मृत्युंजय दीक्षित
1993 में हुए मुम्बई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के आरोपी याकूब मेमन को आखिरकार 22 साल बाद फांसी हो ही गयी। इससे उन लोगों को वास्तविक इंसाफ मिला है जो कि इन बम धमाकों के शिकार हो गये थे। इन धमाकों में 257 लोग मारे गये थे व कम से कम 700 लोग घायल हुए जबकि संपत्ति का नुकसान हुआ था अलग। याकूब को फांसी की सजा सुनाये जाने व डेथ वारंट जारी होने के बाद से जैसे जैस 30 जुलाइ्र नजदीक आ रही थी उसी प्रकार देश की जनता ने जिस प्रकार की राजनीति देखी व याकूब को बचाने वालों के अंतिम प्रयास देखने को मिले वह बेहद शोचनीय परिरिथतियां ही उत्पन्न कर रहा है। आतंकी याकूब को बचाने के लिए सर्वोच्च अदालत के अंदर व बाहर जिस प्रकार की दलीलें पेश की जा रही थीं वह भी एक गम्भीर सवाल खड़ें कर रही है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान यह बात भी साफ हो गयी है कि आखिर याकूब को किस कारण से विगत 22 वर्षों से अधिक समय से फांसी की सजा लटकी रह गयी और बचाव पक्ष के लोग न्यायपालिका को दयायाचिकाओ के माध्यम से देश को गुमराह करते रहे। इस पूरे प्रकरण में जो भी हुआ है वह अच्छा ही हुआ है। एक तो यह कि अब यह संदेश अवश्य जायेगा कि न्याय तो होगा ही आज नहीं तो कल। दूसरा यह कि अगर न्यायपालिका संजीदा सजग और सतर्क है तो कोई भी देशविरोधी व समाजविरोधी तत्व देश व समाज को अधिक समय तक गुमराह नहीं कर सकता है। जैसे कि देखा गया कि आतंकी याकूब को बचाने के लिए किस प्रकार से देश के नामचीन वकील अपनी राजनैतिक गोटियां सेकने के लिए देर रात तक सक्रिय रहे।
माननीय न्यायपालिका अदभुत साहस और देशप्रेम का परिचय देते हुए राष्ट्रपति की ओर से दयायाचिका खारिज हो जाने के बाद भी जब लगभग देश की आम जनता सो रही थी उस समय भी देर रात अदालत लगाकर देश के हितों को ध्यान में रखते हुए सभी प्रकार के दबावों को दरकिनार करते हुए अंतिम रूप से फैसला सुना दिया। यह न्यायपालिका के इतिहास का एक अदभुत, अकल्पनीय तत्परतापूर्ण ढंग से किया गया सराहनीय कार्य था । जिसका पूरे देश की जनता तहेदिल से समर्थन कर रही है। लेकिन यह देश का दुर्भाग्य है कि न्यायपालिका के निर्णयों के प्रति आज भी कुछ लोग अविश्वास प्रकट कर रहे हैं और अपनी मुस्लिम परस्त भावनाओं को जगजाहिर कर रहे हैं। जिसमें कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह व शशि थरूर जैसे नेता भी अपनी राय जगजाहिर कर रहे है। दिग्गी राजा को न्यायपालिका की तत्परता पर आश्चर्य प्रकट हो रहा है। याकूब की दयायाचिका पर जब सुनवाइ्र्र हो रही थी तभी याकूब के पैरोकार एक के बाद एक सामने आने लग गये थे। जिसका नेतृत्त्व किया हैदराबाद के सांसद औबेसी ने फिर तो लाइन लग गयी। फिल्म अभिनेता सलमान खान ने याकूब के समर्थन में एक के बाद 14 टिवट करके देशभर मे सनसनी मचाने का काम किया लेकिन इसका परिणाम उनके भविष्य के लिए खतरनाक हो गया है। वहीं देश के कई सांसद व सिनेजगत से जुडी हस्तियां राष्ट्रपति के पास दयायाचिका लेकर पहुच गयी थीं। कांग्रेस के महाराष्ट्र के मुस्लिम विधायक भी पीछे नहीं रहे। राजनैतिक दलों में उप्र की समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटबैंक के चक्कर में समर्थन में उतर पड़ी और मुबई के समाजवादी नेता मांग करने लगे कि यह घटना 6 दिसम्बर 1992 के परिणाम के कारण हुई थी लिहाजा पहले बाबरी ढंाचा गिराने वालों को फांसी की सजा हो। साथ ही मुंबई के समाजवादी नेता अबू आजमी ने यह कहना शुरू कर दिया कि याकूब को फांसी मुस्लिम होन के नाते दी जा रही है। सपा के साथ देने कके लिए शरद पवार की पार्टी भी मैदान में उतर पड़ी। लेकिन यह देश का सौभाग्य रहा कि याकूब के सभी हमदर्दो की दलीलें एक के बाद एक खारिज होती चली गयीं और न्याय की जीत हो गयी।
अब पूरा देश इन सभी ताकतांे को जवाब देने की तैयारी में लग गया है। याकूब की फांसी को रूकवाने के लिए तथाकथित सनसनी पसंद और कांग्रेसी वामपंथी विचारधारा वाले टी वी चैनल वैसे तो याकूब को फांसी देने का समर्थन कर रहे थे लेकिन उनकी कहानियों का निचोड़ यही निकलता था कि आतंकी व देशद्रेाही याकूब को येनकेन प्रकारेण फांसी न हो। एक टी वी चैनल के रहनुमा इस बात का ही प्रचार और प्रसार करने में लगे थे कि देश के पूर्व दिवंगत राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुंल कलाम स्वयं मूलभूत रूप से अपराधियों को फांसी की सजा देने के खिलाफ थे और पूर्व प्रथम महिला राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल भी फांसी की सजा देने के खिलाफ थीं लिहाजा देश के वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी अपने पूर्व को ध्यान में रखकर दयायाचिका पर निर्णय सुनायेंगे। यह भी परोक्ष रूप से याकूब का समर्थन ही था वहीं कुछ नामचीन चैनल तो याकूब की पत्नी और बेटी को टी वी पर इस प्रकार से परोस रहे थे जैसे कि वह बहुत बड़ी देशभक्त हो और उन पर बहूत बड़ा अत्याचार किया जाने वाला हो। टी वी चैनलों की याकूब की फांसी पर जिस तरह से रिपोर्टिग हो रही थी उसमें से कुछ याकूब के बचाव में स्वरों की प्रतिध्वनि सुनायी पड़ रही थी। इस पूरे प्रकरण में देशभक्त और आंतिकयों का साथ देने वाले तथाकथित वकीलों का चेहरा भी सामने आ गया है। देर रात न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाने वाले प्रशांत भूषण और आनंद ग्रोवर जैसे वकीलों के चेहरे व उनकी बातों से उनकी असलियत की पोल खुल रही थी।
देश का अधिकांश प्रबुद्धवर्ग देर रात तक टी वी चैनलों से चिपका रहा था और सभी के बाडी लैंग्वेज व भाषाशैली को समझ रहा था। यह सभी वकील केवल और केवल अपनी वकालत और कुछ हद तक भविष्य की राजनीति को चमकाने के लिए न्यायपालिका को गुमराह करने का खेल खेल रहे थे। प्रशांत भूषण के बारे में पूरा देश जानता है कि उन्होंने किस प्रकार से अन्ना हजारे का साथ छोड़ा और अब केजरीवाल का । जो अपनों का नहीं हुआ वह देश व न्यायपालिका का कैसे हो सकता है । यह वही व्यक्ति है जिसने कश्मीर पर विवादित बयान दिया था। यह तो भला हो देश के अटार्नी जनरल और जजों का जो कि इन तथाकथित आतंकी के अलम्बरदारों के छलावे में नहीं आ सके। इस फैसले से यह संकेत भी निकले रहे हैं कि वर्तमान में देश की न्यायपालिकाओं में जो मुकदमें चल रहे हैं उनमें तेजी आयेगी और तत्परता, सावधानी से न्याय मिलेगा। आज पूरा देश न्यायपालिका को नमन भी कर रहा है और चिंतित भी हो रहा है। बाकी सब तो अपने मुस्लिम परस्ती का दिखावा जनता के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं।
मृत्युंजय दीक्षित
मेरे विचार से,किसी को भी २२ वर्षों तक जेल में रखने के बाद उसको फांसी देना न्याय की जीत नहीं,बल्कि न्याय की हार है. मेरा मानना है कि भारत के अधोपतन में न्यायालय का बड़ा हाथ है. कहा जाता है कि न्याय में देरी, न्याय न करना है.इस दृष्टिकोण से देखा जाये तो भारत में न्याय होता ही नहीं.