कश्मीर में हिंदुओं की लक्षित हत्याओं का सिलसिला

प्रमोद भार्गव
                कश्मीर में पाकिस्तान परस्त आतंकवादियों ने लक्षित हिंसा के तहत कश्मीरी हिंदुओं को निशाना बनाए जाने का सिलसिला तेज कर दिया है। कश्मीर में यह सिलसिला अक्टूबर 2021 से शुरू हुआ और 31 मई को दलित स्कूल शिक्षिका रजनी बाला की हत्या के साथ यह संख्या 18 हो गई है। इसके पहले 12 मई को कश्मीरी पंडित राहुल भट्ट को दफ्तर में घुसकर मार दिया था। तभी से 5000 हिंदू कश्मीरी हड़ताल पर हैं। अब उन्होंने चेतावनी दी है कि तत्काल घाटी के बाहर तबदादले नहीं किए तो सामूहिक पलायन कर देंगे। यदि ऐसा होता है तो आतंकियों की मंशा पूरी होगी और घाटी में 1990 के हालात बनने में देर नहीं लगेगी। जबकि घाटी में उन राष्ट्रवादी मुस्लिमों को भी आतंकी निशाना बना रहे हैं, जो सरकारी नीतियों पर भरोसा जताते हुए उन पर अमल कर रहे हैं। इस वजह से 13 मई को पुलिसकर्मी रियाज अहमद एवं सैफुल्ला कादरी और 25 मई को टीवी कलाकार अमरीन भट्ट की भी निर्मम हत्याएं आतंकियों ने की हैं। अतएव पाक परस्त आतंकियों के मंसूबे तोड़ने हैं तो धैर्य और साहस का परिचय हिंदुओं को देना होगा। पलायन से अच्छा है, वह सरकार से निजी सुरक्षा के लिए लाइसेंसी हथियारों की मांग करें और स्थानीय पुलिस व सेना के साथ अपनी सुरक्षा के लिए खुद कटिबद्ध हो जाएं। 
दरअसल घाटी की बदलती स्थिति को आतंकी कुबूल नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन वे सिलसिलेवार बचे-खुचे अल्पसंख्यकों की हत्याएं करके ऐसी दहशत पैदा करना चाहते है कि घाटी से तीन दशक पहले खदेड़ दिए गए हिंदुओं की वापसी की जो उम्मीदें बंधी हैं, उन पर पानी फिर जाए। इस दहशतगर्दी के पीछे एक वजह यह भी है कि धारा-370 और 35-ए के खात्मे के बाद विस्थापित गैर-मुस्लिमों की संपत्तियों से अवैध कब्जे हटाने की मुहिम तेज हो गई है। 1990 के बाद यह पहला अवसर है कि विस्थापितों की जायदाद से कब्जे छुड़ाकर वास्तविक भूमि-स्वामियों को संपत्ति सौंपी जा रही हैं। लिहाजा पाकिस्तान परस्त आतंकी चाहते हैं कि कश्मीरी हिंदुओं की वापसी मुश्किल बनी रहे। साथ ही कश्मीरी पंडितों का हौसला बढ़ाने की दृश्टि से नरेंद्र मोदी सरकार ने कश्मीरी हिंदुओं के लिए 6000 सरकारी नौकरियों के पद सृजित किए हैं। इनमें से 5900 पद भर भी गए रजनी बाला और उसके पति राजकुमार को इन्हीं सृजित पदों में से अनुसूचित जाति के कोटे में नौकरी मिली थी। धारा-370 हटने से पहले इस राज्य में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को सरकारी नौकरी देने पर प्रतिबंध लगा हुआ था। आतंकियों के बौखलाने का एक कारण आतंकवादी यासीन मलिक को अंतिम सांस तक मौत की सजा सुनाना भी है। जबकि घाटी में सांप्रदायिक सौहार्द्र का माहौल बन रहा है। इस बार बड़ी संख्या में पर्यटक भी घाटी में पहुंचे हैं। नतीजतन लोगों की माली हालात सुधरने के साथ रौनक भी बढ़ी है, जो आतंकियों की बर्दास्त से बाहर है। ऐसे में फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेता रजनी की हत्या को लेकर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। अब्दुल्ला ने जहर उगलते हुए कहा है, ‘अभी सब मारे जाएंगे।‘ कश्मीर में अस्थिरता पैदा करने वाले फारूक जैसे नेता भी चुनौती बने हुए है।   
कश्मीर का इकतरफा सांप्रदायिक चरित्र तब गढ़ना शुरू हुआ था, जब 31 साल पहले नेशनल कांफ्रेस के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री डाॅ. फारूख अब्दुल्ला के घर के सामने सितम्बर 1989 में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टीकालाल टपलू की हत्या जिहादियों ने कर दी थी। अलगाववादी हड़ताल तथा उग्र व हिंसक प्रदर्शन करने लगे। 9 जनवरी 1990 को चरमपंथियों ने तुगलकी फरमान सुनाया था कि ‘कश्मीरी पंडित एवं अन्य हिन्दू काफिर हैं।‘ इसी समय मस्जिदों से ऐलान किया गया, ‘हम क्या चाहते ? निजाम-ए-मुस्तफा, रलीव, गलीव, चलीव (धर्म बदल लो, मारे जाओ या भाग जाओ) अपनी युवा पत्नियों और कुंवारी कन्याओं को यहीं छोड़ जाओ।‘ इस ऐलान के साथ ही उन्मादी भीड़ गैर-हिंदुओं पर टूट पड़ी थी। इसके बाद हिंदुओं से जुड़ी 150 शैक्षिक संस्थाओं में आग लगा दी गई। 103 मंदिरों, धर्मशालाओं और आश्रमों को तोड़ दिया गया। पंडितों की दुकानों और कारखानों को लूट लिया। आगजनी और लूट की 14,430 घटनाएं घटीं। 20,000 से ज्यादा पंडितों की खेती योग्य जमीन छीनकर उन्हें भगा दिया गया। 1100 से ज्यादा पंडितों की निर्मम हत्याएं कर दी र्गइं। नतीजतन 95 प्रतिशत पंडितों को घर छोड़ने के लिए विवश हो गए और 19 जनवरी 1990 अल्पसंख्यक हिन्दुओं के सामूहिक पलायन का सिलसिला शुरू हो गया। उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य में कांग्रेस तथा नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन की सरकार थी और  डाॅ. फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। इस बेकाबू हालत को नियंत्रित करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की बजाय 20 जनवरी 1990 को एकाएक अब्दुल्ला कश्मीर को जलता छोड़ लंदन भाग गए। केंद्र में वीपी सिंह प्रधानमंत्री और मुफ्ती मोहम्मद सईद गृहमंत्री थे। कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने सेना के हस्तक्षेप के लिए केंद्र सरकार से गुहार लगाई, लेकिन मंडल-कमंडल के राजनीतिक खेल में लगे वीपी सिंह ने देश की संप्रभुता को सर्वथा नजरअंदाज कर दिया। गोया, घाटी में आतंक व अलगाव को फलने-फूलने का खुला अवसर मिल गया। इस पूरे घटनाक्रम में यासीन मलिक और बिट्टा कराटे उर्फ फारूक अहमद डार की प्रमुख भूमिका रही थी, जिसे इन दोनों अलगाववादियों ने सार्वजनिक मंचों से स्वीकारा भी था। बिट्टा और मलिक नरसंहार और अगजनी के अरोपों में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं। इनमें से एक यासीन मलिक को अब जाकर सजा मिली है। 
                1990 में शुरू हुए इस पाक प्रायोजित आतंकवाद के चलते घाटी से कश्मीर के मूल सांस्कृतिक चरित्र के प्रतीक कश्मीरी पंडितों को बेदखल करने की सुनियोजित साजिश रची गई थी। इस्लामी कट्टरपंथियों का मूल मकसद घाटी को हिन्दुओं से विहीन कर देना था। इस मंशापूर्ण में वे सफल भी रहे। देखते-देखते वादी से हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया और वे अपने ही पुश्तैनी राज्य में शरणार्थी बना दिए गए। ऐसा हैरान कर देने वाला दूसरा उदाहरण  अन्य किसी देश में नहीं है। पूरे जम्मू-कश्मीर में करीब 45 लाख कश्मीरी अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 7 लाख से भी ज्यादा विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। घाटी में मुस्लिम एकरूपता इसलिए है, क्योंकि वहां से मूल कश्मीरी हिंदुओं का पलायन हो गया है और जो शरणार्थी हैं, उन्हें बीते 75 साल में न तो देश की नागरिकता मिली है और न ही वोट देने का अधिकार मिला। हालांकि अब नागरिकता और वोट का अधिकार मिल गए हैं।
दरअसल अनुच्छेद-370 हटने के बाद भी हालातों में सुधार नहीं हो पा रहा है, तो इसका एक बड़ा कारण मजहबी कट्टरता पर चोट नहीं कर पाना है। अफगानिस्तान में तालिबानी कब्जे के बाद इस सोच को बल मिला है। गोया, साफ है कि यह समस्या अब राजनैतिक व संवैधानिक नहीं रह गई है, बल्कि अब धार्मिक चरमपंथ के रूप में सामने आ रही है। इस हिंसक उन्माद का सोच पाकिस्तान से निर्यात आतंकवाद तो है ही, घाटी में कुकुरमुत्तों की तरह मस्जिदों और मदरसों में फैला, वह शिक्षा का तंत्र भी है, जो आतंक की फसल बोने और उगाने का काम करता है। यही वजह है कि जितने भी इस्लामिक देश हैं, उनमें न तो अल्पसंख्यकों का जनसंख्यात्मक घनत्व बढ़ रहा है और न ही उन्हें नागरिक समानता के अधिकार मिल रहे हैं। कश्मीर में भी जिहादी चाहते हैं कि गैर-मुस्लिम या तो इस्लाम स्वीकार करें या फिर घाटी छोड़ जाएं।           
       दरअसल मुस्लिमों की इस दोषपूर्ण मंशा को संविधान निर्माण के समय ही डाॅ भीमराव अंबेडकर ने समझ लिया था। शेख अब्दुल्ला ने जब जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने की मांग की तो अंबेडकर ने सख्त लहजे में कहा था कि ‘आप चाहते हो कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों की आर्थिक सुरक्षा करे, कश्मीरियों को संपूर्ण भारत में समानता का अधिकार मिले, लेकिन भारत और अन्य भारतीयों को आप कश्मीर में कोई अधिकार देना नहीं चाहते ? मैं देश का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ कोई अन्याय या विश्वासघात किसी भी हालत में नहीं कर सकता हूं।‘ विडंबना देखिए कि मुस्लिम समाज देश में हर जगह बृहद हिंदू समाज के बीच अपने को सुरक्षित पाता है, किंतु जहां कहीं भी हिंदू अल्पसंख्यक मुस्लिमों के बीच रह रहे हैं, उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। बावजूद नेहरू के अनावश्यक दखल से कश्मीर को विशेष दर्जा मिल गया। इस भिन्नता का संकट देश बंटवारे से लेकर अब तक भुगत रहा है। यही वजह है कि इस बंटवारे के बाद पाकिस्तान से जो हिंदू, बौद्ध, सिख और दलित शरणार्थी के रूप में जम्मू-कश्मीर में ही ठहर गए थे, उन्हें मौलिक अधिकार आजादी के 75 साल में भी पूरी तरह नहीं मिले हैं। इनकी संख्या करीब 70-80 लाख है, जो 56 शरणार्थी शिविरों में सभी सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से महरूम रहते हुए बद् से बदतर जिंदगी का अभिशाप धारा-370 हटने से पहले तक भोगते रहे हैं।
                                                प्रमोद भार्गव

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