कविता वंदना शर्मा की कविता March 16, 2010 / December 24, 2011 by प्रवक्ता ब्यूरो | 1 Comment on वंदना शर्मा की कविता याद आता है मुझे वो बीता हुआ कल हमारा, जब कहना चाहते थे तुम कुछ मुझसे, तब मै बनी रही अनजान तुमसे, जाना चाहती थी मैं दूर, पर पास आती गई तुम्हारे, लेकिन धीरे-धीरे होती रही दूर खुदसे, फिर तो जैसे आदत बन गई मेरी हर जगह टकराना जाके यूँ ही तुमसे, जब तक नहीं […] Read more » poem कविता
कविता ए. आर. अल्वी की कविता: गांधी की आवाज़ January 29, 2010 / December 25, 2011 by ए. आर. अल्वी | Leave a Comment फिर किसी आवाज़ ने इस बार पुकारा मुझको खौफ़ और दर्द ने क्योंकर यूं झिंझोड़ा मुझको मैं तो सोया हुआ था ख़ाक के उस बिस्तर पर जिस पर हर जिस्म नयीं ज़िन्दगी ले लेता है बस ख़्यालों में नहीं अस्ल में सो लेता है आंख खुलते ही एक मौत का मातम देखा अपने ही शहर […] Read more » Mahatma Gandhi ए. आर. अल्वी कविता गांधी की आवाज़ महात्मा गांधी
कविता मत आना लौट कर January 28, 2010 / December 25, 2011 by केशव आचार्य | 3 Comments on मत आना लौट कर मत आना इस धरा पर तुम लौट कर, इस विश्वास के साथ कि तुम्हारे तीनों साथी अब भी बैठे होंगे, कान आंख और मुंह बंद कर बुरा ना सुनने, देखने और कहने के लिए, मत आना तुम इस धरा पर लौट कर इस आशा के साथ कि तुम्हारी लाठी अब भी तुम्हारे रास्ते का हमसफ़र […] Read more » poem कविता
कविता कविता: जंगल का ‘गणतन्त्र’ January 27, 2010 / December 25, 2011 by राकेश उपाध्याय | 4 Comments on कविता: जंगल का ‘गणतन्त्र’ लेखक एवं पत्रकार राकेश उपाध्याय स्फुट कविताएं भी लिखते रहते हैं। उनकी कविताएं पूर्व में प्रवक्ता वेब पर प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रवक्ता के लिए उन्होंने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर एक खास व्यंग्यात्मक कविता रची है। इसे हम अपने पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि पाठक गण उनकी रचनाधर्मिता […] Read more » Independence Day कविता गणतंत्र दिवस
कविता मां शारदे मुझे सिखाती January 20, 2010 / December 25, 2011 by स्मिता | 2 Comments on मां शारदे मुझे सिखाती दौर नया है युग नया है हानि-लाभ की जुगत में चारों ओर मची है आपाधापी मां शारदे मुझे सिखाती तर्जनी पर गिनती का स्वर न काफी भारत की थाती का ज्ञान न काफी सिर्फ अपना गुणगान न काफी मां शारदे मुझे सिखाती नवसृजन की भाषा सीखो मानव मुक्ति का ककहरा सीखो भव बंधन के बीच […] Read more » poem कविता मां शारदे
कविता कविता / मेरा मन December 13, 2009 / December 25, 2011 by सतीश सिंह | 3 Comments on कविता / मेरा मन ई मेल के जमाने में पता नहीं क्यों आज भी मेरा मन ख़त लिखने को करता है। मेरा मन आज भी ई टिकट की जगह लाईन में लग कर रेल का आरक्षण करवाने को करता है। पर्व-त्योहारों के संक्रमण के दौर में मेरा मन बच्चों की तरह गोल-गप्पे खाने को करता है। फोन से तो […] Read more » poem कविता
कविता भष्ट्राचार की कहानी : कविता – सतीश सिंह November 10, 2009 / December 25, 2011 by सतीश सिंह | 1 Comment on भष्ट्राचार की कहानी : कविता – सतीश सिंह भष्ट्राचार की कहानी लिख दो इतिहास के पन्नों पर कोड़ा के भष्ट्राचार की कहानी भर दो उसमें गरीबों के खून की स्याही ताकि सदियों तक पढ़ा जा सके आज के इतिहास में मूल्यों से बेवफाई। Read more » Poems Satish Singh कविता भष्ट्राचार भष्ट्राचार की कहानी सतीश सिंह
कविता अवमूल्यन : कविता – सतीश सिंह November 9, 2009 / December 25, 2011 by सतीश सिंह | 2 Comments on अवमूल्यन : कविता – सतीश सिंह पता नहीं कब और कैसे धूल और धुएं से ढक गया आसमान सागर में मिलने से पहले ही एक बेनाम नदी सूख़ गई एक मासूम बच्चे पर छोटी बच्ची के साथ बलात्कार करने का आरोप है स्तब्ध हूँ खून के इल्ज़ाम में गिरफ्तार बच्चे की ख़बर सुनकर इस धुंधली सी फ़िज़ा में सितारों से आगे […] Read more » Poems Satish Singh अवमूल्यन कविता सतीश सिंह
कविता पाती : कविता – सतीश सिंह November 9, 2009 / December 25, 2011 by सतीश सिंह | Leave a Comment पाती मोबाईल और इंटरनेट के ज़माने में भले ही हमें नहीं याद आती है पाती पर आज़ भी विस्तृत फ़लक सहेजे-समेटे है इसका जीवन-संसार इसके जीवन-संसार में हमारा जीवन कभी पहली बारिश के बाद सोंधी-सोंधी मिट्टी की ख़ुशबू की तरह फ़िज़ा में रच-बस जाता है तो कभी नदी के दो किनारों की तरह […] Read more » Poems Satish Singh कविता पाती सतीश सिंह
कविता प्रोफेशनल November 8, 2009 / December 25, 2011 by सतीश सिंह कुछ भी दिल से नहीं लगाते इसलिए हैं अपने काम के प्रति बहुत ही प्रतिबध्द। लक्ष्य प्राप्त करने के लिए किसी भी हद को पार कर सकते हैं। इन्हें गलती से लौटाए ज्यादा पैसे रखने में कोई गुरेज़ नहीं। बेशर्मी से चार लोगों के बीच अकेले चाय पी सकते हैं। मांग सकते हैं दूसरों की […] Read more » Professional Satish Singh कविता प्रोफेशनल सतीश सिंह
कविता सहजीवन November 7, 2009 / November 7, 2009 by सतीश सिंह | 3 Comments on सहजीवन पत्नी नहीं है वह पर स्वेछा से करती है अपना सर्वस्व न्यौछावर एक अपार्टमेन्ट की बीसवीं मंजिल पर है उनका एक छोटा सा आशियाना घर को सुंदर रखने के लिए रहती है वह हर पल संघर्षरत पुरुष मित्र के लिए नदी बन जाती है वह और समेट लेती है अपने अंदर उसके […] Read more » कविता सतीश सिंह सहजीवन
कविता साहित्य कविता \ रंग October 9, 2009 / December 26, 2011 by हिमांशु डबराल | Leave a Comment रंग बदल जाते है धुप में, सुना था फीके पड़ जाते है, सुना था पर उड़ जायेंगे ये पता न था! हाँ ये रंग उड़ गए है शायद… जिंदगी के रंग इंसानियत के संग, उड़ गए है शायद… अब रंगीन कहे जाने वाली जिंदगी, हमे बेरंग सी लगती है, शक्कर भी हमें अब फीकी सी […] Read more » poem कविता