सांसदों के लिए ‘वेतन फर्स्ट, वतन लास्ट, काम गणपूर्ति’ हो गया है

‘शर्म शिरोमणि हैं या सांसद’?

कुन्दन पाण्डेय

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का एक कथन है कि “राजनीतिज्ञों को नेशन फर्स्ट, पार्टी नेक्स्ट, सेल्फ लास्ट” के उदात्त आदर्श को ध्यान में रखकर राष्ट्र सेवा की राजनीति करनी चाहिये, परन्तु लगभग हर सत्र में असंसदीय भाषा (मारपीट, तोडफोड, माइक, टेबल, चेयर से एक दूसरे को मारने की घटनायें हो चुकी हैं) का प्रयोग करने वाले सभी दलों व सभी दलों के नेताओं ने, अपनी वेतनवृध्दि के लिए जिस एकता व त्वरा से 4 दिन के अंदर दूसरी बार अपना वेतन वर्ष 2010 में बढ़वा लिया, उतनी तीव्र गति महिला आरक्षण या लोकपाल या किसी अन्य महत्वपूर्ण विधेयक में कभी देखने को नहीं मिली।

क्या संसद एक ऐसा मंदिर बन गया है जिसके निचले सदन लोकसभा के 163 सांसदों (पुजारियों ने) खुद चुनाव आयोग को दिए गए शपथ-पत्र में सगर्व बताया है कि हम पर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं? क्या मंदिर के पुजारी को हत्या, बलात्कार, डकैती, अपहरण, सार्वजनिक धन को निगलने के आरोप में कोर्ट से सजा होने से मंदिर (संसद) की सर्वोच्चता भंग होती है। पुजारी (सांसदों) को तो संसद को शोभा देनी चाहिए। जब पुजारी मंदिर (संसद) से ही शोभा-इज्जत-आश्रय लेने लगेंगे, तो मंदिर का आयुष्य क्षीण होता जाएगा। ऐसे संतरी-संरक्षक से मंदिर को ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा, जो केवल लेगा, देगा कुछ नहीं। लंपट के केस का सामना कर रहे पुजारियों से अपने घर के पूजा-पाठ, यज्ञ-हवन कोई कैसे कराएगा? ऐसे पंडित का पैर कैसे छुएगा?

माननीयों ने तथाकथित भंवरी से कर्नाटक पॉर्नगेट तक अलग ही ‘शर्म-शिरोमणि’ बनने की असीम जिजिविषा का अद्वितीय प्रदर्शन किया। ऐसे व्यभिचारी-अपराधी पुजारियों के मंदिर में होने से भक्त मंदिर में जाना बंद कर देंगे। मतलब साफ है ऐसे सांसदों से लोकतंत्र में अनास्था तेजी से बढ़ेगी। जो लोकतंत्र के लिए आत्मघाती होगा।

अरविंद केजरीवाल की तल्खी और गुस्से से हरगिज इत्तेफाक मत रखिए! उनकी भावनाओं से सम्पृक्त हो जाइए लेकिन उनके आरोपों के मन्तव्यों (अर्थों) से असहमत होने के तर्क आप को कहीं नहीं मिलेंगे। वैसे भी सरकार-सत्ता से लड़ने पर छल से हारने वाले को गुस्सा आना सामान्य है।

लेकिन केजरीवाल ने जो कहा वो बुरा लगना ही था। पंडित को पंडित कहो तो बुरा नहीं लगेगा। लेकिन चोर को चोर, एससी को एससी (जातिसूचक शब्द) कहो तो बुरा तो लगेगा ही। केजरीवाल का कथन सत्य तो है लेकिन अप्रिय है दागी सांसदों के लिए। जैसा की संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है-

सत्यं ब्रूयात् प्रिय ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम अप्रियम्।

प्रियं च नानृतम ब्रूयात, एष धर्म: सनातन:।

बिना सदन की कार्यवाही में भाग लिए, उपस्थिति रजिस्टर में हस्ताक्षर करने पर प्रतिदिन 2 हजार रुपये मिलता है। उपस्थिति रजिस्टर में हस्ताक्षर करने के बाद उनका संसद में उपस्थित होना आवश्यक नहीं है। यानी उपस्थिति भत्ता, उपस्थिति भत्ता नहीं, बल्की हस्ताक्षर भत्ता है। घोर आश्चर्यजनक तथ्य, है न? क्या भारत के किसी और सरकारी या निजी क्षेत्र में ऐसा संभव है कि केवल हस्ताक्षर करिए और आफिस के बाहर टहलकर भत्ता पाइये? उल्लेखनीय है कि, संसद की कार्यवाही चलाने हेतु 1/10 सांसदों की उपस्थिति पर्याप्त होती है।

सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि सभी सरकारी व निजी सेवाओं या व्यवसायों में से केवल देश की संसद में एक वर्ष तक सांसद रहकर लगभग 100 दिन कार्यवाही में भाग लेकर आजीवन पेंशन का लुत्फ उठाया जा सकता है जो कि अन्यत्र सोचना भी संभव नहीं।

इससे तो यही सिद्ध होता है कि सांसदों के लिए वेतन फर्स्ट है और वतन लास्ट है जबकि काम लगभग गणपूर्ति (कोरम) पूरा कर देना है, बस। है न सबसे लाजवाब, मजेदार, बिना पूँजी और रिस्क के सबसे कम काम करके, सबसे अधिक लाभ पाने का व्यवसाय, वह भी वैश्वीकरण के और महँगाई के वर्तमान परिदृश्य में। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010 में चली संसद की कार्यवाही पर प्रतिदिन 7 करोड़ 6.5 लाख रुपए का खर्च आया है। इस पर तुर्रा ये कि 14 वीं लोकसभा में 154 करोड़पति सांसद, 15 वीं लोकसभा में बढ़कर 300 हो गये।

ये वही माननीय जनप्रतिनिधी जनसेवक हैं, जिन्होंने महंगाई पर बहस के लिए जरूरी लोकसभा की संख्या का 1/10 की उपस्थिति का कोरम तक 2010 के एक सत्र में पूरा नहीं होने दिया। संसद अपने इज्जत के लिए सांसदों की मोहताज नहीं है। कान खोलकर सुन लें सारे सांसद, दुनिया का कोई देवालय अपने पुजारी-मौलवी से इज्जत पाने की मोहताज नहीं रहती। ये दागी सांसद अपनी इज्जत, न तो संसद को देने का प्रयास न करें, न ही संसद से लेने का। वैसे इज्जत लेने-देने की चीज नहीं होती, वह बहुत पवित्र चीज होती है। लेकिन सांसदों की चीजें हर कोई लेने-देने कैसे लगता है? गांधी जी को एक बार एक अंग्रेज ने भद्दी-भद्दी गालियां लिखकर भेजीं, उनका सम्मान उसकी गालियों से जरा भी कम नहीं हुआ। गांधी जी ने उस पत्र में लगे पिन को निकालकर रख लिया।

मंदिर (संसद) शाश्वत है, पुजारी आते-जाते रहते हैं। मंदिर (संसद) को कभी किसी पुजारी से लगाव नहीं होता, और पुजारी को भी किसी मंदिर से लगाव नहीं रखना चाहिए। लेकिन यहां खुद को अपराधी होने का शपथ-पत्र देने वाले पुजारी (सांसद), ‘अपने दागदार कपड़ों को दागदार कहने को’ उसे मंदिर को गाली देना कहकर अपना बचाव करने का असफल प्रयत्न कर रहे हैं। ‘पुजारियों ये पब्लिक है सब जानती है, ये पब्लिक है।’

सत्यनिष्ठा की शपथ लेनेवाले सांसदों के बारे में ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का यह बयान चिंताजनक है कि सांसद ‘सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना’ (एमपीएलएडीएस) के सामाजिक ऑडिट के विरोधी हैं। सच्चे सांसदों की निधि के सामाजिक नियंत्रण में होने से क्या नुकसान हो सकता है? उल्लेखनीय है कि केन्द्र ने वर्ष 2011-2012 से सांसद विकास निधि की राशि को 2 करोड़ से बढ़ाकर 5 करोड़ कर दिया है।

सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा ‘नाबार्ड कंसलटेंसी सर्विसेज’ से सांसद विकास निधि के कार्यों के बारे में कराए गए सर्वेक्षण में घोटाले, शॉपिंग कॉम्पलेक्स बनवाने, निजी उद्यमियों को लाभ पहुंचाने में प्रयोग, पहले से बनी अच्छी-खासी सड़क को फिर से बनाने सहित, ‘सांसद निधि से संचालित गायब परियोजनाएं’ तक सामने आईं हैं। इन लोलुप सांसदों में जनता के बाध्यकारी दबाव से ही इनमें विकास की ललक जग सकती है।

पुजारी (सांसदों) पर आरोप लगाना हर भक्त (लोकतंत्र के भक्त) का भक्तिसिद्ध अधिकार है। पुजारी 100 साल का जीवन जीने वाला एक इंसान है और मंदिर अगणित सालों तक चलने वाली संस्था। कोई 100 साल के आयुष्य का पुजारी उस पर कलंक ही लगा सकता है, मिटा नहीं सकता।

सांसद यह अच्छी तरह जान लें कि जस्टिस के सिद्दांतों में निर्वाचन शामिल नहीं है। न्याय कानून और सबूतों के आधार पर होता है। ऐसा नहीं है कि जिसका निर्वाचन हो गया वो न्याय के मामलों से परे हो गया। अपराधी को जनता के बहुमत-अल्पमत के आधार पर कोर्ट दंड नहीं देती है।

भ्रष्ट नेताओं ने मिलकर लोकतंत्र के चारों ओर एक दुष्चक्र बना लिया है, जिससे निकलने के लोकतंत्र के सारे प्रयत्न व्यर्थ होते जा रहे हैं। भारत में लोकतंत्र कहीं है ही नहीं, है तो एक ‘सुविधाशुल्कतंत्र, घोटालातंत्र या घूसतंत्र’ जो की अब व्यवस्था या सिस्टम का सभी लोगों द्वारा अंगीकृत किया जाने वाला सामान्यत: सबसे ‘शिष्टतंत्र’ बन गया है, जिसके माध्यम से केन्द्र से चले 100 पैसे गाँव के अन्त्योदय तक पहुँचते-पहुँचते 15 पैसे ही रह जाते हैं। एक नेतातंत्र है, जिसमें नेता दो संवैधानिक पदों पर रह सके इस हेतु एक पद को लाभ का पद न मानने की व्यवस्था फौरन कर दी जाती है, लेकिन 43 साल से लोकपाल पर चुप्पी।

यह नेतातंत्र सभी लाभकारी कार्य करते हैं– यथा किसी न किसी खेल संस्था में वर्चस्व बनाते हैं, आईपीएल की टीमें खरीदते हैं, शिक्षण संस्थायें, पेट्रोल पम्प और गैस एजेंसियां चलाते हैं, खुद व्यवसाय करते हैं, उद्यम चलाते हैं, एनजीओ इत्यादि चलाते हैं, कभी पत्नी के नाम से, कभी बेटे व अन्य रिश्तेदारों के नाम से।

एक अपराध तंत्र है, जिसमें अत्यधिक ईनाम व ऊँचे राजनीतिक आका तक पहुँच रखने वाले अपराधी बनिए, समाज में, पुलिस में आपका सम्मान बढ़ता जाएगा । एक पुलिस तंत्र है, जो राज्यों के मुख्यमंत्रियों के निजी नौकर की तरह भड़काऊ भाषण के आरोप में वरुण गाँधी पर रासुका लगाकर न्यायालय में पिट जाते हैं।

‘कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि लोकतंत्र में एक सर्वशक्तिशाली भ्रष्टतंत्र है जिसमें ऊपर से नीचे तक एक ईमानदार आदमी पिसकर (जीवन जीने की जगह) या तो आत्महत्या कर लेगा या ईमानदारी का सदा सर्वदा के लिए परित्याग कर देगा।’

जब आप संसद भवन के द्वार संख्या 1 से केन्द्रीय कक्ष की ओर बढ़ते हैं तो उस कक्ष के द्वार के ऊपर अंकित पंचतंत्र के निम्नलिखित संस्कृत श्लोक ने इस बजट-सत्र में सबका ध्यान आकृष्ट किया –

अयं निज: परोवेति गणना च लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

वसुधैव कुटुम्बकम् की संस्कृति के भारत देश में सांसद, संसद में तो एक कुटुम्ब की तरह कभी रहते नहीं, पूरे देश को कुटुम्ब की तरह क्या रखेंगे ? आपातकाल के विरोध में मील का पत्थर साबित हुए जे. पी. आन्दोलन से निकले समाजवादियों ने तो लोहिया के समाजवाद व जे पी के आदर्शों को चारा खाकर, पारिवारिक समाजवाद का उदात्त सिद्धांत गढ़कर व आय से अधिक संपत्ति जुटाकर ख़ाक में मिला दिया। अब आप ही यह तय करें कि ऐसे माननीय दागी सांसद, सांसद हैं या शर्म शिरोमणि?

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समसामयिक विषयों से सरोकार रखते-रखते प्रतिक्रिया देने की उत्कंठा से लेखन का सूत्रपात हुआ। गोरखपुर में सामाजिक संस्थाओं के लिए शौकिया रिपोर्टिंग। गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक के बाद पत्रकारिता को समझने के लिए भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी रा. प. वि. वि. से जनसंचार (मास काम) में परास्नातक किया। माखनलाल में ही परास्नातक करते समय लिखने के जुनून को विस्तार मिला। लिखने की आदत से दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, दैनिक जागरण भोपाल, पीपुल्स समाचार भोपाल में लेख छपे, इससे लिखते रहने की प्रेरणा मिली। अंतरजाल पर सतत लेखन। लिखने के लिए विषयों का कोई बंधन नहीं है। लेकिन लोकतंत्र, लेखन का प्रिय विषय है। स्वदेश भोपाल, नवभारत रायपुर और नवभारत टाइम्स.कॉम, नई दिल्ली में कार्य।

1 COMMENT

  1. नेताओ को अपने पेट का जो सवाल है तो सर्वसम्मति से पास करवा ही लेंगे

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