राजनीतिक जाल में उलझता तेलंगाना- रुचि सिंह

पदों का लालच, वोट बैंक, बंदूकों बूटों की जोर पर तेलंगाना के आंदोलन को दबा देने का अपना अलग इतिहास रहा है। सैकड़ों छात्रों को गोलियों के निशाने पर लेकर कांग्रेस ने 1969 के जबरदस्त आंदोलन की धार को मोड़ दिया। केन्द्र ने झुकने का नाटक किया है या अपनी चाणक्य नीति के तहत वह के. चंद्रशेखर राव को पी. श्रीरामुल्लू की तरह खोना नहीं चाहती थी, जिनके मरने के बाद उनकी मांग के मुताबिक ही भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश बनाना पड़ा था। तेलंगाना की पिछड़ी और अनुसूचित जनजाति की एक बड़ी आबादी मरने-मारने पर उतारू है। यही वह वोट बैंक है जिसको फिर से पाने के लिए कांग्रेस उत्तर भारत में प्रयासरत है।

गौरतलब है कि तेलंगाना की आबादी अलग राज्य बनने के बाद से ही सम्यक और समान विकास के मौकों से वंचित है। उसकी आमदनी पर आंध्र के दो क्षेत्र रायलसीमा और तटवर्ती आंध्र फल-फूल रहे हैं, अतः तेलंगाना की मांग जायज है। माकपा का विरोध भी जायज है कि तेलंगाना मान लेने से अन्य राज्यों की मांग का पिटारा भी खुल कर सामने आ जाएगा। उत्तर प्रदेश की मायावती इसके लिए तो पहले से ही तैयार बैठी हैं। इसका खामियाजा संघीय व्यवस्था को उठाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। छोटे राज्यों का सिध्दांत सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर उलझता ही जा रहा है। केन्द्र सरकार की सांप-छुछुंदर वाली हालत हो गई है। संप्रग सरकार ने उदारता का परिचय देते हुए रात में ही जल्दबाजी करते हुए राज्य के गठन की स्वीकृति दे डाली। विरोध में तेलंगाना का पेंच फंस गया तो अब गृहमंत्री पी. चिदम्बरम सबसे मशविरा करने की बात कह के मामले को ठंडे बस्ते में डाल रहे हैं। चतुर चिदंबरम के बयान के पीछे क्या खेल है, यह सभी जानने के लिए उत्सुक हैं। राजनीतिक खेमा विश्वास नहीं कर पा रहा है कि चिदम्बरम जैसा नेता आंध्र में तेलंगाना के प्रति भावनाओं को क्यों नहीं समझ पाए।

गौरतलब है कि तेलंगाना की मांग आजादी के पहले से ही उठती रही है। दरअसल तेलंगाना हैदराबाद के निजाम का हिस्सा था। 1948 में तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने ”सैनिक कार्यवाही” की धमकी देते हुए निजाम को भारत में मिलने के लिए मजबूर कर दिया। स्वतंत्र भारत में 1956 में जब आंध्र प्रदेश राज्य की स्थापना की गई तो तीन अलग-अलग क्षेत्रों में रायलसीमा, आंध्र के तटीय प्रदेश के साथ तेलंगाना को भी आंध्र प्रदेश के साथ मिला दिया गया। आंध्र प्रदेश के गठन के बाद तेलंगाना तुलनात्मक रूप से आंध्र के तटीय क्षेत्रों के मुकाबले काफी पिछड़ा रहा। चालीस के दशक में वासुपुनैया ने अलग तेलंगाना की मांग की थी। उसके बाद 1969 से अलग तेलंगाना का आंदोलन शुरु हुआ जो अब तक जारी है। 1969 में उस्मानिया विश्वविद्यालय के चलते पुलिस कार्यवाही में तकरीबन 350 से ज्यादा छात्र मारे गए थे। प्रजाराज्यम पार्टी के एम. चेन्नारेड्डी ने भी इस मांग को आगे बढ़ाया लेकिन इन्होंने अपनी पार्टी को कांग्रेस में विलय करके अलग तेलंगाना की मांग को अधर में लटका दिया। इसके एवज में उन्हें इंदिरा गांधी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया था। इसके बाद 1990 से ही के. चंद्रशेखर राव तेलंगाना की मांग बार-बार उठाते रहे हैं।

काबिलेगौर है कि आंध्र प्रदेश के 23 जिलों में 10 जिले तेलंगाना के अंदर आते है और राज्य विधानसभा की 294 में 119 सीटें तेलंगाना की है। तेलंगाना क्षेत्रों के विधायको के इस्तीफे की संख्या 128 तक पहुंच गई है और लगातार इस्तीफा देने का सिलसिला जारी है। 294 सदस्यीय विधानसभा से इस्तीफा देने वालों में कांग्रेस के सदस्य सबसे ज्यादा हैं। दूसरी ओर आंध्र प्रदेश के कांग्रेसियों ने यह कह कर कांग्रेस आलाकमान को परेशानी में डाल दिया कि तेलंगाना राज्य का फैसला लेने से पहले उनसे राय नहीं ली गई। सवाल यह पैदा होता है कि कांग्रेस ने जल्दबाजी में जो फैसला लिया है, उसका अंत क्या होगाा? फिलहाल तेलंगाना का फैसला मुसीबत ही साबित हो रहा है। यह स्पष्ट है कि तेलंगाना की राजनीतिक उपेक्षा रही है तो इसका दूसरा पहलू रेड्डी जमींदार वर्ग था क्याेंकि तेलंगाना भूमि का अधिकांश मालिकाना हक उनके पास है। आंध्र प्रदेश की राजनीतिक में रेड्डी समुदाय की काफी मजबूत पकड़ है। शिक्षा और विकास स्तर हमेशा तेलंगाना से दूर रहा है। जबकि तेलंगाना के पास कृष्णा और गोदावरी जैसी नदियां हैं। 42 प्रतिशत खेती योग्य भूमि होने के बावजूद हैदराबाद में बैठी सरकार ने कभी तवज्जो नहीं दी। तेलंगाना के साथ भेदभाव जारी रहा है। तेलंगाना को आंध्र प्रदेश के साथ मिलाने का एकमात्र कारण तेलगु भाषा रही है। इसके अलावा दोनों जगहों में कोई भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक समानता नहीं है। आंध्र प्रदेश गठन के समय में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तेलंगाना गठन का सैध्दांतिक वायदा 1956 में किया था। यह वायदा पूरा नहीं किया गया, बल्कि लगातार बदलती सरकाराें ने तेलंगाना के नेताओं को बहला-फुसला कर अपना उल्लू ही सीधा किया है।

यदि इतिहास को खंगालें तो तेलंगा राज्य के रूप में इसका वर्णन आता है। महाभारत युध्द में यह राज्य पांडवों के साथ था। किवदंती है कि वारंगल जिले में स्थित पांडवुला गुहलू ही वह जगह है जहां पांडव वनवास के दौरान रहे थे। खम्मम जिले के भद्राचलम से 25 किलोमीटर दूर गोदावरी नदी के किनारे ही वह जगह है जहां भगवान श्रीराम पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ पर्णकुटी बना कर रहे थे। 1648 में हैदराबाद की रियासतों को भारतीय संघ में मिलाया गया था। हालांकि भारत में राज्यों के गठन का इतिहास 106 साल पुराना है। 1903 में ब्रिटिश सरकार के गृह सचिव ‘हर्बट रिसले’ की अध्यक्षता में पहली बार राज्य पुनर्गठन समिति बनाई गई। समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही 1905 में बंगाल विभाजन हुआ। 1911 में ब्रिटिश भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाया गया था। 1917 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा था कि ‘वास्तविक प्रांतीय स्वाधीनता के लिए भाषा के अनुसार प्रांतों का निर्माण करना अत्यंत आवश्यक है’। 1918 में ‘मांग्ये-चेम्सफोर्ड’ कमिटी ने प्रशासनिक सुधार के बहाने छोटे-छोटे राज्यों के गठन का सुझाव दिया था, लेकिन भाषाई आधार के गठन को नकार दिया था।

कांग्रेस ने 1922 में ही भाषावार प्रांतों के सिद्धांत को मंजूरी दी। 1937-38 में इसे दोहराया गया। आज उसी का परिणाम सामने है कि तेलंगाना की लपटें धू-धू करके केवल जलती जा रही हैं। विगत संदर्भों को देखें तो मद्रास प्रेसिडेंसी से तेलगू बोलने वाले तटवर्ती आंध्र और रायलसीमा को काटकर अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठे गांधीवादी पोट्टी श्रीरामुल्लु की 53 दिनों बाद हुई मौत ने सबको हिला दिया और आंध्र अलग राज्य बन बैठा। उसी साल 1953 में केन्द्र सरकार द्वारा गठित ”राज्य पुनर्गठन आयोग” को भाषायी आधार पर राज्य बनाने का एक नया फार्मूला दे दिया। फिलवक्त कांग्रेसी नेता वरिष्ठ विधायक दामोदर रेड्डी के साथ अन्य कांग्रेसी नेताओं ने कहा है कि ‘अलग राज्य गठन की समय-सीमा जल्द ही तय करनी चाहिए।’ अलग तेलंगाना राज्य मुद्दे पर आंध्र प्रदेश उबलता रहा है। प्रदर्शनकारियों ने राज्य के तीनों क्षेत्रों में करीब 250 करोड़ रुपए की निजी और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया है। कुल नुकसान का 80 फीसदी तेलंगाना क्षेत्रों में ही हुआ है। मुश्किलें सामने यह है कि राज्य विधान सभा में कांग्रेस के 155 विधायकों में 100 आंध्र प्रदेश के तटीय इलाकों से आते हैं। ये विधायक शुरु से ही तेलंगाना राज्य बनाने की मुखालफत करते रहे हैं। क्याेंकि आंदोलन में हमेशा नेतृत्व का अभाव ही रहा है। राममंदिर की तरह नेता इस मुद्दे को भावनात्मक मुद्दा बनाते रहे और चुनावी वोट हासिल करने के लिए वोट बैंक की भावना से खेलते रहे, फिर बाद में ढ़ोल पीट-पीट कर शांत होते रहे। तेलंगाना मुद्दे को राष्ट्रिय परिक्षेप्य में देखने की जरूरत है। यदी हम तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा दे देते हैं तो बुदेलखंड, विदर्भ, पूर्वांचल, मिथिला, एवं अन्य राज्यों के दर्जा की मांग भी बढ़ेगी। राज्य का गठन समस्या का समाधान न होकर विकास होना चाहिए।

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