डॉ नन्द लाल भारती
बोध के समंदर से जब तक था दूर
सच लगता था सारा जहां अपना ही है
बोध समंदर में डुबकी क्या लगी
सारा भ्रम टूट गया
पता चला पांव पसारने की इजाजत नहीं
आदमी होकर आदमी नहीं
क्योंकि जातिवाद के शिकंजे में कसा
कटीली चहरदीवारी के पार
झांकने तक की इजाजत नहीं
बार-बार के प्रयास विफल ,
कर दिए जाते है ,
अदृश्य प्रमाण पत्र ,दृष्टव्य हो जाता है
चैन से जीने तक नहीं देता
रिसते घाव को खुरच दर्द ,
असहनीय बना देता है
अरे वो शिकंजे में कसने वालो
कब करोगे आज़ाद तुम्ही बता दो
दुनिया थू थू कर थक चुकी है
अब तो तुम्हारी भेद भरी जहां में
जीने की क्या ?
मरने की भी तौहिनी लगाती है …।
उम्र/ कविता
वक्त के बहाव में
ख़त्म हो रही है उम्र ,
बहाव चट कर जाता है ,
जार एक जनवरी को
जीवन का एक और बसंत।
बची-खुची बसंत की सुबह ,
झरती रहती है
तरुण कामनाएं।
कामनाओ के झराझर के आगे ,
पसर जता है मौन।
खोजता हूँ
बीते संघर्ष के क्षणो में
तनिक सुख।
समय है कि थमता ही नहीं,
गुजर जाता है दिन।
करवटों में गुजर जाती है रातें
नाकामयाबी की गोद में ,
खेलते-खेलते ,
हो जाती है सुबह ,
कष्टो में भी डुबकी रहती है ,
सम्भावनाएं।
उम्र के वसंत पर
आत्म-मंथन की रस्सा-कस्सी में
थम जाता है समय
टूट जाती है
उम्र की बाधाएं।
बेमानी लगाने लगता है
समय का प्रवाह और
डंसने लगते है
जमाने के दिए घाव।
संभावनाओ की गोद में
अठखेलिया करता
मन अकुलाता है
रोज-रोज कम होती उम्र में
तोड़ने को बुराईयों का चक्रव्यूह
छूने को तरक्की के आकाश।