यह कहानी है अविनाश सर की—एक ईमानदार, आदर्शवादी और प्रतिभाशाली शिक्षक की, जो शिक्षा को अपने जीवन का धर्म समझते हैं और विद्यालय को मंदिर। लेकिन जब उनका सामना एक ऐसे विद्यालय से होता है, जिसका संचालन एक पूर्व अपराधी-राजनेता द्वारा किया जा रहा होता है, तो उन्हें अपने आदर्शों और व्यवहारिक यथार्थ के बीच की गहरी खाई दिखाई देती है।
अविनाश झारखंड के एक छोटे से कस्बे में पले-बढ़े। बचपन से ही किताबों और शिक्षकों के प्रति उनका झुकाव असाधारण था। कॉलेज में गोल्ड मेडलिस्ट रहे अविनाश ने एमए और बीएड की पढ़ाई पूरी की और सपना देखा एक ऐसे विद्यालय में पढ़ाने का, जहाँ बच्चों को सिर्फ़ अंकों की दौड़ में नहीं, बल्कि इंसानियत और सोचने की ताकत में भी प्रशिक्षित किया जाए।
कई कोशिशों के बाद उन्हें एक बड़ा ऑफर मिला—राजधानी के पास खुले एक नए निजी विद्यालय “सृजन ग्लोबल एकेडमी” में “हिंदी और सामाजिक अध्ययन” के सीनियर टीचर के रूप में। विद्यालय नया था, लेकिन फीस बहुत ज़्यादा थी और प्रमोशन के बड़े वादे किए गए थे। अविनाश खुश थे—कम से कम शुरुआत तो हुई।
पहले दिन ही एक अजीब दृश्य देखने को मिला। विद्यालय का प्रिंसिपल एक रिटायर्ड आर्मी अफसर था, लेकिन वह खुद डर-डर कर एक काले चश्मे वाले, मोटे शरीर वाले व्यक्ति से बात कर रहा था—जिसे सब “साहब” कह रहे थे। बाद में पता चला कि वो साहब, विद्यालय के मालिक रामा शंकर सिंह हैं—एक पूर्व ठेकेदार, जिन पर कई मामले भी चल चुके थे, लेकिन अब वो एक उभरते स्थानीय नेता हैं।
“शिक्षा से उनका कोई लेना-देना नहीं है,” वरिष्ठ शिक्षिका विनीता मैम ने अविनाश से धीरे से कहा। “यह स्कूल सिर्फ़ पैसा कमाने की मशीन है।”
जल्द ही अविनाश ने देखा कि विद्यालय में अध्यापन से अधिक महत्व उस पर था कि कौन शिक्षक कितने एडमिशन ला सकता है। उन्हें भी कह दिया गया—
“अविनाश जी, मोहल्ले में अपने जान-पहचान में बच्चों को एडमिशन के लिए कहिए। आप सैलरी ले रहे हैं, तो संस्था के लिए थोड़ा योगदान तो बनता है।”
उन्हें प्रचार रैली में भी भाग लेने को कहा गया, और एक दिन साहब के बेटे की बर्थडे पार्टी में हाज़िर होने का आदेश भी आया।
धीरे-धीरे उन्हें एहसास हुआ कि यहाँ शिक्षक नहीं, कर्मचारी हैं। सम्मान नहीं, आदेश मिलते हैं। और मूल्यांकन परीक्षा से नहीं, ‘प्रबंधक की मर्जी’ से होता है।
विद्यालय में पढ़ाई केवल दिखावे की चीज़ थी। फीस स्ट्रक्चर आकाश छूता था लेकिन कक्षा में किताबें आधी अधूरी, और कई शिक्षक बिना योग्यताओं के थे। जब अविनाश ने बार-बार बच्चों को गाइडेड नोट्स के बजाय सोचने और खुद लिखने के लिए प्रेरित किया, तो उन्हें चेतावनी दी गई—
“आप पढ़ाते अच्छा हैं, लेकिन बोर्ड रिजल्ट खराब हुआ तो दोष आप पर आएगा। बच्चा जो रट कर पास हो जाए, वही सही शिक्षा है। आदर्श बाद में देखिएगा।”
शिक्षकों के लिए कोई अनुबंध नहीं था। सैलरी समय पर नहीं आती। दो बार अविनाश की क्लास किसी निजी कार्यक्रम के लिए हटा दी गई—क्योंकि “साहब” को स्कूल में राजनीतिक बैठक करनी थी।
अविनाश चुप नहीं बैठे। उन्होंने अपने जैसे कुछ और शिक्षकों को जोड़ा और शिक्षा विभाग में शिकायत दर्ज कराई। कुछ पत्रकारों से बात की। लेकिन जल्द ही उन्हें नोटिस थमा दिया गया—“अनुशासनहीनता और विद्यालय की छवि खराब करने का प्रयास।”
अब उनके पास दो ही रास्ते थे—या तो समझौता कर लें और नौकरी बचा लें, या फिर आदर्श की आग में अपने भविष्य की आहुति दें।
अविनाश ने इस्तीफा दे दिया। वह टूटे नहीं। उन्होंने छोटे स्तर पर एक निःशुल्क कोचिंग शुरू की, जिसमें वे गरीब बच्चों को पढ़ाते। सोशल मीडिया पर उन्होंने “गुरु पथ” नाम से ब्लॉग शुरू किया, जिसमें ऐसे ही स्कूलों की असलियत उजागर करने लगे।
धीरे-धीरे उन्हें शिक्षकों, अभिभावकों और समाज का साथ मिलने लगा। उनका आंदोलन अब राज्य स्तर पर चर्चा का विषय बन गया। शिक्षा मंत्रालय ने भी जांच का आश्वासन दिया।
अविनाश आज भी संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन अब वे अकेले नहीं हैं। उन्होंने दिखा दिया कि शिक्षक समाज का दीपक होता है। वो झुकता नहीं, क्योंकि जब वह झुकता है, तो पूरी पीढ़ी अंधकार में चली जाती है।
:- आलोक कौशिक