
बहुत छायी,खूब छायी, जीवन में उदासी
हताश मन,बोझल तन,ड़ूबी है बोझ से जिन्दगी उबासी।
हैरान है,परेशान है, जीवन के रास्ते,
हम बहुत थके, खूब थके, जिन्दगी तलाशते।
हाथ थके,पाँव थके, थके सारे अंग,
श्रद्धा थकी, विश्वास थका, थका जीने का ढंग।
उम्मीद थकी, इंतजार थका, कल्पनाओं का आकाश थका
मान थका,सम्मान थका, जीवन का हर सोपान थका
शब्द थके,ज्ञान थका, पक्षियों का गान थका,,
आज नाच भूल गया, अपने सारे राग-रंग।
शांति थकी, राग थका,साधुओं का वैराग्य थका,,
तीर्थ थके, ग्रन्थ थके, पुजारी और संत थके,
औषधि थकी, मधु थका, अमृत का हर कण थका,,
अब जहर को भी आ गया, नये जीने का ढंग।
वृक्ष थके, सुमन थके, बीजों के हर अंकुरण थके,
पूजा थकी, यज्ञ थका, देवों का नैवेद्य थका
योग थका, मोक्ष थका, यम का यमलोक थका,
भूल गया आदमी आज अपने जीने का ढंग।
किरणें थकी,धूप थकी, रोशनी भी खूब थकी,,
मृदंग की थाप थकी,वीणा की झंकार थकी
कान्हा की मुरली थकी,राधा का इंतजार थका,
समाधि का तत्व थका,ब्रम्ह का ब्रम्हत्व थका
जीवन का अस्तित्व थका, शिव का शिवत्व थका,
कृपा थकी, वरदान थका,आशीर्वादों का परिणाम थका
पीव देव हो गये है जैसे सारे अपाहित अपंग।
देह को गलाये चला, काँटों पर सुलाये चला,
शत्रुता बढ़ाये चला,,दिल में आग जलाये चला
स्वार्थ में ड़ूब गया, बनकर हर आदमी मलंग।
आदर्श को गाढ. दिया, पाखण्ड़ को ओढ़ लिया,
सच को दबा दिया,झूठ को अपना लिया
थोप लिये क्रियाकाण्ड़ व्यर्थ के ढ.कोसले,
अब डसने को बन गया खुद आदमी भुजंग।
स्वार्थ को ताज मिला,ईमान बैठा रोता,
रोगों को पंख लगे,इलाज कहाँ होता?
धर्मभूमि भारत से,हमने धर्म को खदेड़ा,
पाश्चात संस्कृति ने डाला है अपना ड़ेरा।
आदमियत ही आदमी में, सदियों से हो गयी है बंद