वैचारिक शून्यता के शिकार ‘सत्तालोभी व अवसरवादी’ नेता     

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                                                                              तनवीर जाफ़री
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को देश के उस इकलौते प्राचीन राजनैतिक संगठन के रूप में जाना जाता है जिसने स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाते हुये पराधीन भारत को स्वाधीनता दिलाई थी। महात्मा गाँधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस,बाबा साहब भीम राव अंबेडकर, पंडित जवाहर लाल नेहरू,सरदार पटेल,मौलाना अबुल कलाम आज़ाद,ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान,जैसे अनेक महान नेता इसी कांग्रेस पार्टी के सम्मानित संस्थापक व सदस्य रहे हैं। कांग्रेस पार्टी जहाँ स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज़ादी के बाद अर्थात अब तक ‘सर्व धर्म समभाव ‘ जैसी सर्व समावेशी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती आ रही है वहीं इसी देश में हिन्दू महासभा,मुस्लिम लीग,राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जैसे भी अनेक दल व संगठन सक्रिय रहे जिन्होंने कांग्रेस व गांधीवादी विचारधारा के विरुद्ध चलते हुये देश के लोगों को धर्म के नाम पर गोलबंद करने का काम शुरू किया। ऐसी शक्तियां अंग्रेज़ों के हाथों का खिलौना बन गयीं क्योंकि अंग्रेज़ भी ‘बांटो और राज करो ‘ की इसी विभाजनकारी नीति पर चलते हुये ही विश्व के बड़े भूभाग पर शासन करते आ रहे थे। आज दुनिया के अनेक देशों ,में बन चुके कई अलग अलग देश, दुनिया के अनेक देशों में फैला धर्म के नाम का आतंक,देश प्रेम पर हावी होता धर्म प्रेम यह सब उसी अंग्रेज़ी सियासत के ही दूरगामी परिणाम हैं।
                                       परन्तु इससे भी बड़ा सच यह है कि अंग्रेज़ों की इस विभाजनकारी नीति को परवान चढ़ाने में सबसे बड़ी भूमिका मौक़ापरस्त,क्षणिक लाभ उठाने वाले,धन व सत्ता लोभी,विचार व सिद्धांत विहीन लोगों की रही है । कहा जा सकता है कि ‘विरासत’ में मिली इस ‘वैचारिक शून्यता’ व ‘रीढ़ विहीनता’ का सिलसिला न केवल आज तक जारी है बल्कि संभवतः यह भारतीय राजनीति के सबसे बड़े व  ‘दुर्भाग्यपूर्ण सत्य ‘ का रूप भी धारण कर चुका है। कहने को तो हमारे देश में अनेक राजनैतिक दल हैं जो दक्षिण पंथी,वाम पंथी,मध्य मार्गीय,व अनेक प्रकार की क्षेत्रीय विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। परन्तु प्रायः इन दलों के नेताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता अथवा वैचारिक समर्पण नाम की कोई चीज़ बाक़ी नहीं रह गयी है। कौन सा ‘गांधीवादी’ कब गोडसेवादी बन जाये,कौन सा लोहियावादी अथवा समाजवादी कब दक्षिणपंथी बन जाये कुछ कहा नहीं जा सकता।इन नेताओं के ‘वैचारिक पाला बदल’ के कारण भी बताने के कुछ और व हक़ीक़त में कुछ और ही होते हैं।
                                    मिसाल के तौर पर इन दिनों कांग्रेस के अनेक नेता दल बदल करते समय यह कहते सुने जा रहे हैं कि आज की कांग्रेस पहले वाली कांग्रेस नहीं रही,कोई कहता है कि कांग्रेस आत्महत्या कर रही है,कोई नेहरू-गाँधी परिवार पर पार्टी को मज़बूत न कर पाने का आरोप लगा रहा है। परन्तु हक़ीक़त तो यह है कि देश में धार्मिक ध्रुवीकरण की सफल राजनीति करने के बाद सत्ता में आने वाली भारतीय जनता पार्टी के समक्ष उन रीढ़विहीन व विचारविहीन नेताओं द्वारा समर्पण किया जा रहा है जो लंबे समय तक ‘सत्ता सुख ‘ भोगे बिना नहीं रह सकते। जिन्हें अपने साथ साथ अथवा अपने बाद अपने बच्चों व परिजनों के लिये पार्टी प्रत्याशी के रूप में टिकट की गारंटी चाहिए। या जो कांग्रेस में रहते हुये स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे थे,अथवा जो अपना जनाधार समाप्त कर चुके थे। कांग्रेस दरअसल हमेशा ही अपने ही ‘विभीषणों ‘ से कमज़ोर हुई है। जितनी बार कांग्रेस विभाजित हुई,देश का कोई अन्य दूसरा दल विभाजित नहीं हुआ। परन्तु कांग्रेस में पूर्व में कामराज, ब्रह्मानंद रेड्डी,नारायण दत्त तिवारी,अर्जुन सिंह,जी के मूपनार,जगजीवन राम व हेमवती नंदन बहुगुणा आदि नेताओं के समय काल के पार्टी विभाजन काफ़ी हद तक पार्टी की अपनी मूल धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को भी साथ लेकर चल रहे थे। तभी इन नेताओं ने या तो गांधीवादी विचारधारा युक्त अपने अलग राजनैतिक संगठन बनाये या फिर आगे चल कर पुनः कांग्रेस में ही विलय कर गये।
                                        परन्तु कल तक गाँधी की हत्या का शोक मनाने वाले आज हत्यारे गोडसे का गुणगान करने वालों की पंक्ति में जा खड़े होंगे, यह संभवतः हमारे ही देश की अवसरवादी व विचारविहीन राजनीति का दुर्भाग्य है। कल तक देश को गांधीवादी विचारधारा वाला धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाने का सपना देखने वाले आज हिन्दू राष्ट्र निर्माण के अग्र योद्धा बन जायेंगे इस बात की उम्मीद किसी भी विचार व सिद्धांतवादी राजनीतिज्ञ से तो हरगिज़ नहीं की जा सकती। और इसी सन्दर्भ से जुड़ी दूसरी सबसे बड़ी सच्चाई यह भी है कि आज जो भी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां भाजपा को सत्ता से हटाने के लिये गोलबंदी कर रही हैं दरअसल इन्हीं दलों के अनेक नेता ही आज इन परिस्थितियों के ज़िम्मेदार भी हैं। भाजपा अथवा संघ आज सत्ता में अपने बल बूते पर क़तई नहीं हैं। बल्कि विभिन्न तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों व उनके नेताओं ने ही कांग्रेस विरोध के नाम पर तो कभी सत्ता की मलाई खाने के चलते समय समय पर भाजपा से गठबंधन कर उसे मज़बूती प्रदान करते आये हैं। और आज जब इन्हीं ‘विभीषणों ‘ की बदौलत भाजपा ने पूर्ण बहुमत की सत्ता हासिल कर ली है तो अब यही थाली के बैंगन इनसे वैचारिक व सैद्धांतिक लड़ाई लड़ने के बजाये स्वयं ही ‘गिरगिट’ बनने में अपना ‘ उज्जवल राजनैतिक भविष्य’  तलाश रहे हैं।                                     गाँधी-सुभाष-आज़ाद-भगत सिंह-राज गुरु-सुखदेव-अशफ़ाक़ुल्लाह के सपनों के स्वर्णिम भारत की कल्पना कीजिये और आज के अवसरवादी,रीढ़विहीन, सत्तालोभी व विचार विहीन नेताओं के चरित्र व इनकी महत्वाकांक्षा को देखिये। हम स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुँच जायेंगे कि देश किस राजनैतिक वैचारिक ह्रास की और बढ़ रहा है। यह परिस्थिति पूरे विश्व में भारतीय राजनीति के स्तर को बदनाम करती है। आज नहीं तो कल,अब तो यह देश के विचारवान लोगों,युवाओं,छात्रों व किसानों को ही तय करना होगा कि देश की राजनीति में स्वार्थी अवसरवादी दलबदलुओं को क्या स्थान दिया जाये।धर्म जाति की राजनीति पहले ही देश को बहुत नुक़्सान पहुंचा चुकी है। अब देश को एकजुट होकर आगे ले जाने की ज़रुरत है। और इसके लिये वैचारिक समर्पण व प्रतिबद्धता रखने वाले नेताओं की ज़रुरत है न कि थाली के बैगनों की। जो भी नेता अपने राजनैतिक जीवन में ‘गाँधी-गोडसे-गाँधी’ करता फिरे और ख़ुद जनता को ‘सिद्धांत व दर्शन ‘ बताता फिरे समझ लीजिये कि ऐसे नेता का संबंध ज़रूर किसी ‘गिरगिट’ घराने से है और देशहित में इनका इलाज करना देश की जनता की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिये।

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  1. तनवीर जाफरी जी द्वारा प्रस्तुत राजनीतिक निबंध, वैचारिक शून्यता के शिकार ‘सत्तालोभी व अवसरवादी’ नेता, में इंडियन नेशनल कांग्रेस के अस्तित्व को ठीक उसी प्रकार बताया गया है जिसे चिरकाल से केवल सत्ता में बैठे लोग ही नहीं बल्कि कांग्रेस-राज में विशेषाधिकृत लोग भी दुहराते आये हैं| विशेषकर, आज मृत्यु-शैया पर पड़े इस राजनीतिक दल के लिए कोई किसी वैचारिकता के कारण नहीं, केवल नमक का मोल चुकाते उसे पुनर्जीवित करने के प्रयास में हैं|

    तनवीर जाफरी जी, मैं प्रायः आपके विचार पढ़ता हूँ और बहुधा आपसे सहमत, मैं आपका सम्मान करता हूँ| नेहरु-कांग्रेस कुछ और नहीं, तथाकथित स्वतन्त्र इंडिया में केवल फिरंगियों की प्रतिनिधि कार्यवाहक रही है| क्यों न हम प्रवक्ता.कॉम के इस मंच पर नेहरु-कांग्रेस पर विचार-विमर्श करें? मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि स्वतः युगपुरुष मोदी-भक्त नहीं हुए तो आप अवश्य ही नेहरु-कांग्रेस से विमुख हो जाएंगे! धन्यवाद|

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