रक्तसाक्षी पंडित लेखराम के बलिदान से प्रेरणा लेकर उनका अनुकरण करना कृतज्ञता एवं श्रद्धांजलि है

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मनमोहन कुमार आर्य

       वर्ष 1897 की 6 मार्च को पं. लेखराम जी का 123 वां बलिदान दिवस होने के कारण उनके जीवन पर विचार कर उनसे प्रेरणा ग्रहण करने का अवसर है। पं. लेखराम जी का  आरम्भिक जीवन साधारण मनुष्यों की भांति ही था परन्तु ऋषि दयानन्द वा वेदों के विचारों  के स्पर्श व उन पर उनकी अद्भुत श्रद्धा व भक्ति सहित उसके लिए अपने प्राणों को अर्पित कर देने के कारण आज वह वैदिक धर्म पर शहीद हुए बलिदानियों में शिखरस्थ स्थान पर हैं। बलिदान दिस पर उनके जीवन से प्रेरणा लेकर उनके गुणों को अपने जीवन में धारण करने पर विचार करने का दिन है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य मात्र अर्थ प्राप्ति करना तथा उससे सुख-भोग की सामग्री एकत्रित करना ही नहीं है अपितु संसार के उत्पत्तिकर्ता ईश्वर व एकदेशीय सूक्ष्म एवं चेतन जीवात्मा के सत्यस्वरूपों को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए शुभ गुणों को धारण की आत्मा का कल्याण करना है। इसके साथ ही ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष की प्राप्ति करना भी मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। पण्डित लेखराम जी के जीवन काल में विधर्मी मिथ्या ज्ञान व अविद्या के सहारे वैदिक धर्म का ह्रास कर रहे थे। ऋषि दयानन्द ने वैदिक धर्म के यथार्थ स्वरूप को प्रस्तुत कर उसके महत्व को प्रस्तुत किया था जो इस जन्म में अभ्युदय प्राप्त कराने के साथ मृत्यु होने पर निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष कराता है। पं. लेखराम जी ने ऋषि दयानन्द की वैदिक मान्यताओं, सिद्धान्तों व उद्देश्यों के प्रचार को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया था और अपनी योग्यता व पुरुषार्थ से वैदिक धर्म की महत्वपूर्ण सेवा व रक्षा की। सारा आर्य जगत् व सभी वैदिक धर्मी उनकी सेवाओं एवं बलिदान के लिए सदा-सदा के लिए ऋणी व कृतज्ञ हैं। उनके बलिदान ने यह सिद्ध कर दिया कि वैदिक धर्म के विरोधियों के पास वेद और आर्यसमाज के सिद्धान्तों की काट व उनका उत्तर नहीं है। उनकी नींव असत्य व मिथ्या ज्ञान अथवा अविद्या पर आधारित है। वह वैदिक धर्म के सिद्धान्तों का न तो सामना ही कर सकते हैं और न आक्षेपों का उत्तर ही दे सकते हैं। पं. लेखराम जी के बलिदान ने विपक्षियों व विरोधियों की सैद्धान्तिक दृष्टि से पराजय प्रदर्शित की है। हमें पं. लेखराम जी से प्रेरणा लेकर ऋषि दयानन्द व उनके मार्ग पर चलना है। इसी से वैदिक धर्म का प्रसार होगा और हम पुण्य के भागी होंगे।

       पंडित लेखराम जी सच्चे ब्राह्मण, धर्मवीर वा धर्मजिज्ञासु थे। आपका सारा जीवन सभी एषणाओं से मुक्त जीवन था। धन भौतिक पदार्थों का आपको किंचित भी मोह नहीं था। अर्थ शुचिता का यदि आदर्श रूप देखना हो तो वह महर्षि दयानन्द, पं. लेखराम जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी पं. गुरुदत्त आदि के जीवन में मिलता है। पं. लेखराम जी आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रचारक विद्वान थे। पंजाब सभा व स्वामी श्रद्धानन्द जी की प्रेरणा से ही आपने ऋषि दयानन्द जी के जीवन चरित का अनुसंधान किया। इसके लिए वह उन सभी स्थानों पर गये जहां जहां ऋषि दयानन्द जी गये थे। वहां जाकर लेखराम जी ने उन व्यक्तियों की तलाश की, जो ऋषि दयानन्द के जीवन में उनसे मिले थे, उन्हें देखा था तथा उनके सम्पर्क में आये थे या उनके प्रवचनों आदि से लाभान्वित हुए थे। ऐसे व्यक्तियों का पता लगाकर आपने उनसे ऋषि के बारे में जानकारी संग्रहीत की थी। ऋषि दयानन्द के सम्पर्क में आये लोगों के संस्मरणों को पता कर उनके ही शब्दों में उन्हें लिपिबद्ध करके ऋषि का अपूर्व जीवनचरित तैयार किया था। यद्यपि आर्यसमाज में ऋषि दयानन्द के पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, श्री गोपालराव हरि, श्री रामविलास शारदा, श्री हरविलास शारदा, मास्टर लक्ष्मण आर्य और डा. भवानीलाल भारतीय आदि विद्वानों के महत्वपूर्ण जीवनचरित विद्यमान हैं परन्तु पं. लेखराम जी ने जो तथ्यात्मक जीवनचरित दिया है वही सामग्री परवर्ती विद्वानों द्वारा लिखे गये जीवनचरित का मुख्य आधार बनी है। लेखराम जी के इस कार्य की जितनी भी प्रशंसा की जाये कम है। इसे पढ़कर पाठकों को सन्तोष व प्रसन्नता का अनुभव होता है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि यदि पं. लेखराम जी द्वारा यह कार्य सम्पन्न न किया जाता तो आज ऋषि के जितने जीवन चरित उपलब्ध होते हैं, घटनाओं की दृष्टि से उन सबका आकार अत्यन्त संक्षिप्त व न्यून होता। इस कार्य के लिए भी सारा आर्यजगत पं. लेखराम जी का ऋणी है। न केवल यह एक ग्रन्थ ही, अपितु पं. लेखराम जी ने वैदिक धर्म व ऋषि दयानन्द की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के पोषक अनेक ग्रन्थों का सृजन किया है। कुलियात आर्य मुसाफिर ग्रन्थ में उनकी प्रायः सभी रचनाओं को संग्रहित किया गया है। वर्तमान में भी यह ग्रन्थ परोपकारिणी सभा से उपलब्ध है।

       पं. लेखराम ने देश के अनेक स्थानों पर जाकर वैदिक धर्म का प्रचार किया। उन्होंने आर्यसमाजों की स्थापना, विधिर्मियों के आर्यों के धर्मान्तरण से रक्षा तथा अनेक धर्मान्तरित बन्धुओं को वैदिक धर्म में प्रविष्ट कराया। उन्होंने जिस समर्पण भाव से शुद्धि व धर्मप्रचार का कार्य किया वह स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है। उन्होंने वेद विरोधी मुस्लिम विद्वानों को जो चुनौतियां दीं वही उनकी हत्या व बलिदान का कारण बनीं। इस कार्य को करते हुए उन्होंने कभी अपनी माता, धर्मपत्नी व 1 वर्ष 3 माह की अल्पायु में मृत्यु को प्राप्त पुत्र सुखदेव के प्रति मोह का परिचय नहीं दिया। आप आचरण बताता है कि पंडित जी पारिवारिक मोह से ऊपर उठे हुए थे। आपकी धर्मपत्नी माता लक्ष्मी देवी जी भी आप की ही तरह वैदिक घर्म प्रेमी ऋषिभक्त थी। आप उन्हें शिक्षित कर आर्यसमाज की प्रचारिका बनाना चाहते थे। पं. लेखराम जी की मृत्यु पर माता लक्ष्मीदेवी जी को इंश्योरेंस से बीमे की राशि मिली थी। उसे उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी को पं. बुद्धदेव विद्यालंकार जी की शिक्षा व्यय के लिए दान दे दी थी। पं. बुद्धदेव विद्यालंकार जी परवर्ती जीवन में स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए। वह अद्भुद प्रतिभाशाली विद्वान थे। गुरुकुल प्रभात आश्रम, मेरठ उन्हीं के द्वारा स्थापित उनका स्मारक है। वैदिक वर्ण व्यवव्स्था की समर्थक उनकी कृति ‘‘कायाकल्प एक अतीव महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें गुण, कर्म, स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था का पोषण किया गया है। पं. लेखराम जी ने वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के लिए अनेक आदर्श स्थापित किये। सभी का वर्णन यहां किया जाना शक्य नहीं हैं। हम उनके धर्म प्रेम की एक अतीव प्रेरणाप्रद घटना प्रस्तुत कर लेख को विराम देंगे।

       पं. लेखराम जी को एक बार सूचना मिली कि लुधियाना के दोराहा गांव के हिन्दूओं का धर्मान्तरण किया जा रहा है। यह उनके लिए असह्य था। उन्होंने तत्काल वहां जाने की तैयारी की। मेल एक्सप्रेस रेलगाड़ी का टिकट  लिया और यह निश्चय होने पर गांड़ी दोराहा रुकेगी नहीं, उन्होंने चलती रेल से कूदने का निश्चय किया। आपने अपने बिस्तर को अपने शरीर के चारों ओर लपेटकर चलती रेल से छलांग लगा दी। आपके शरीर के अनेक भागों में चोटें लगीं। आप लहुलुहान हो गये और इसी घायल अवस्था में उस स्थान पर जा पहुंचे जहां हिन्दुओं को धर्मान्तरित कर मुसलमान बनाया जाना था। जब वह वहां के लोगों से मिले तो पूछने पर उन्होंने रेलागाड़ी से कूदने की यथार्थ कथा सुनाई। यह सुनकर सभी बन्धु स्तब्ध रह गये कि कोई व्यक्ति उनके धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा कर उन तक पहुंचा है। वहां के लोग पं. लेखराम जी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने धर्मान्तरण का अपना निश्चय त्याग दिया। स्वाभाविक है कि पंडित जी ने उसके बाद उन सभी बन्धुओं को वैदिक धर्म की महत्ता पर उपदेश भी अवश्य दिया होगा और उसके साथ ही मुस्लिम मत के अनेक अन्धविश्वासों व कुरीतियों का वर्णन भी किया होगा जिससे भविष्य में कोई उनको मूर्ख न बना सके। हमें पं. लेखराम जी के जीवन की यह घटना उनके गहरे धर्मभाव का प्रमाण प्रतीत होती है।

       दिनांक 6 मार्च, सन् 1897 को एक मुस्लिम युवक ने धोखे से पं. लेखराम जी के लाहौर स्थित निवास पर सायं 7 बजे छुरे को उनके पेट में घोप कर हत्या कर दी और भाग गया। जिस मनुष्य व समाज के पास किसी बात का उत्तर नहीं होता वह ऐसा ही कुकृत्य करता है। पं. लेखराम जी मरकर भी जीवित वा अमर हैं। वैदिक सत्य मत आज भी अपराजित है और अन्य सभी मत ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायियों द्वारा युक्ति, तर्क व प्रमाणों के आधार पर असत्य व अपूर्ण सिद्ध किये गये हैं। पं. लेखराम जी की मृत्यु पर पं. चमूपति जी और लाला लाजपत राय जी श्रद्धांजलियां प्रस्तुत करते हैं। पं. चमूपति जी के अनुसार “वीर लेखराम की अर्थी के साथ सहस्त्रों मनुष्यों का तांता लग रहा था। लाहौर के नरनारी इस निर्भीक युवक के बलिदान पर अत्यन्त क्षुब्ध थे। पृथिवी पर हर जगह फूल ही फूल दीखते थे। गुलाब के पानी के कंटर पर कंटर बहा दिये गये। आर्यजाति में एक नई स्फूर्ति थी, नया आवेग था। प्रतीत यह होता था कि एक धर्मवीर के बलिदान ने सम्पूर्ण जाति को नया जीवन प्रदान कर दिया है। पवित्रता का पारावार था। उत्साह ठाठें मार रहा था। साहस की बाढ़ गई थी। जिधर देखो, कर्मण्यतापूर्ण वैराग्य था। लाला लाजपत राय जी ने अपनी श्रद्धांजलि में कहा है कि ‘‘पं. लेखराम लेखनी की तलवार लेकर कार्यक्षेत्र में आया। विरोधियों की छावनी में भगदड़ मच गई। किसमें इतना साहस था कि सामने आये? उसकी लेखनी ने वही कार्य किया जो स्वामी दर्शनानन्द की लेखनी वाणी ने मिलकर सम्पन्न किया। कुलियाते आर्य मुसाफिर उसके अथक परिश्रम का ज्वलन्त प्रमाण है। मरने वाला मर गया। निर्दयी क्रूर हत्यारे ने अपनी गर्दन पर निष्पाप लेखराम की हत्या का पाप लिया। धर्मवीर पण्डित लेखराम जी ने अपनी नश्वर देह का त्याग करते हुए आर्यो को यह सन्देश दिया था, ‘‘लेखनी वाणी से प्रचार का कार्य बन्द हो। आज आर्यों को उनकी इस वसीयत को पूरा करना है, तभी भविष्य में वेदाज्ञा कृण्वन्तो विश्वमार्यम् चरितार्थ हो सकता है। हम भी अपनी अल्प सामथ्र्य एवं योग्यता से इस कार्य में लगे हुए हैं। ओ३म् शम्।

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