मे लगा दिया।
कौन नहीं जानता उसने बड़े-बड़े बुतपरस्तों और बड़े-बड़े मूर्तिपूजा के भक्तों के दिलों को हिला दिया। उसने हिन्दू जाति के स्थिर हुए जल को चलायमान कर दिया और हिन्दू पंडितों को इस खोज में डाल दिया कि मूर्तिपूजा के मंडन के प्रमाण ढूंढ़े क्योंकि स्वामी जी वेदों को पूर्णरूप में मानने वाले थे। यदि वेदों में मूर्तिपूजा का प्रमाण मिल जाता तो उसको पूर्ण उत्तर मिल जाता।
सत्य तो यह है कि मूर्तिपूजा और देवपूजन के खंडन में स्वामी दयानन्द ने वह काम किया कि जिसमें स्वामी शंकराचार्य जैसे महात्मा भी घबरा गए और अशक्त रहे। मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध सिद्ध करने से स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म के शत्रुओं और अन्य मजहब वालों से उनका और उससे दृढ़ भयानक शस्त्र जिससे वह हिन्दू धर्म को चकनाचूर कर देते थे, छीन लिया। मुसलमान और ईसाइयों को सबसे बड़ी शंका जो वेदों के धर्म से विरुद्ध थी, स्वामी दयानन्द की शिक्षा से छिन्न-भिन्न हो गई। मुसलमान और ईसाइयों की अब यह शक्ति न रही कि हिन्दू धर्म को मूर्तिपूजा का धर्म बतलाकर हिन्दुओं को बहका सकें और अपने सम्प्रदाय में मिला सकें। मानो कि ईसाई और मुसलमानों के हमलों का सारा बल टूट गया। मूर्तिपूजा के दृढ़ दुर्ग को वास्तव में शुद्ध ईश्वरपूजा का विरोधी सिद्ध करके स्वामी दयानन्द ने मुसलमान और ईसाइयों के दावों को निर्मूल (निर्बल) बना दिया। लाखों जीवों (आर्य–हिन्दुओं) को अपने धर्म से पतित होने से बचा लिया। यदि स्वामी दयानन्द जी अपने जीवन में और कुछ भी न करते और केवल इतना ही (मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध सिद्ध) कर जाते तो भी हम समझते हैं कि केवल इस काम से वह महापुरुष कहलाने के योग्य होते। परन्तु स्वामी दयानन्द ने और भी महान कार्य किये हैं जिनका वर्णन हम आगे (ऋषि दयानन्द की जीवनी में) करेंगे। तो भी हमारे यह कहने में कुछ भी शंका नही कि मूर्तिपूजा का खंडन स्वामी दयान्द के जीवन का मुख्य उद्देश्य था।
नोटः- यह लेख लाला लाजपतराय जी द्वारा लिखित ऋषि दयानन्द की जीवनी ‘‘महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका काम” से लिया गया है। यह लेख लाला जी की उक्त पुस्तक का एक अंश मात्र है।