राजेश कश्यप
27 फरवरी/पुण्यतिथि विशेष
आज हम जिस गौरव और स्वाभिमान के साथ आजादी का आनंद ले रहे हैं, वह देश के असंख्य जाने-अनजाने महान देशभक्तों के त्याग, बलिदान, शौर्य और शहादतों का प्रतिफल है। काफी देशभक्त तो ऐसे थे, जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही देश के लिए अतुलनीय त्याग और बलिदान देकर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में में अंकित करवाया। इन्हीं महान देशभक्तों में से एक थे चन्द्रशेखर आजाद। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव के बदरका नामक गाँव में ईमानदार और स्वाभिमानी प्रवृति के पंडित सीताराम तिवारी के घर श्रीमती जगरानी देवी की कोख से हुआ। चाँद के समान गोल और कांतिवान चेहरे को देखकर ही इस नन्हें बालक का नाम चन्द्रशेखर रखा गया। पिता पंडित सीताराम पहले तो अलीरापुर रियासत में नौकरी करते रहे, लेकिन बाद में भावरा नामक गाँव में बस गए। इसी गाँव में चन्द्रशेखर आजाद का बचपन बीता। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में बचपन बीतने के कारण वे तीरन्दाजी व निशानेबाजी में अव्वल हो गए थे।
चन्द्रशेखर बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उच्च शिक्षा के लिए वे काशी जाना चाहते थे। लेकिन, इकलौती संतान होने के कारण माता-पिता ने उन्हें काशी जाने से साफ मना कर दिया। धुन के पक्के चन्द्रशेखर ने चुपचाप काशी की राह पकड़ ली और वहां जाकर अपने माता-पिता को कुशलता एवं उसकी चिन्ता न करने की सलाह भरा पत्र लिख दिया। उन दिनों काशी में कुछ धर्मात्मा पुरूषों द्वारा गरीब विद्यार्थियों के ठहरने, खाने-पीने एवं उनकी पढ़ाई का खर्च का बंदोबस्त किया गया था। चन्द्रशेखर को इन धर्मात्मा लोगों का आश्रय मिल गया और उन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन मन लगाकर करना शुरू कर दिया।
सन् 1921 में देश में गांधी जी का राष्ट्रव्यापी असहयोग आन्दोलन चल रहा था तो स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने का दृढ़ सकल्प देशभर में लिया गया। अंग्रेजी सरकार द्वारा आन्दोलकारियों पर बड़े-बड़े अत्याचार किए जाने लगे। ब्रिटिश सरकार के जुल्मों से त्रस्त जनता में राष्ट्रीयता का रंग चढ़ गया और जन-जन स्वाराज्य की पुकार करने लगा। विद्याार्थियों में भी राष्ट्रीयता की भावना का समावेश हुआ। पन्द्रह वर्षीय चन्द्रशेखर भी राष्ट्रीयता व स्वराज की भावना से अछूते न रह सके। उन्होंने स्कूल की पढ़ाई के दौरान पहली बार राष्ट्रव्यापी आन्दोलनकारी जत्थों में भाग लिया। इसके लिए उन्हें 15 बैंतों की सजा दी गई। हर बैंत पड़ने पर उसने ‘भारत माता की जय’ और के नारे लगाए। उस समय वे मात्र पन्द्रह वर्ष के थे। सन् 1922 में गाँधी जी द्वारा चौरा-चौरी की घटना के बाद एकाएक असहयोग आन्दोलन वापिस लेने पर क्रांतिकारी चन्द्रशेखर वैचारिक तौरपर उग्र हो उठे और उन्होंने क्रांतिकारी राह चुनने का फैसला कर लिया। उसने सन् 1924 में पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी आदि क्रांतिकारियों द्वारा गठित ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकल एसोसिएशन’ (हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ) की सदस्यता ले ली।यह सभी क्रांतिकारी भूखे-प्यासे रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों में दिनरात लगे रहते।
इसी दौरान क्रांतिकारियों ने बनारस के मोहल्ले में ‘कल्याण आश्रम’ नामक मकान में अपना अड्डा स्थापित कर लिया। उन्होंने अंग्रेजी सरकार को धोखा देने के लिए आश्रम के बाहरी हिस्से में तबला, हारमोनियम, सारंगी आदि वाद्ययंत्र लटका दिए। एक दिन रामकृष्ण खत्री नामक साधू ने बताया कि गाजीपुर में एक महन्त हैं और वे मरणासन्न हैं। उसकी बहुत बड़ी गद्दी है और उसके पास भारी संख्या में धन है। उसे किसी ऐसे योग्य शिष्य की आवश्यकता है, जो उसके पीछे गद्दी को संभाल सके। यदि तुममें से ऐसे शिष्य की भूमिका निभा दे तो तुम्हारी आर्थिक समस्या हल हो सकती है। काफी विचार-विमर्श के बाद इस काम के लिए चन्द्रशेखर आजाद को चुना गया। चन्द्रशेखर न चाहते हुए भी महन्त के शिष्य बनने के लिए गाजीपुर रवाना हो गए। चन्द्रशेखर के ओजस्वी विचारों एवं उसके तेज ने महन्त को प्रभाव में ले लिया और उन्हें अपना शिष्य बना लिया। चन्द्रशेखर मन लगाकर महन्त की सेवा करने और महन्त के स्वर्गवास की बाट जोहने लगे। लेकिन, जल्द ही आजाद किस्म की प्रवृति के चन्द्रशेखर जल्दी ही कुढ़ गए। क्योंकि उनकी सेवा से मरणासन्न महन्त पुनः हृष्ट-पुष्ट होते चले गए। चन्द्रशेखर ने किसी तरह दो महीने काटे। उसके बाद उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों को पत्र लिखकर यहां से मुक्त करवाने के लिए आग्रह किया। लेकिन, मित्रों ने उनके आग्रह को ठुकरा दिया। चन्द्रशेखर ने मन मसोसकर कुछ समय और महन्त की सेवा की और फिर धन पाने की लालसाओं और संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगाकर एक दिन वहां से खिसक लिए।
इसके बाद उन्होंने पुनः अंग्रेजी सरकार के खिलाफ सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी। उन्होंने एक शीर्ष संगठनकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाई। वे अपने क्रांतिकारी दल की नीतियों एवं उद्देश्यों का प्रचार-प्रसार के लिए पर्चे-पम्फलेट छपवाते और लोगों में बंटवाते। इसके साथ ही उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की मदद से सार्वजनिक स्थानों पर भी अपने पर्चे व पम्पलेट चस्पा कर दिए। इससे अंग्रेजी सरकार बौखला उठी। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकल एसोसिएशन’ के बैनर तले राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त, 1925 को काकोरी के रेलवे स्टेशन पर कलकत्ता मेल के सरकारी खजाने को लूट लिया। यह लूट अंग्रेजी सरकार को सीधे और खुली चुनौती थी। परिणामस्वरूप सरकार उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गई। गुप्तचर विभाग क्रांतिकारियों को पकड़े के लिए सक्रिय हो उठा और 25 अगस्त तक लगभग सभी क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया। लेकिन, चन्द्रशेखर आजाद हाथ नहीं आए। गिरफ्तार क्रांतिकारियों पर औपचारिक मुकदमें चले। 17 दिसम्बर, 1927 को राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और दो दिन बाद 19 दिसम्बर को पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, अफशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह आदि शीर्ष क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। इसके बाद सन् 1928 में चन्द्रशेखर ने ‘एसोसिएशन’ के मुख्य सेनापति की बागडोर संभाली।
चन्द्रशेखर आजाद अपने स्वभाव के अनुसार अंग्रेजी सरकार के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों को बखूबी अंजाम देते रहे। वे अंग्रेजी सरकार के लिए बहुत बड़ी चिन्ता और चुनती बन चुके थे। अंग्रेजी सरकार किसी भी कीमत पर चन्द्रशेखर को गिरफ्तार कर लेना चाहती थी। इसके लिए पुलिस ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। पुलिस के अत्यन्त आक्रमक रूख को देखते हुए और उसका ध्यान बंटाने के लिए चन्द्रशेखर आजाद झांसी के पास बुन्देलखण्ड के जंगलों में आकर रहने लगे और दिनरात निशानेबाजी का अभ्यास करने लगे। जब उनका जी भर गया तो वे पास के टिमरपुरा गाँव में ब्रह्मचारी का वेश बनाकर रहने लगे। गाँव के जमींदार को अपने प्रभाव में लेकर उन्होंने अपने साथियों को भी वहीं बुलवा लिया। भनक लगते ही पुलिस गाँव में आई तो उन्होंने अपने साथियों को तो कहीं और भेज दिया और स्वयं पुलिस को चकमा देते हुए मुम्बई पहुंच गए। वे मुम्बई आकर क्रांतिकारियों के शीर्ष नेता दामोदर वीर सावरकर से मिले और साला हाल कह सुनाया। सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण से चन्द्रशेखर को प्रभावित कर दिया। यहीं पर उनकी मुलाकात सरदार भगत सिंह से हुई। कुछ समय बाद वे कानपुर में क्रांतिकारियों के प्रसिद्ध नेता गणेश शंकर विद्यार्थी के यहां पहुंचे। विद्यार्थी जी ने उन तीनों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया। यहां पर भी पुलिस ने उन्हें घेरने की भरसक कोशिश की। इसके चलते चन्द्रशेखर यहां से भेष बदलकर पुलिस को चकमा देते हुए दिल्ली जा पहंुचे।
दिल्ली पहुंचने के बाद वे मथुरा रोड़ पर स्थित पुराने किले के खण्डहरों में आयोजित युवा क्रांतिकारियों की सभा में शामिल हुए। अंग्रेज सरकार ने चन्द्रशेखर को गिरफ्तार करने के लिए विशेष तौरपर एक खुंखार व कट्टर पुलिस अधिकारी तसद्दुक हुसैन को नियुक्त कर रखा था। वह चन्द्रशेखर की तलाश में दिनरात मारा-मारा फिरता रहता था। जब उसे इस सभा में चन्द्रशेखर के शामिल होने की भनक लगी तो उसने अपना अभेद्य जाल बिछा दिया। वेश बदलने की कला में सिद्धहस्त हो चुके चन्द्रशेखर यहां भी वेश बदलकर पुलिस को चकमा देते हुए दिल्ली से कानपुर पहुंच गए। यहां पर उन्होंने भगत सिंह व राजगुरू के साथ मिलकर अंग्रेज अधिकारियों के वेश में अंग्रेजों के पिठ्ठू सेठ दलसुख राय से 25000 रूपये ऐंठे और चलते बने।
जब 3 फरवरी, 1928 को भारतीय हितों पर कुठाराघात करके इंग्लैण्ड सरकार ने ‘साईमन’ की अध्यक्षता में एक कमीशन भेजा। साईमन कमीशन यह तय करने के लिए आया था कि भारतवासियों को किस प्रकार का स्वराज्य मिलना चाहिए। इस दल में किसी भी भारतीय के न होने के कारण ‘साईमन कमीशन’ का लाला लाजपतराय के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी कड़ा विरोध किया गया। अंग्रेजी सरकार ने लाला जी सहित सभी आन्दोलनकारियों पर ताबड़तोड़ पुलिसिया कहर बरपा दिया और पुलिस की लाठियों का शिकार होकर लाला जी देश के लिए शहीद हो गए। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह व राजगुरू आदि क्रांतिकारियों ने लाला जी की मौत का उत्तरदायी साण्डर्स माना और उन्होंने उसको 17 दिसम्बर, 1928 को मौत के घाट उतारकर लाल जी की मौत का प्रतिशोध पूरा किया।
सांडर्स की हत्या के बाद अंग्रेजी सरकार में जबरदस्त खलबली मच गई। कदम-कदम पर पुलिस का अभेद्य जाल बिछा दिया गया। इसके बावजूद चन्द्रशेखर आजाद अपने साथियों के साथ पंजाब से साहब, मेम व कुली का वेश बनाकर आसानी से निकल गए। इसके बाद इन क्रांतिकारियों ने गुंगी बहरी सरकार को जगाने के लिए असैम्बली में बम फंेकने के लिए योजना बनाई और इसके लिए काफी बहस और विचार-विमर्श के बाद सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को चुना गया। 8 अपै्रल, 1929 को असैम्बली में बम धमाके के बाद इन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमें की औपचारिकता पूरी करते हुए 23 मार्च, 1931 को सरदार भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को बम काण्ड के मुख्य अपराधी करार देकर, उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।
इस दौरान चन्द्रशेखर आजाद ने अपने क्रांतिकारी दल का बखूबी संचालन किया। आर्थिक समस्याओं के हल के लिए भी काफी गंभीर प्रयास किए। पैसे की बचत पर भी खूब जोर दिया। इन्हीं सब प्रयासों के चलते दल की तरफ से सेठ के पास आठ हजार रूपये जमा हो चुके थे। चन्द्रशेखर ने सेठ को आगामी गतिविधियों के लिए यही पैसा लाने कि लिए इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में बुलाया। इसी बीच चन्द्रशेखर के दल के सदस्य वीरभद्र तिवारी को अंग्रेज सरकार ने चन्द्रशेखर को पकड़वाने के लिए दस हजार रूपये और कई तरह के अन्य प्रलोभन देकर खरीद लिया। जब 27 फरवरी, 1931 को चन्द्रशेखर सेठ से पैसे लेने के लिए निर्धारित स्थान अलफ्रेड पार्क में पहुंचे तो विश्वासघाती वीरभद्र तिवारी की बदौलत पुलिस ने पार्क को चारों तरफ से घेर लिया। उस समय चन्द्रशेखर अपने मित्र सुखदेव राज से आगामी गतिविधियों के बारे में योजना बना रहे थे। चन्द्रशेखर ने सुखदेव राज को पुलिस की गोलियों से बचाकर वहां से भगा दिया। उसने अकेले मोर्चा संभाला और पुलिस का डटकर मुकाबला किया।
एक तरफ अकेला शूरवीर चन्द्रशेखर आजाद था और दूसरी तरफ पुलिस कप्तान बाबर के नेतृत्व में 80 अत्याधुनिक हथियारों से लैस पुलिसकर्मी। फिर भी काफी समय तक अकेले चन्द्रशेखर ने पुलिस के छक्के छुड़ाए रखे। अंत में चन्द्रशेखर के कारतूस समाप्त हो गए। सदैव आजाद रहने की प्रवृति के चलते उन्होंने निश्चय किया कि वो पुलिस के हाथ नहीं आएगा और आजाद ही रहेगा। इसके साथ ही उन्होंने बचाकर रखे अपने आखिरी कारतूस को स्वयं ही अपनी कनपटी के पार कर दिया और भारत माँ के लिए कुर्बान होने वाले शहीदों की सूची में स्वर्णिम अक्षरों में अपना नाम अंकित कर दिया। इस तरह से 25 साल का यह बांका नौजवान भारत माँ की आजादी की बलिवेदी पर शहीद हो गया। यह देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा। भारत माँ के इस वीर सपूत और क्रांतिकारियों के सरताज को कोटि-कोटि नमन है।
लानत है हम सब को की हम इन महान आत्मा को नित्य प्रति तो क्या वर्ष में एक दिन – यानी उन की पुण्य तिथि पर भी उन्हें याद नहीं कर सकते | एक प्रश्न बार बार मन में उठता है – क्या इसी भारत के लिए इस सब ने अपना जीवन दान दिया था ?